प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 209 के बारे में । इसमें बताया गया है कि ईश्वर की भक्ति कैसे करनी चाहिए? गुरु की भक्ति कैसे करें? सच्ची भक्ति कैसे की जाती है? भक्ति की शुरुआत कैसे करें? ईश्वर की सच्ची भक्ति कैसे प्राप्त करें? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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उस सर्वव्यापी की प्राप्ति में ऐसी संतुष्टि होती है, जो कभी छूटने को नहीं है। अमित तोष होता है। मन-बुद्धि से आगे की बात है। अंदर में चलो, जितने आवरण हैं, पार करो। दादू दयालजी ने तीन शून्यों का जिकर किया- 'सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा... तीन शून्यों को पार करो तो, उसको पाओगे। तीन शून्य क्या है? यह शरीर हाड़, मांस, चाम का बना स्थूल कहलाता है। इसका दूसरा रूप सूक्ष्म है, यह भीतर में है। भीतर का अर्थ माथे के गुद्दे या अँतड़ी में नहीं। जैसे बर्फ स्थूल है और पानी सूक्ष्म है, इसी तरह अंधकार स्थूल है और प्रकाश सूक्ष्म है। हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता तो हमारी आँख में ज्योति नहीं होती है। दूसरा तल ज्योति का है और तीसरा तल शब्द का है। शब्द अंधकार और प्रकाश में भी है और इन दोनों के परे भी है। इन तीनों को छोड़ो तो पता पाओगे- उस अविगत का।
तीनों शून्य का वर्णन चित्र
तुलसी साहब ने भी घटरामायण में तीनों शून्यों का वर्णन किया है- 'जीव का निवेरा' में । कौन कह सकता है कि संसार में अंधकार, प्रकाश और शब्द नहीं है! इन तीनों को खतम कर दो तो स्थूल, सूक्ष्म, कारण; कुछ नहीं रहेंगे। सृष्टि समाप्त हो जाएगी। तीन को खतम करो। चौथे में जाओ, तो अंतरपट का अंत मिल जाएगा। जहाँ तक तुम्हारी गति है, वहाँ तक जाओगे और आगे नहीं। जाने का अंत कहाँ हुआ? अनंत में। जो बुद्धि के परे हैं। इस तरह ईश्वर का ज्ञान संतों ने बताया है। जैसे
बह्माण्ड के अद्भुत खजाने का नक्शा
युधिष्ठिर को रास्ता और अनुष्ठान व्यासदेव ने बताया था। युधिष्ठिर ने विश्वास किया। उस रास्ते पर चलो, जहाँ तक जाना चाहिए, गया और अनुष्ठानपूर्वक कर्म करके धन प्राप्त कर यज्ञ किया। उसी तरह संतों ने जो रास्ता बताया, जो अनुष्ठान बताया, उस पर विश्वास कर उसके अनुकूल चलो और बताए अनुष्ठानों को करो तो ईश्वर रूप धन को पाकर कृतकृत्य हो जाओगे।
खजाना प्राप्ति का रास्ता
लोगों का ऐसा ख्याल हो कि 'अगर हम अपने अंदर चलेंगे, तो हम संसार को कैसे पार कर सकते हैं? तो शरीर और संसार में बहुत संबंध है। शरीर जितने तत्त्वों से बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने तल हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। इससे यह निर्णय हुआ कि यदि हम शरीर के सभी तलों को पार कर जाएँ, तो संसार के भी सभी तलों को पार कर जाएँगे। चाहे अनेक ब्रह्माण्ड हों, किंतु अंधकार, प्रकाश और शब्द; इनसे परे कुछ सृष्टि नहीं हो सकती। संतों ने शरीर के अंदर चलने कहा। शरीर के तलों को पार करो तो संसार के भी तलों को पार कर सकोगे।
स्थूल, सूक्ष्म, कारण मंडल
ये तल क्यों बने ? स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि क्यों बने ? इस बात को भी जानो। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता। बिना कारण के सूक्ष्म नहीं हो सकता। जो सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। पाँच भौतिक तत्त्वों में आकाश विशेष सूक्ष्म है, तो वह अन्य चार तत्त्वों में व्यापक है। माया के सारे आवरणों को जो पार कर गया, तो ईश्वर पाने को बाकी नहीं रह जाता। भगवान श्रीराम आगे-आगे श्रीलक्ष्मणजी पीछे-पीछे और बीच में सीताजी जाती थीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
आगे राम लखन बने पाछें। तापस वेष विराजत काछे ।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ।।
यदि बीच से सीताजी हट जाएँ तो राम को लक्ष्मण देख लें। इसी तरह ब्रह्म का दर्शन माया के काऱण जीव को नहीं होता है। जो माया के तीनों आवरण को पार करे, तो ईश्वर-दर्शन हो जाएगा। इसी को एक जगह में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
राम का दर्शन क्यों नहीं होता है?
