S08, Meditation with turtle sight containing knowledge yoga. महर्षि मेंहीं वचनामृत 20-01-1951ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" /08

प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 08 वें, में  चिता में जलने से पहले मोक्ष प्राप्त करने के लिए कहा गया है।

इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संत वचन, प्रवचन पीयूष )  में बताया गया है कि-ज्ञान योग के महत्व, ज्ञान योग का जीवन पर क्या प्रभाव है, ज्ञान योग की व्याख्या, ज्ञान योग के प्रकार, ज्ञान, ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? ज्ञान की परिभाषा, ज्ञान कैसे बढ़ता है, ज्ञान का अर्थ, आत्मा का ज्ञान, योग, योग के उद्देश्य, योग के अंग, योग शिक्षा का उद्देश्य, योग का इतिहास, योग क्या है? योग की परिभाषा, योग का महत्व, मोक्ष के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक, ध्यानाभ्यास के समय, कछुआ दृष्टि, स्थलीय कछुआ, मोक्ष, मोक्ष प्राप्ति के साधन, मोक्ष की आवश्यकता, आदि के बारे। इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज का दर्शन करें-

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंS07, को पढ़ने के लिए     यहां दबाएं ।


S08, Meditation with turtle sight containing knowledge yoga. चिता में जलने से पहले मोक्ष -मेंहीं। ज्ञान योग से मोक्ष प्राप्ति पर प्रवचन करते गुरुदेव
ज्ञान योग से मोक्ष प्राप्ति पर प्रवचन करते गुरुदेव

Meditation with turtle sight containing knowledge yoga

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान और योग दोनों की आवश्यकता है। ध्यान में मन लगे या ना लगे अभ्यास के समय ध्यानाभ्यास अवश्य करना चाहिए। मरने के समय जैसी भावना होती है, वैसा ही शरीर हो जाता है। इसलिए सावधान होकर कछुए की तरह दृष्टि बनाकर हमेशा भजन करना चाहिए। चिता में जलने और कब्र में दाखिल होने के पहले मोक्ष प्राप्त करो। ध्यान में थोरी तरक्की भी  अति कल्याणकारी है। बिंदु और नाद ध्यान साधना से ही मोक्ष प्राप्ति होगी। पूरी जानकारी के लिए इस प्रवचन को पूरा पढें-

८. स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश का द्वार

स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश का द्वार पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

प्यारे लोगो !

    परमात्मा की प्राप्ति के लिए ज्ञान तथा योग ; दोनों आवश्यक हैं । आज मैं योगशिखोपनिषद् के आधार पर दोनों की विवेचना करना चाहता हूँ । इस उपनिषद् में शिवजी वक्ता हैं और ब्रह्माजी श्रोता हैं- योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः । योगोऽपि ज्ञानहीनस्तुन क्षमोमोक्षकर्मणि ।। तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।। '

     'योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है ? उसी तरह ज्ञानरहित योग भी मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता है । इसलिए ज्ञान और योग दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास मुमुक्षु को करन चाहिए ।' पहले कुछ जानना होगा । उस जानकारी से निर्णय होगा कि योग करना चाहिए, जोड़न चाहिए । क्या जोड़ना चाहिए ? फैली हुई वृत्ति को समेटकर जोड़ना चाहिए । इस काम का निर्णय विचार से होता है । इसलिए योग तथा ज्ञान , दोनों का अभ्यास करे , तो सिद्धि - प्राप्ति होती है । केवल योग करे और प्राप्तव्य वस्तु को न जाने , तो भटक जाएगा । इसलिए ज्ञानविहीन योग फलप्रद नहीं होता। योग परमात्मा तक पहुँचाता है तथा पहले ही ज्ञान में निर्णय होता है कि परमात्मा तक पहुँचना है । केवल वाक्य विनोद से काम नहीं चलेगा । योग से सिमटाव होता है , सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है । ऊर्ध्वगति में आवरण छेदन होता है तथा सब आवरणों को पार कर कैवल्य दशा प्राप्त होती है , तब परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है । हमलोगों को गुरु महाराज का उपदेश है , ' ध्यान करो तथा सत्संग करो ' अर्थात् योग एवं ज्ञान दोनों करो । मेरे पास गुरु महाराज की बहुत - सी चिट्ठियाँ हैं । एक चिट्ठी में लिखते हैं - ' रोजाना अभ्यास करो , चाहे कुछ देखो या न देखो । ' अभ्यास के समय देखते जाओ , चाहे कुछ दृश्य देखने में आवे या नहीं । बाबा साहब कहते थे - ' जिस प्रकार लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के तेज में रखो तो पिघलते - पिघलते लाह गिर जाएगी और केवल लकड़ी रह जाएगी , उसी तरह ध्यानाभ्यास से सब आवरण उतर जाएँगे और तुम अकेले रह जाओगे ' यह गुरु महाराज की आज्ञा है । इसका पालन हमलोगों को करना चाहिए । उनकी यह हिदायत थी ; योग और ज्ञान , दोनों करो । देहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत् । तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम् ।।

