महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 40
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 40वां, को । इसमें संतमतानुसार जीवात्मा और परमात्मा का मिलन कैसे होता है? इस संबंध में बताया गया है।
इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- गुरु और शिष्य का संबंध, संतमत की परिभाषा, संतो के विचार, घट रामायण के पद, ईश्वर भक्ति का पूर्ण ज्ञान, श्रवण और मनन ज्ञान, इंद्रियों का ज्ञान, चेतन आत्मा, तुरिया अवस्था, असली भक्ति का नमूना, साधन कैसे करना है, इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- जीव कहां से आया, जीव कहानी, जीव कहां रहता है, जीव कहां जाता है, जीव कहाँ से आता है, जीव कहां से आया है, जीव कहां है,आत्मा शरीर में कहाँ रहती है?शरीर में आत्मा कैसे प्रवेश करती है?आत्मा शरीर से कब निकलती है?जीव और आत्मा में क्या अंतर है?आत्मा कितने प्रकार की होती है, सोने के बाद हमारी आत्मा कहां जाती है, आत्मा शरीर में कैसे प्रवेश करती है, शरीर में आत्मा का स्थान,संतमतानुसार जीवात्मा और परमात्मा, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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Santamat anusaar jeevaatma aur paramaatma
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! आपलोगों में से बहुतों को यह मालूम है कि मैं किस कारण से यहाँ आया करता हूँ । इसपर कुछ कहना व्यर्थ ही समय बिताना है । मेरे गुरु महाराज बाबा देवी साहब थे । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--Jeev kahaan se aaya, jeev kahaanee, jeev kahaan rahata hai, jeev kahaan jaata hai, jeev kahaan se aata hai, jeev kahaan se aaya hai, jeev kahaan hai,aatma shareer mein kahaan rahatee hai?shareer mein aatma kaise pravesh karatee hai?aatma shareer se kab nikalatee hai?jeev aur aatma mein kya antar hai?aatma kitane prakaar kee hotee hai, sone ke baad hamaaree aatma kahaan jaatee hai, aatma shareer mein kaise pravesh karatee hai, shareer mein aatma ka sthaan,santamataanusaar jeevaatma aur paramaatma,....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
४०. संतमत का उपदेश
प्यारे लोगो !
आपलोगों में से बहुतों को यह मालूम है कि मैं किस कारण से यहाँ आया करता हूँ । इसपर कुछ कहना व्यर्थ ही समय बिताना है । मेरे गुरु महाराज बाबा देवी साहब थे । एक बार उन्होंने मुझसे यहाँ ( मुरादाबाद मुहल्ला अताई में ) ही कहा था कि तुम कहाँ रहते हो और मैं कहाँ रहता हूँ ? तुम बिहार के पुरैनियाँ जिले में और मैं यहाँ । तुम कहाँ और मैं कहाँ ? दोनों में कैसे सरोकार हो गया ? पहले जन्म में भी तुमको मुझसे संतमत के द्वारा संबंध था ।
बाबा साहब का प्रचार संतमत का उपदेश है । संतमत का मतलब कोई अपना - निज मतलब का मत निकालना और उसका नाम संतमत रखना नहीं । बल्कि सब संतों के मत को गुरु महाराज मानते थे और कहते थे कि सब संतों की बाणियों को मानो । बाबा साहब के पितामह तथा पिता आदि के गुरु हाथरस निवासी तुलसी साहब थे , जिनको लोग ' घटरामायण ' ( घटरामायण बाबा देवी साहब ने छपवायी है , जिसे सत्संग में पढ़ने का आदेश वे दे गए हैं । ) के कर्ता मानते हैं । उन्होंने भी यही कहा कि मेरा कोई खास मत नहीं है । सब संतों ने जो कहा , वही मत मेरा है । तुलसी संत भेद विधिगाई । संत भेदतब अगम लखाई ।। -घटरामायण , पृष्ठ १९४