मायाबस मति मन्द अभागी।
हृदय जवनिका बहु विधि लागी ।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं।
निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
मतलब अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो और अंदर के परदों को पार करो, तो राम प्रत्यक्ष होंगे। संतों ने जो मार्ग बताया है, उस पर हमको चलना चाहिए। इसके लिए सुगम से सुगम काम क्या है?
ईश्वर प्राप्ति के सरलतम साधन
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरुपद पंकज सेवा,
तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन,
करइ कपट तजि गान ।
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।
सोइ अतिशय प्रिय भामिनी मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तौरे।।
पहली भक्ति संतों का संग है। लेकिन यह बात भी है कि-
नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग।
तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
इसके उत्तर में कहा है-
मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग।
तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
और-
ऐसी दिवानी दुनियाँ, भक्ति भाव नहिं बूझै जी ।।
कोई आवै तो बेटा मांगै, यही गुसाई दीजै जी ।।
कोई आवै दुख का मारा,हम पर किरपा कीजै जी ।।
कोई आवै तो दौलत मांगै, भेंट रुपैया लीजै जी।।
कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाई रीझै जी।।
साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
इन सब ख्यालों को लेकर साधु-संग में बैठोगे, तो कैसे रंग लगेगा? कथा प्रसंग में रहोगे तो कुछ करने की इच्छा होगी। कुछ करने के लिए गुरु की खोज करेगा। गुरु खोज करके उसकी सेवा करेगा।
गुरु सेवा में तल्लीन गुरुसेवी बाबा
बिना गुरु-सेवा के कोई गुरु से विद्या नहीं ले सकता। अर्जुन के अतिरिक्त द्रोणाचार्य से और किसी ने अधिक विद्या नहीं ली। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की बड़ी सेवा की थी। गुरु की सेवा करके लोग बड़े हुए हैं। क्षत्रपति शिवाजी गुरु समर्थ की सेवा अपने से ही करते थे। उनकी देह में तेल लगाते थे, पानी भरते थे आदि। राधास्वामी मत में राय शालिग्राम बहादुर महोदय की सेवा आपलोग जानते ही हैं कि कैसी सेवा उन्होंने की। लेकिन गुरु होना चाहिए, गोरु नहीं। गोरु कहते हैं-गाय-बैल को। गुरु कैसा होना चाहिए?
गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ ।।
सत्तनाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं ।
क्या ले गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं।।
मन दीया तिन सब दिया, मन की लार शरीर।
अब देवे को कछु नहीं, यों कथि कहै कबीर ।।
तन मन दिया तो क्या भया, निज मन दिया न जाय ।
कह कबीर ता दास से, कैसे मन पतियाय ।।
तन मन दीया आपना, निज मन ताके संग।
कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग ।।
फिर कहते हैं-
तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
आपा सबही डारिके, राखे साहिब माहिं ।।
ऐसे गुरु हों तो तन-मन से सेवा क्यों न करो? तन-मन और निज-मन में भेद है। पानी देना और कोई स्थूल सेवा करना तन-मन से सेवा है।तन-मन दो और आत्ममुखी मन भी दो। जब मन अंतर्मुखी होता है, तब वह निज मन कहलाता है। जो गुरु बाहरी सेवा से प्रसन्न होता है और अंतर साधन का ख्याल नहीं रखता, वह तो- हरइ शिष्य धन शोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महँ परई ।। ंजो गुरु बाहर की भी सेवा ले और अंतर साधन भी करावे, वह गुरु है। इस तरह गुरु की सेवा करो। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है- 'गुरु करो जान, पानी पीओ छान।'
चौथी भक्ति कैसे हो
यहाँ तक तीन भक्तियाँ हुईं। चौथी भक्ति है-कपट छोड़कर ईश्वर का गुणगान करना। कपट यह कि 'लोक दिखावे के लिए करता है, सो नहीं करे। संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, कपट छोड़कर गुणगान करना; ये सभी क्रम से हैं।
पूजाकोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः ।
जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः ।।
इसके बाद है पाँचवीं भक्ति-दृढ़ विश्वास से मंत्र जप करना, जो मंत्र गुरु बता दे। लेकिन ऐसा नहीं हो कि-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह जो सुमिरन नाहिं ।।
सुमिरण कैसा होना चाहिए तो कहा-
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
एकाग्र मन से जप करो, केवल जप-संख्या पूरा करने के लिए नहीं। एकाग्र मन से कुछ देर तक जप हो, तो समझो कि जप हुआ। संतों के संग से लेकर मंत्र जप तक; सब में मन की एकाग्रता अत्यन्त अपेक्षित है। जो अत्यन्त अपेक्षित है, उसको नहीं जानकर भक्ति करो तो वह भक्ति नहीं। पाँच भक्ति तक लोग समझ जाते हैं। इनमें मन की एकाग्रता होती है। मन की एकाग्रता में पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी होती है। अर्थात् भीतर के सूक्ष्म मण्डल में चलने की तैयारी है। ईश्वर का दर्शन कौन करेगा? आँख नहीं।
'गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।'
चेतन आत्मा का काल्पनिक रूप
संतों ने साफ कह दिया है। चेतन आत्मा से दर्शन होगा। माया में चेतन आत्मा के रहने से माया का ही दर्शन होता है। इसलिए लोगों को बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। माया को पार कर ईश्वर का दर्शन होता है। जैसे एक ही लालटेन के पाँच पहलों में पाँच रंग के शीशे हों और बीच में मोमबत्ती जलती हो, तो जिस रंग के शीशे होकर वह रोशनी बाहर निकलेगी, वह रोशनी उसी रंग की होगी। अर्थात् लाल शीशा होकर जो रोशनी बाहर निकलेगी, वह लाल और जो हरा शीशा होकर रोशनी बाहर निकलेगी, वह हरी रोशनी होगी। इसी प्रकार पाँचों रंग के शीशे के संबंध में समझिए। किंतु भीतर में जो मोमबत्ती जलती है, उसके प्रकाश का रंग इन पाँचों रंगों से भिन्न ही होता है, यद्यपि पाँचों रंग के शीशों से मोमबत्ती की ही रोशनी निकलती है। इसी तरह पंच ज्ञानेन्द्रियों में यद्यपि चेतन आत्मा के कारण ही ज्ञान है, फिर भी इन्द्रियाँ मायिक होने के कारण मायिक वस्तु को ही ग्रहण कर सकती हैं, निर्मायिक को नहीं। निर्मायिक तत्त्व अर्थात् परमात्मा को चेतन आत्मा ही ग्रहण कर सकती है। अपनी रोशनी में अपने को रखकर ईश्वर-दर्शन करो।
ईश्वर क्या है? मैं कहता हूँ कि दृश्य क्या है? तो जो तुम आँख से देखो, वह दृश्य वा रूप है। जो कान से सुनो, वह शब्द है। इसी तरह जिसको तुम चेतन आत्मा से जानो, वही ईश्वर है। अपने को मायिक आवरणों से छुड़ाकर अपने तईं में रखने के लिए अंदर चलना है। इस मंदिर में हमलोग बैठे हैं, इससे निकलने के लिए पहले मन्दिर-ही-मन्दिर चलना होगा। इसी तरह इस शरीर से निकलने के लिए शरीर के अन्दर अन्दर चलना होगा। शरीर चार हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। इन चारों जड़ आवरणों को पार करो,. . . . शेप प्रवचन पढने के लिए👉 यहाँ दवाएँ।
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नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
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S209 (ख) || ईश्वर-भक्ति और गुरु- भक्ति कैसे करना चाहिए? || How is true devotion done?
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
8/29/2018
Rating: 5
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