    देह त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है , वही - वही वह होता है , यही जन्म का कारण है।

    जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं , वही भावना अंत में याद आवे , यह संभव है । जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी-कभी किया , वह अंत समय याद आवे , संभव नहीं । इसलिए नित्य भजन करें । सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए , दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा ।

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव । भुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् । -गीता ८ / ११

     अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है । यह शरीर चला जाएगा , कुछ संग जाने को नहीं है । माल मुलुक को कौन चलावे , संगनजात शरीर । करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर ।

   इसलिए हमलोग भजन - अभ्यास अधिक करें केवल जानें अथवा पढ़ें , किंतु ध्यान नहीं करें, तो उसको लाभ नहीं होता । वैसे ही जैसे धनधन कहत धनी जो होते , निर्धन रहत न कोय। केवल धन - धन के कहने से कोई धनी नहीं होता । काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए । कमठ दृष्टि जो लावई , सो ध्यानी परमान ॥ सो ध्यानी परमान , सुरत से अण्डा सेवै । आप रहे जल माहिं , सूखे में अण्डा देवै ॥ जस पनिहारी कलस भरे , मारग में आवै । कर छोड़े मुख वचन , चित्त कलसा में लावै ॥ फणि मणि धरै उतार , आपु चरने को जावै । वह गाफिल ना परै , सुरति मणि माहिं रहावै ॥ पलटू कारज सब करे , सुरति रहै अलगान । कमठ दृष्टि जो लावई , सोध्यानी परमान ॥ -पलटू साह भगवान

    श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है - ' युद्ध भी करो तथा ध्यान में करो । ' काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे , ऐसी कोशिश करनी चाहिए । जो दोनों तरह से भजन करते हैं , उनका मन विशेष बिखरता नहीं । इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े । इससे जो नहीं डरते , वह नहीं कर सकते । ' डर करनी डर परम गुरु , डर पारस डर सार । डरत रहे सो ऊबरे , गाफिल खावै मार ॥ '

 ' पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिन्तु मन्यते । देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा । अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते । '

    अर्थ - मरने पर जो मुक्ति होती है , वह मुक्ति नहीं है ; मुक्ति वह है , जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है , जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है । इसी तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता , तब मुक्ति होती है । जीवन - काल में जिसने मुक्ति प्राप्त कर ली है , उसे मरने पर भी मुक्ति प्राप्त होगी । जीवन काल में मुक्ति प्राप्त नहीं हो तो मरने पर मुक्ति प्राप्त हो , यह संभव नहीं । संतों ने इसका अपनी वाणी में इस भाँति वर्णन किया है लहहिं चारि फल अछत तनु , साधु समाज प्रयाग । -गोस्वामी तुलसीदासजी

जीवन मुक्त सो मुक्ता हो । जब लगजीवनमुक्ता नाही , तब लग दुख सुख भुगता हो । -संत कबीर साहब

जीवत छूटै देह गुण , जीवत मुक्ता होइ । जीवत काटै कर्म सब , मुक्ति कहावै सोई ॥ जीवत जगपति कौं मिले , जीवत आतम राम । जीवत दरसन देखिये , दादू मन विसराम ॥ जीवत मेलाना भया , जीवत परस न होइ । जीवत जगपति ना मिले , दादू बूड़े सोइ ॥ मूआँ पीछे मुकति बतावै , मूआँ पीछै मेला । मूआ पीछै अमर अभै पद , दादू भूले गहिला ॥ -दादूदयाल

    चिता में जलने - कब्र में दाखिल होने के पहले मोक्ष प्राप्त करो । -बाबा देवी साहब।

    बाबा साहब ने इस उपदेश को विज्ञापन में छपवाकर बँटवाया था । सब संतलोग मजबूती के साथ कहते हैं - ' जीवनकाल में जो प्राप्त होगा मरने पर भी वही प्राप्त होगा । ' विन्दुनाद महालिंग शिवशक्ति निकेतनम् । देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।

    विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है । इस देह को शिवालय कहते हैं । सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है । विन्दु जलढरी है और नाद शिवलिंग है । शिवालय में देखते हैं - जलढरी पर शिवलिंग स्थापित है । उसी तरह यह शरीर शिवालय है । शरीर को पवित्र बनाकर मंदिर बना लें अथवा अपवित्र कर पैखाने का घर बना लें । पवित्र होने में पापों की ओर झुकते रहें , तो पवित्र कैसे होंगे ? हमलोग अपने इन्द्रियों को विषयों की ओर न ले जायँ , तब पाप नहीं होगा तथा तभी यह शिवालय होगा और तभी पवित्र दशा में इस शरीर में शिव अर्थात् कल्याण प्राप्त होगा ।