संतगुरु और पंथ न जाना । ये ही संतपंथ हित माना । -घटरामायण , पृष्ठ १९८
तुलसी गति गाई , शब्द सुनाई । पंथअगम सुर्त सार भई । नानक और दादू , दरिया साधू । मीरा सूर कबीर कही ।। नाभानभ जानी , भाखीबखानी । सुरति समानी पार गई ।। सबकी विधिन्यारी , एक विचारी । सबसंतन एकराह लई ।। सवचएकधारा , पहुँचे पारा । लपीगगन गति गवन गई । कोईकरिहशंका , महापतिरंका । तुलसी डंकादीन कही । -घटरामायण , पृष्ठ २३६
तुलसी अतिनीवनिकामा । में गुरुबिनकछुनाहिबखाना ।। मैं किंकरसंतन करदासा । सतसंगति में सुनौ विलासा ।। असअससंतसबन मिलिगाई । दासबनैजिनजिन कछुपाइ ।। तुलसी तासे पंथन कीना । भेष जगत भया पंथ अधीना ।। तुलसी में कछु जानौ नाई । पलक राम तुमरी सरनाई ।। मैं हूँ संत चरन की लारा । बन्दों चरणन बारम्बारा ।। संत बिना कोउ देख न आना । सतसतसुरतसंत कोमाना ।। -घटरामायण , पृष्ठ ३७४
संतनगति गाई , अगम सुनाइ । जिन जिन पाई पार भई ।। सबसबमिलिगावा , मैहूँसुनावा । अगमअथाहाआदिकही ।। देखौ निजबानी , संतबखानी । जिन जिनजानी , जानिलई ।। -घटरामायण , पृष्ठ ३७५ हमसंतनमतअगमबखाना । हमतोइष्ट संत कोजाना ।। -घटरामायण , पृष्ठ ४३४
देखौंसब संतन की साखी । बूझिज्ञान जब खुलिहै आँखी ।। -घटरामायण , पृष्ठ ४३५
सब संतों की वाणियों से यही जाना कि - ईश्वर की भक्ति करो । सब संतों की वाणियों को पढ़ा जाय तो यही जानने में आएगा कि सब संत ईश्वर की भक्ति करने के लिए कहते हैं । सब मनुष्य दुःखी । कोई धनी , गरीब , विद्वान , अविद्वान कुछ भी हों ; सब - के - सब दुःखी रहते हैं । दैहिक विकार के साथ - साथ मन के विकार सताते रहते हैं । इनसे छूटना मनुष्य का काम है । दुःख से बिल्कुल छुट्टी मिल जाय , इसीलिए संत कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति करो । यहाँ तुलसीकृत रामायण की यह बात याद आती है- राकापति षोडस उअहिं , तारागण समुदाय । सकल गिरिन्ह दव लाइय , विनु रवि राति नजाय ।। ऐसेहि बिनुहरि भजनखगेशा । मिटहिन जीवन केरकलेसा ॥
अर्थात् पूर्णिमा के सोलह चंद्रमा ( अथवा सोलह कलाओं से युक्त चंद्रमा , उगें ; तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें , सब पर्वतों में आग लगा दी जाय , परंतु बिना सूर्य के रात नहीं जाती । हे गरुड़जी ! इसी प्रकार बिना हरि - भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता । यह बिल्कुल ठीक है । इसीलिए संतों ने ईश्वर का भजन करने कहा । ईश्वर का भजन कैसे हो , इसके लिए ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए ।
पहले स्वाध्याय और साधु - संत , विद्वान से सुनकर श्रवण - ज्ञान होता है । पढ़े - सुने के विचार करने को मनन - ज्ञान कहते हैं । श्रवण और मनन के बाद जानने में आता है कि प्राप्तव्य वस्तु क्या है ? ईश्वर को प्राप्त करो , वही प्राप्तव्य वस्तु है । जिस काम से वह पाया जाय , वही भक्ति है । ईश्वर स्वरूप क्या है ? इसके बारे में संतों के ग्रंथों में ऐसा लिखा है कि स्वरूपतः वह परमात्मा इन्द्रियातीत है अर्थात् बाहर की दश इन्द्रियाँ और भीतर की चार इन्द्रियाँ ; इन चौदहों इन्द्रियों के ज्ञान से यह परे है । राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगतअकय अपार , नेति नेतिनित निगमकह ।।
