महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 06
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर S01, के बारे में । इसमें ईश्वर से संबंधित हर तरह की जानकारी भरपूर मात्रा में है।
इस प्रवचन, उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष में आप पायेंगे कि- भक्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण बातें कौन सी है? ईश्वर और संत में क्या अंतर है? ईश्वर, संत और गुरु की स्तुति क्यों करते हैं? ईश्वर को इंद्रियां क्यों नहीं प्राप्त कर सकती हैं? इंद्रियां कौन-कौन सी है? हमारी इंद्रियां कैसे काम करती है?हम अपने को शरीर-इंद्रियों से कैसे अलग कर सकते हैं? भगवान राम का स्वरूप कैसा है? लोग अपनी भावना के अनुसार भगवान को किस तरह देखते हैं? योगियों की दृष्टि में ईश्वर कैसा है? गीता में भगवान अपने को कैसा बताए हैं? ईश्वर को प्राप्त करने के लिए शुद्ध कैसे बन सकते हैं? सफल ध्यानाभासी कौन है? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- परमात्मा की प्राप्ति के उपाय, ईश्वर प्राप्ति, ईश्वर प्राप्ति के मार्ग, ईश्वर प्राप्ति का सरल उपाय, ईश्वर प्राप्ति कैसे हो, परमात्मा प्राप्ति मंत्र, ईश्वर स्वरूप, ईश्वर प्राणी धान, गीता में ईश्वर का स्वरूप, ईश्वर का स्वरूप को समझाइए, ईश्वर की महिमा, ईश्वर की सत्ता, ईश्वर एक है, ईश्वर शक्ति, ईश्वर तत्व क्या है, ईश्वर की परिभाषा, ईश्वर दर्शन के लिए, ईश्वर का स्वरूप कैसा है इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नं.S05, को पढ़ने के लिए यहां दबाएं ।
ईश्वर प्राप्ति के सरल मार्ग पर प्रवचन करते गुरुदेव |
Simple Approaches to Praise and Attainment God
सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- What are the three important things for devotion? What is the difference between a God and a Saint? Why do God praise saints and gurus? Why can't God get the senses? What are the senses? How do our senses work? How can we separate ourselves from body senses? How is the appearance of Lord Rama? How do people view God according to their feeling? How is God in the eyes of yogis? How does God tell himself in the Gita? How to become pure to attain God? Who is a successful focus?, आदि बातें इस प्रवचन में बतााएं हैं । पूरी जानकारी के लिए इस प्रवचन को पूरा पढें-
६. ईश्वर इन्द्रिय ज्ञान से परे
प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो !
प्रभु की प्राप्ति के लिए उनकी भक्ति करनी आवश्यक है । भक्ति - मार्ग में तीन बातों का होना आवश्यक है- स्तुति , प्रार्थना और उपासना । स्तुति से परमात्मा की प्रभुता जानने में आती है । राम कृपा बिनु सुनु खगराई । जानि न जाइ राम प्रभुताई । जाने बिनु न होइ परतीती । बिनुपरतीति होइ नहिं प्रीति ।। प्रीति बिनानहिं भगति दृढ़ाई । जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।
ईश्वर - स्तुति के पद्यों में परमेश्वर की जो स्तुति की जाती है , उससे उसकी महानता जानने में आती है । इससे उसमें श्रद्धा तथा प्रेम उत्पन्न होता है । वह परमात्मा अव्यक्त है , इन्द्रियों के ज्ञान से परे है । अव्यक्त परमात्मा की तुलना में व्यक्त संत होते हैं । वे इन्द्रियों से जाननेयोग्य होते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है सन्त भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं , किमपि मति विमल कह दास तुलसी ।।