    मंदिर को लोग साफ करते हैं , उसी प्रकार शौच के द्वारा शरीर को पवित्र रखना चाहिा तथा झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार ; इन पाँचों पापों से बचना चाहिए । अगर कभी गलती से करो तो बहुत पश्चात्ताप करो तथा ईश्वर से प्रार्थना करो कि हे ईश्वर ! मुझमें शक्ति दो , जिससे मैं इससे बच सकूँ तथा स्वयं खूब मुस्तैद रहो । ध्यान के समय अगर कुछ चिह्न मालूम होता है तो कैसा कल्याण जान पड़ता है । संतों के वाणी में केवल बात ही नहीं है । भजन करो ते अवश्य चैन - कल्याण मालूम होगा । भजन में होत आनंद आनंद । बरसत विशद अमी के बादर , भीजत हैं कोई संत ।। -कबीर साहब

   अपने को इन्द्रियों के घाटों से छुड़ाते हुए उस ओर चलो , जहाँ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकोगे । जिस तरह से हो सके , अपने को इन्द्रिय- धारों से कुछ भी आगे सरकाओ । जाग्रत और स्वप्न के बीच एक अवस्था होती है , जिसे तन्द्रा कहते हैं । उसमें ज्ञात होता है कि हम बाहर की बातों को भूलते जाते हैं । हाथ , पैर , गला ; सब कमजोर होते जा रहे हैं , शक्ति भीतर की ओर खिंची जा रही है । इस समय बड़ा चैन मालूम होतां है । यह परमात्मा का दिया हुआ नमूना है । इस ( तन्द्रा ) अवस्था में कुछ गड़बड़ होने से बहुत दुःख होता है । भजन करो , भजन बनने लगेगा और चैन होता जाएगा । इसलिए यह शरीर शिवशक्ति का घर है । शरीर में चेतन - धारा को समेटकर विन्दु प्राप्त करना शक्ति को प्राप्त करना है तथा विन्दु - भेदन करके नाद को ग्रहण करना शिव को प्राप्त करना है । इस प्रकार विन्दु तथा नाद दोनों को ग्रहण करने से शक्ति और शिव , दोनों प्राप्त हो जाते हैं । इसलिए अपने शरीर को विषयों में फंसाकर नरक मत बनाओ । इसे विषयों से हटाकर शिवालय बनाओ । नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः

    नादरूप मन का मण्डल भौओं के बीच में है , यह ज्ञानियों ने कहा है । पहला स्थान आज्ञाचक्र संबंधी बातों का संकेत किया है , ' भ्रुवोर्मध्ये ' । इसी को तीसरा तिल कहकर भी जनाया गया है । इसको ऊपर - नीचे , मध्य का स्थान भी कहते हैं । स्थूल से सूक्ष्म में  प्रवेश करने का यह द्वार है । इसी द्वार होकर सूक्ष में प्रवेश करने से ऊर्ध्वगति होती है । इसलिए भ्रुवोर्मध्ये की बड़ी महिमा है । संतों की वाणियों में भी इसका विस्तृत वर्णन है । बाँका परदा खोलि के , सन्मुख ले दीदार । बाल सनेही साइयाँ , आदि अंत का यार ।।

    बाँका परदा खोलकर सम्मुख ही दर्शन करो। बाँका परदा - अंधकार का परदा कठिन है । इसके खोलने का भेद जानो । दृष्टियोग के द्वारा यह कठिन परदा खोला जाता है । इसके लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । शांभवी मुद्रा के अभ्यास तीन तरह से करते हैं अमादृष्टि , प्रतिपद दृष्टि तथा पूर्णिमा दृष्टि । आँख बंदकर देखना अमादृष्टि से , आधी आँख खुली तथा आधी आँख बंदकर देखना प्रतिपदा दृष्टि से और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि से अभ्यास करना है । आधी आँख खोलकर यानी प्रतिपदा दृष्टि से तथा पूरै आँख खोलकर यानी पूर्णिमा दृष्टि से अभ्यास करना कष्टसाध्य है । किंतु आँख बंदकर अर्थात अमादृष्टि से अभ्यास करना कष्टसाध्य नहीं , सुगम यथा सरल साधन है । अन्तरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करमा ।

   बाबा नानक ऐसा नहीं कहते कि फलाने किताब में अथवा फलाने ग्रंथ में ऐसा है । वे कहते हैं , अंतर में ज्योति जग गई , यही गुरु की साक्षी है । तब राम की ओर से जो बख्शीश - दयादान होता है ; पहचान में आता है । ०


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नं.S09, को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।


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S08, Meditation with turtle sight containing knowledge yoga. महर्षि मेंहीं वचनामृत 20-01-1951ई. S08, Meditation with turtle sight containing knowledge yoga. महर्षि मेंहीं वचनामृत 20-01-1951ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 8/28/2019 Rating: 5

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