यह उनका स्वरूप है । जगपेखन तुम देखनिहारे । विधिहरि सम्भू नचावनहारे ।। तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा । अउर तुम्हहिं को जान निहारा ।। सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।। तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन । चिदानंदमय देह तुम्हारी । विगत विकार जान अधिकारी ।। -गोस्वामी तुलसीदास
चिदानंदमय - देह कोई मनुष्य - देह नहीं हो सकती , उसे अधिकारी - जन जानते हैं । अधि , कारी जन साधन - भजन कुछ करके ही बनते हैं । तब चिदानंदमय - देह को पहचान कर वह जानते । हैं ; अन्य प्रकार से नहीं । देह क्षेत्र है , आत्या क्षेत्रज्ञ है । अन्नमय कोप चिदानंदमय नहीं है , चेतन शरीर चिदानंदमय है । चिदानंद और नरतन में भेद नहीं था ऐसा नहीं । नरतन और चिदानंद में पृथकता है । नरतन को सब कोई देखते हैं , किंतु चिदानंद को अधिकारी - जन ही जानते हैं । जिस शरीर में लड़कपन , युवावस्था और बुढ़ापा होता है तथा जिसका होना , रहना और विनसना होता है , वह चिदानंद - शरीर नहीं है । जिसमें शोक - दुःख हो , वह चिदानंद - शरीर नहीं है , वह तो नर रूप है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने क्षीरशायी भगवान विष्णु का नर - रूप धारण करना इस भाँति लिखा है भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धरेउ तनु भूप । किए चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ॥ यथा अनकेन वेष धरि , नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ , आपुन होइ न सोइ ।।
इस दोहे से स्पष्ट है कि नरतन और चिदानंद देह में अंतर है । अपनी लीला के हेतु नरतन धारण किया । नरतन धारण करने से वे स्वरूपतः नर ही थे , मानने योग्य नहीं है । जैसे नाटक करनेवाला नाटक के खेल में जो रूप धारण करता है , वह वही नहीं हो जाता है । चेतन ही चिदानंदमय शरीर को देखेगा । अपने को जड़ के चारो शरीरों से ऊपर उठावे , तभी वह अधिकारी भक्त उसे जान सकता है । इसलिए ' जान अधिकारी ' कहा । वह चेतनमय देह और उसका फिर देही क्या है और कैसे है ? वह शुद्ध आत्मस्वरूप है । वह चेतन से वैसे संबंध रखता है , जैसे आकाश वायु से , बीच में कुछ परदा नहीं । गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय - पत्रिका में है तीन अवस्था तजहु , भजहु भगवन्त । मन क्रम वचन अगोचर , व्यापक व्याप्य अनंत ।।
वचन से , कर्म से और मन से उसे पहचान नहीं सकते । ' व्याप्य ' और ' व्यापक ' फिर ' अनंत ' कहा । व्याप्य के बाद वह और कितना बाकी है , ठिकाना नहीं । यह ईश्वर का स्वरूप है । सकलदृस्य निज उदर मेलि , सोवई निद्रा तजि योगी । सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख , अतिशय द्वैत वियोगो ।। शोक मोह भय हरष दिवस निशि , देश काल तहँ नाहीं । तुलसिदास एहि दशा हीन , संशय निर्मूल न जाहीं ॥