इसलिए ईश - स्तुति के बाद सन्त - स्तुति करते हैं । इसके बिना अध्यात्म - पथ कुछ भी जानने में नहीं आता । फिर प्रार्थना करते हैं अर्थात् परमात्मा से कुछ माँगते हैं क्या माँगते हैं ? मोक्ष । भिन्न - भिन्न देवता और सब वरदान दे सकते हैं ; किन्तु यह वरदान ( मोक्ष ) नहीं दे सकते । मोक्ष देना अथवा परमात्मा की प्राप्ति करा देना सिवाय परमात्मा के और कोई नहीं कर सकते, अगर दें तो सन्त ही दे सकते हैं ।
ओ३म् संयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथाक्रीडन्तंमिमितेनगावः । परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिददृशे नक्तमृजः ।।
सारांश - ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हाथ , पैर , गुदा , लिंग , रसना , कान , त्वचा , आँखें , जिह्वा , नाक और मन - बुद्धि आदि इन्द्रियाँ असमर्थ हैं ; क्योंकि ईश्वर इन्द्रिय - ज्ञान से परे हैं । मैं इस शरीर में रहकर भी इन्द्रियों से भिन्न हूँ , अगर यह बात कोई नहीं जानता है तो उसे यह जानना चाहिए कि इन्द्रियों में चेतन - धार है । क्योंकि जाग्रत् अवस्था में चेतन - धार इन्द्रियों में रहती है , तभी इन्द्रियाँ काम करती हैं । जब स्वप्नावस्था में चेतन धार सिमट जाती है , तो इन्द्रियाँ कुछ नहीं कर पाती , निश्चेष्ट हो जाती हैं । इन्द्रियाँ तो यन्त्र हैं । प्रत्येक इन्द्रिय का अपना - अपना काम है , उसी प्रकार सब इन्द्रियों को छोड़कर निज , अपना काम क्या है ? सब इन्द्रियों को छोड़ने पर अपना निज काम परमात्मा की प्रत्यक्षता है । इसलिए अपने को शरीर और इन्द्रियों से छुड़ाओ । जिस कर्म के द्वारा शरीर और इन्द्रियों से छूटकर रहोगे , वह साधन करो । जबतक यह ज्ञान नहीं होता , तबतक लोग भूले रहते हैं , परमात्मा की प्रत्यक्षता नहीं होती । दोभुजी , चौभुजी , अष्टभुजी आदि का दर्शन करना , परमात्मा का दर्शन नहीं है । जिसने उस रूप को धारण किया है , उसको पहचानो । श्रीकृष्ण को उसके समकालीन बहुत - से लोगों ने देखा था ; किन्तु उनके स्वरूप को अधिकारी जन ही देखते थे । राजा जनकजी की सभा में राम को सब लोगों ने अपनी - अपनी भावना के अनुरूप देखा था ; किन्तु योगी लोग उनके निज स्वरूप को देखते थे । जिन्ह कै रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।। देखहिं भूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रस धेरेउ सरीरा ।। डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ।। रहे असुरछल छोनिप वेषा । तिन्ह प्रभुप्रगट काल सम देखा ।। पुरवासिन्ह देखे दोउ भाई । नर भूषन लोचन सुखदाई ।। नारिबिलोकहिं हरषि हिय , निज निज रुचि अनुरुप । जनु सोहत श्रृंगार धरि , मूरति परम अनूप ।। विदुषन्ह प्रभुबिराट मय दीसा । बहुमुखकर पगलोचनसीसा ।। जनकजाति अवलोकहिं कैसे। सजन सगे प्रिय लागहि जैसे ।। सहित विदेह बिलोकहि रानी । सिसुसमप्रीति न जाति बखानी ।। जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहजप्रकासा ।। हरि भगतन देखे दोउ भ्राता। इष्ट देव इव सबसुख दाता ।।
अर्थात् केवल संत - योगी के अतिरिक्त उनके यथार्थ रूप को और कोई नहीं देख सका । भगवान् श्रीकृष्ण के संग - संग अर्जुन रहते थे । किन्तु भगवान् ने यह नहीं कहा कि तुमने मेरे रूप को देख लिया , अब काम समाप्त हो गया ; बल्कि यह कहा अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ -गीता ७-२४
अर्थात् यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ , तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त अर्थात् देहधारी मानते हैं ; परन्तु यह बात सच नहीं है ; मेरा अव्यक्त रूप ही सत्य है । फिर जब अपना विराट रूप नारद को दिखलाते हैं , तो कहते - ' तू मेरे जिस रूप को देख रहा है , यह सत्य नहीं है , यह माया है । मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इससे भी आगे तुझे जाना चाहिए । ' -महाभारत , शान्तिपर्व ३३ ९ -४४
