महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 497
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस
प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी)
प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 497 के बारे में। इसमें बताया गया है कि
क्या पैसा मन की शांति ला सकता है? क्या ज्यादा जरूरी है पैसा या शांति? किसका त्याग करने से मनुष्य का मन शांत हो जाता है? मानव मन को कौन शांति देता है? इस प्रवचन को पढ़ने के पहले गुरु महाराज जी का दर्शन करें--
| महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 497 |
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क्या पैसा मन की शांति ला सकता है?
प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप निम्नलिखित बातों को पायेंगे-- 1. शहंशाह कैसे बनते हैं? 2. बाहरी सत्संग और अंतरि सत्संग क्या है? 3. परम मोक्ष या निर्वाण क्या है? 4. राजनीति कैसा होना चाहिए? 5. क्या बहुत धन से शांति मिलती है? 6. शांति कैसे मिलती है? 7. जीवन्मुक्ति कब प्राप्त होता है? 8. कबीर साहब ईश्वर भक्ति करने क्यों कहते हैं? 9. गुरु लोगों से क्या मिलता है? 10. प्रत्येक मनुष्य को क्या करना चाहिए? इत्यादि बातें। आइये उपरोक्त बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन का पाठ करें--
S497 दु:ख और अशांति का कारण है हमारी ईच्छाएं
| महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर 497 |
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बन्दों गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो !
सन्त कबीर साहब ने कहा है- "चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह । जाको कछु न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।"
जब इच्छा को निवृत्ति हो जाती है, तब चिन्ता चली जाती है और मन बे-परवाह हो जाता है, निडर हो जाता है। उस निडर मन को भी जो काबू कर लेता है, वही हो जाता है राजाओं का राजा।।
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शांति संदेश कभर |
जो इच्छा वाला होता है- यह चाहिये, वह चाहिये, वह आराम से नहीं रहता है। जो इच्छाओं को त्याग देता है, उसको कोई डर नहीं रहता है। यह कैसे होगा ? यह होता है बाहर के सत्संग और अन्दर के सत्संग द्वारा । ईश्वर-सम्बन्धी कथा बाहर का सत्संग है। ईश्वर में मिलने का जो यत्न है, उस यत्न को पाकर जो कोशिश करता है, वह मन को भी जीत लेता है, मन-मंडल को पार कर लेता है। यह है अन्दर का सत्संग। इन दोनों तरह के सत्संगों से कभी-न-कभी उस गति को पाता है, जिसके बाद कोई गति नहीं है। वही है परम मोक्ष या निर्वाण ।
अध्यात्म-हीन राजनीति पवित्र दशा में नहीं रहेगी और जिस राजनीति में कुछ भक्ति और आध्यात्मिकता की नीति होगी, वह राजनीति पवित्र रहेगी और बहुत दिनों तक रहेगी।
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विदेशी धरती पर भारतीय संत |
हमारे देश के अध्यात्म-ज्ञान को विदेश में प्रचार करने के लिये दो तो प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं, एक स्वामी विवेकानन्द, दूसरे स्वामी रामतीर्थ। स्वामी रामतीर्थ कुछ दिन गृहस्थाश्रम में भी रहे। फिर उनको ऐसे गुरु मिल गये, जिन्होंने उनसे कहा कि - विद्या तो आपको बड़ी है, इसमें आध्यात्मिकता मिला दीजिये तो सब कुछ मिल जायगा। स्वामी रामतीर्थ पहले गये जापान, फिर गये अमेरिका युनाइटेड स्टेट्स में। वहाँ विद्या भी बहुत है और धन भी बहुत है। उत्तरी अमेरिका-सबसे उत्तरी भाग को कनाडा कहते हैं। वहाँ मित्र राज्य होगा। इसीलिये उसको युनाइटेड स्टेट्स कहते हैं। वहाँ धन बहुत है, लेकिन शान्ति नहीं है।
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भारत और अध्यात्मिक विद्या के प्रेरक संत |
भारत कहता है, मन को काबू करो, शान्ति आयगी। जाग्रत् में मन काबू में नहीं है, स्वप्न में मन काबू में नहीं है। गहरी नींद में केवल श्वास चलता है और कुछ मालूम नहीं होता। इसमें कुछ शान्ति में तो सोते हैं, लेकिन यह गहरी नींद सदा रहती नहीं। फिर सुपुप्ति से जाग्रत् की अवस्था में आते हैं और शान्ति नहीं पाते हैं। जिनलोगों ने साधन किया है, वे लोग कहते हैं कि तुरीयावस्था में चलो । फिर तुरीयातीतावस्था में चलो। यह काम रेलगाड़ी और हवाई जहाज पर चलने से नहीं होगा। अन्दर-अन्दर चलने से होगा। इसका यत्न गुरु बतायेंगे। गुरु के प्रति श्रद्धा हमारे देश में बहुत है। गुरु में, सच्छास्त्र में विश्वास श्रद्धा है। गुरु के वचन में, माता-पिता के वचन में श्रद्धा होनी चाहिये। इसीलिये कहा- "प्रथम गुरु है माता पिता....।"
जो दोनों तरहों से सत्संग करते हैं, उनकी मन पर कभी-न-कभी विजय अवश्य होती है। इस दुनिया से निकल जाने के वास्ते, परलोक से भी निकल जाने के वास्ते तुरीयावस्था में चलना होता है। इसके भी परे तुरीयातीतावस्था में चलना होता है। तभी जीवन्मुक्ति की दशा होती है। जिनको जीवन्मुक्ति की दशा होती है, वे अपने से अपने को जानते हैं, ईश्वर को भी जान लेते हैं; उनको कुछ जानने को वाकी नहीं रह जाता है। इसीलिये साधन करना चाहिये; भक्ति करनी चाहिये। भक्ति के बीज का नाश नहीं होता है। संत कवीर साहब ने कहा है--
"भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को सन्त ॥
भक्ति वीज पलटै नहीं, आय पड़े जो चोल ।
कंचन जी विष्ठा पड़े, घटै न ताको मोल ।।"
यही जानकर साधन-भजन सीखना चाहिये । माता- पिता का आदर करना चाहिये। सिखलानेवाले गुरुओं का भी आदर करना चाहिये। क्या मिलता है ? इनके संग में
"मति कीरति गति भूति भलाई ।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानव सत्संग प्रभाऊ ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ ॥"
इस तरह वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं-
"जीवनमुक्त सो मुक्ता हो ।
जब लगि जोवन मुक्ता नाहीं, तब लगि दुख सुख भुक्ता हो।"
जो जीवन्मुक्त हो जाते हैं, उनका फिर संसार में आने-जाने का काम बन्द हो जाता है। यही हम लोगों को करना चाहिये ।•
( प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री विभूषित परम पूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का यह प्रवचन दिनांक १९ अक्टूबर १९८१ ई० को बिहार राज्यान्तर्गत कटिहार जिले के मिर्जापुर ग्राम में हुआ था। सत्संग का आयोजन मनिहारी क्षेत्र के विधायक श्री रामसिपाही सिंह जी यादव ने अपने निवास स्थान पर किया था। सत्संग में हजारों सत्संग-प्रमियों की भीड़ थी। - प्रेषक )
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
शांति संदेश में प्रकाशित प्रवचन नंबर 497
| महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 497क |
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| महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 497ख |
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| शांति संदेश सूक्तिकण |
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