योगी , जो सकल ब्रह्माण्ड के दृश्य को अपने उदर में मेलकर देखता है , देश - कालातीत अर्थात् स्थान और समय से रहित शुद्ध आत्मतत्त्व पद को प्रत्यक्ष रूप से जानता है और अत्यंत द्वैत रहित होकर हरिपद के परम सुख को पाता है । देश - कालातीत परम तत्त्व ही हरिपद या परमात्म- स्वरूप है । सूरदासजी से पूछने पर कहते हैं अविगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गूंगहि मीठे फल को रण , अंतर्गत ही भावै ।। परम स्वाद सवही जु निरन्तर , अमित तोष उपजाये । मन वानी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ।। रूपरेख गुन जाति जुगति विनु , निरालंब मन चक्रित धावै । सब विधि अगम विघारहितातै , ' शूर ' गगुण लीला पद गावै ।।
विषयों में संतुष्टि नहीं , परंतु विभु परमात्मा तो परम स्वाद - रूप निरंतर अमित तोपदायक है । वह स्वाद विनसनेवाला नहीं , सदा स्वाद बना रहता है , उसमें पूर्ण संतुष्टि है , मानो अधिकारी भक्त संतुष्टि के समुद्र में डूबा रहता है , वह कुछ चाहता नहीं है । जो मन , वचन से अगोचर है , उसे वही जानता है , जो पाता है । कबीर साहब कहते हैं ' नैना बैन अगोचरी , श्रवणा करनी सार । बोलन कै सुख कारने , कहिये सिरजनहार ॥ ' ' जस कथिये तस होत नहीं , जस है तैसा सोय । कहत सुनत सुख ऊपजै , अरु परमारय होय ॥ श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन वायँ अनन्य ।। बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मीही ते सव लेखा । सबके मध्य निरंतर साई दृष्टि दृष्टि सों देखा ।। चाम चश्म सो नजरि न आवै खोजु रूह के नैना । चून चगून वजूद न मानु तें सुभा नमूना ऐना ।।
दृष्टि की दृष्टि अर्थात् आत्मा से देखने योग्य है । ये भी बुद्धि - वचन के परे कहते हैं । बाबा नानक कहते हैं अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा । जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।। साचे सचिआर विटहु कुरवाणु ॥ ना तिसु रूप वरणु नहिं रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु ।।
उपनिषद् में पढ़ने से यही मालूम होता है कि जो संतों का ज्ञान है , उपनिषद् में भी वही है । या उपनिषद् में जो बात है , संत भी वही बात बताते हैं । पंच विषयों को पंच ज्ञानेन्द्रियों से जानते हैं । जिस इन्द्रिय का जो विषय है , उसी इन्द्रिय से वह जाना जाता है । एक इन्द्रिय का जो विषय है , उसके अतिरिक्त दूसरी इन्द्रिय से उस विषय को नहीं जान सकते । कोई पूछे कि रूप विषय क्या है? तो कहेंगे जो आप नेत्र इन्द्रिय से ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार परमात्म - विषय वही है , जिसे केवल चेतन आत्मा से जान सकते हैं । वही सत्नाम , सत्साहब और कर्ता पुरुष है , वही आत्मा है , वही परमात्मा है । आकाश कहने से घर के भीतर और बाहर दोनों का ज्ञान होता है । इसी तरह आत्मा कहने से शरीरस्थ आत्मा और सर्वपर आत्मा ; दोनों का ज्ञान होता है । चाहे कोई शरीरस्थ आत्मा कहे , कोई परमात्मा कहे ; एक ही बात है ।