अगर अर्जुन का काम समाप्त हो गया होता , तो फिर गीता - जैसे सुन्दर सदुपदेश देकर ' यह करो ' कहकर कर्म करने के लिए भगवान क्यों प्रेरित करते ! अतः किसी के रूप को देखकर उसके स्वरूप को नहीं जाना जा सकता । गोगोचर जहँ लगिमन जाई। सो सब माया जानहु भाई ।। इसलिए यह बात अवश्य जाननी चाहिए कि उसको अपने से कैसे जानेंगे । जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है , जिसकी इन्द्रियाँ अशान्त हैं , वह इसे आत्म - ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता । अर्थात् पाप - कर्मों से नहीं बचनेवाले का मन चंचल रहता है , इन्द्रियों में बँधा हुआ रहता है , विषयों में आसक्त रहता है , इस कारण वह असमर्थ है ; क्योंकि चंचलता के कारण अपने को समेट नहीं सकता , नहीं समेटने से ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती , ऊर्ध्वगति नहीं होने के कारण परदों ( आवरणों ) का छेदन नहीं हो सकता और न कैवल्य प्राप्त हो सकता है । कैवल्य प्राप्त किये बिना कोई परमात्म - स्वरूप को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता । इसलिए मनुष्यों को पापों से अलग रहना चाहिए । पापों से अलग रहनेवाले का हृदय शुद्ध होता है । तब- सूचै भाडै साचु समावै, बिरले सूचाचारी । तंतैकउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
बाबा नानक का यह वचन पूर्णरूपेण लागू हो जायगा । मृतक का शरीर और इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहती हैं , उसी प्रकार जो अपने शरीर और इन्द्रियों को साधन - द्वारा साधकर रहता है , वही मृतक है । मृतक शरीर में नाड़ी नहीं रहती , नाड़ी बन्द हो जाती है और मर जाता है अर्थात् शरीर के त्याग को मृतक कहते हैं । इस प्रकार ध्यानाभ्यास में जिसकी नाड़ी बन्द हो जाती है , वह अन्तर ही - अन्तर प्रवेश करता है तथा जैसे - जैसे वह अपने शरीर में डूबता है , वैसे - वैसे उसकी इन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जाती हैं । आत्मबल प्राप्त होता जाता है और इन्द्रियाँ सधती जाती हैं । धीरे - धीरे उसकी इन्द्रियाँ बिल्कुल सध जाती हैं । शरीर से छूटना मरना है । जो स्थूल शरीर से सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म से कारण में एवं प्रकार से साधना द्वारा सब शरीरों को छोड़ देता है , वह पूरा मरा हुआ है । जो इन्द्रियों के वेगों का दमन कर सकता है , वह शरीर में है । वही परमात्मा को प्राप्त कर सकेगा । ०
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नं.S07, को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि bhakti ke lie teen mahatvapoorn baaten kaun see hai? eeshvar aur sant mein kya antar hai? eeshvar, sant aur guru kee stuti kyon karate hain? eeshvar ko indriyaan kyon nahin praapt kar sakatee hain? indriyaan kaun-kaun see hai? hamaaree indriyaan kaise kaam karatee hai?ham apane ko shareer-indriyon se kaise alag kar sakate hain? bhagavaan raam ka svaroop kaisa hai? log apanee bhaavana ke anusaar bhagavaan ko kis tarah dekhate hain? yogiyon kee drshti mein eeshvar kaisa hai? geeta mein bhagavaan apane ko kaisa batae hain? eeshvar ko praapt karane ke lie shuddh kaise ban sakate hain? saphal dhyaanaabhaasee kaun hai? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S06, Simple Approaches to Praise and Attainment God. महर्षि मेंहीं प्रवचन 18-01-1951 ई.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
8/26/2019
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