यह जान लेने पर अब भक्ति कैसे करें ? उस परमात्म - पुरुष को देख लेते , पहचान लेते तो हम संतुष्ट हो जाते । वह है , सर्वत्र है । अपना रहना अपने शरीर में है , वह परमात्मा भी अपने अंदर में है फिर पहचानते क्यों नहीं ? हम शरीर और इन्द्रियों में फंसे हुए हैं । इसलिए हमको चाहिए कि अपने को शरीर और इन्द्रियों से निकालें , तभी हम देखेंगे । जिस प्रकार दूध में घी मिला है , उसी तरह शरीर और इन्द्रियों में जीवात्मा मिला है । इससे अलग करना कठिन मालूम होता है । किंतु यह हो सकता है , ऐसा संतों ने कहा है । दूध से मथकर घी निकाल कर उसमें रखने से फिर उसमें पहले जैसा वह मिलता नहीं , उसी प्रकार शरीर और इन्द्रियों से अपने को निकाल लेने पर पुनः शरीर और इन्द्रिय में रहकर उसमें पूर्ववत् मिलाप से बचते हुए रहकर परमात्मा को प्रत्यक्ष पहचान सकते हैं । ऐसा हो जाने पर तुम उसे बाहर भीतर सब जगह आत्मदृष्टि से देखोगे । बाहरि भीतरि एकहु जानहु इहु गुर गिआन बताई । जन नानक बिनु आपा चीन मिटै न भ्रम की काई ।। -गुरु नानक साहब
अपने शरीर से अपने को अलग करो । इसी भक्ति के लिए सब संतों का उपदेश है । गुरु महाराज का भी यही उपदेश था । गुरु महाराज का उपदेश था कि अपने अंदर में कोशिश करो । ईश्वर बाहर में भी है , किंतु इन्द्रियों पहचानने योग्य नहीं । संसार देखने के नेत्र से हम संसार को पहचानते हैं , परंतु यदि उसपर पट्टी बँधी हो तो उससे हम दृश्य जगत को कैसे देखें ? इसी प्रकार चेतन आत्मा पर जड़ - आवरण की पट्टी रहने से परमात्मा को कैसे पहचान सकते हैं ? आप शरीर के संग - संग काम करते हैं , जब आप जगे रहते हैं । इसके बाद और स्वप्न के पहले तन्द्रा या अधनिनियाँ होती है । इसमें बाहर का कुछ ज्ञान रहता है और कुछ भूलते भी जाते हैं । शक्ति । भीतर सिमटती जाती है , गला झुक जाता है । धीरे - धीरे बाहर का ज्ञान बिल्कुल भूल जाते हैं । स्वप्न में जाने से आपकी सब बाह्य इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं । मुँह में मिसरी रहने से भी उसकी मिठास कुछ मालूम नहीं होती इस प्रकार मोटी इन्द्रियों से आपको छुट्टी मिली , किंतु मानसिक इन्द्रियाँ रहती हैं । फिर आप गहरी नींद में सो जाते हैं और इनसे भी छुट्टी मिल जाती है । किंतु आप बेहोश रहते हैं फिर जगते हैं और पहले जैसे बरतते हैं । यह साधरणतः होते रहता है ।
ऐसा कोई साधन हो ऐसी कोई अवस्था हो , जिसमें नींद भी नहीं रहे और जगे भी नहीं रहे । संतों ने उसी को तुरीय अवस्था कहा है । इस अवस्था में रहने से इन्द्रियों से आपका ऊपर उठा रहना होगा । इसी का उपदेश गुरु महाराज हमलोगों को दे गए हैं । इस काम के करने में स्थूल शरीर को कोई कष्ट नहीं होता । लेटकर करो या बैठकर , किंतु आलस्य न आवे , इसपर पहरा कीजिए । लेटा हुआ भजन करना शवासन से होता है । किंतु यह आसन साधन में कुछ बड़े लोगों का है । साधारणतः बैठकर भजन करे , इसी का अभ्यास करे और भजन के समय को बढ़ावे । होते - होते अपने को इन्द्रियों से और शरीरों से छुटा सकेंगे और ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे । ०
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महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S40, Saintly spirit and god ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.3-1-1952ई. मुरादाबाद, यू.पी.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
9/22/2020
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