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S47, What is gross and subtle worship ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं प्रवचन ।। दि.06-03-1953ई. तेलो, साहेबगंज

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 47

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 19 वां, के बारे में।

इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- सत्संग की विशेषता, सभी ईश्वर भक्तों का सम्मान करना, सूरत का जगना क्या है? 'सुरत' शब्द का संतों की दृष्टि में अर्थ, नादानुसंधान क्या है? दृष्टि साधन का प्रारंभिक स्वरूप, स्थूल और सूक्ष्म उपासना क्या है? इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान आपको मिलेगा जैसे कि- स्थूल और सूक्ष्म उपासना क्या है, स्थूल और सूक्ष्म में अंतर, स्थूल शरीर क्या है, सूक्ष्म शरीर क्या है, स्थूल शरीर का अर्थ,स्थूल से सूक्ष्म की ओर in हिन्दी, स्थूल का अर्थ, महाकारण शरीर, स्थूल शरीर meaning, स्थूल की परिभाषा, सूक्ष्म शरीर ध्यान, सूक्ष्म शरीर की रचना, स्थूल क्या है, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

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What is gross and subtle worship मनुष्य के अतिरिक्त विषय पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं
What is gross and subtle worship 

What is gross and subtle worship

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि-  प्यारे महाशयो ! आपलोगों का यह वार्षिक सत्संग होना मैं भी आवश्यक समझता हूँ । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--What is gross and subtle worship, difference between gross and subtle, what is a gross body, what is a subtle body, meaning of gross body, from gross to subtle, in Hindi, meaning of gross, supernatural body, Macro body meaning, definition of macro, subtle body meditation, micro body composition, what is macro, ......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

४७. साधन के अन्त तक पहुँचो

What is gross and subtle worship विषय पर प्रवचन करते गुरु महाराज

प्यारे महाशयो ! 

    आपलोगों का यह वार्षिक सत्संग होना मैं भी आवश्यक समझता हूँ । क्योंकि अखिल भारतीय संतमत सत्संग में इधर के बहुत लोग उपस्थित नहीं हो सकते हैं। ठीक ही है कि आपलोगों ने ऐसा सत्संग किया है । संथाल परगना के अंदर के और भागलपुर के दक्षिण बांका इलाके के सत्संगियों का यह छठा वार्षिक सत्संग है । इस ( वार्षिक सत्संग ) का जन्म ग्राम कोरका में १९४८ ई० में हुआ । वहाँ ' संथाल परगना जिला अधिवेशन ' नाम रखा गया । बांका डिवीजनवाले बोले - हमको क्यों अलग करते हो ? हमलोगों ने तो सब दिन आपके साथ मिलकर सत्संग किया है । अतएव बांका ( दक्षिण भागलपुर ) और संथाल परगना दोनों का यह सत्संग है । इसका उपयुक्त नाम ' बांका ( भागलपुर ) और संथाल परगना वार्षिक सत्संग ' होना चाहिए । 

    यह संतमत - सत्संग किसी मत विशेष का खण्डन करनेवाला नहीं है । इसीलिए आपलोग संत - स्तुति पढ़ते हैं सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी । उनकी स्तुति केहि विधि कीजै , मोरी मति अति नीच अनाड़ी । दुःख - भंजन भव - फंदन - गंजन , ज्ञान - ध्यान - निधिजग उपकारी ।  विन्दु - ध्यान - विधिनाद - ध्यान - विधि , सरल - सरल जग में परचारी ॥ धनि ऋषि संतन्ह धन्य बुद्ध जी , शंकर रामानन्द धन्य अघारी । धन्य हैं साहब संत कबीर जी , धनि नानक गुरु महिमा भारी ॥ गोस्वामी श्री तुलसिदास जी , तुलसी साहब अति उपकारी । दादू सुन्दर सूरश्वपच रवि , जगजीवन पलटू भयहारी ॥ सतगुरु देवी अरु जे भये हैं , होंगे सब चरणन शिरधारी । भजत है में ही'धन्य धन्य कही , गही संत पद आशा सारी ॥

     किसी संत को हेय मत समझो । किसी एक संत के नाम पर पंथ का नाम रखकर उसपर श्रद्धा रखनी और दूसरे को नीचा दबाना , हेय समझना उचित नहीं । कोई राम , कोई ब्रह्म , कोई अल्लाह या खुदा कहता है । इस प्रकार किसी एक नाम से कोई ईश्वर को पुकारता है तो वह कम नहीं । ईश्वर , गॉड , खुदा आदि नहीं कहकर यदि कोई उसी को दूसरे शब्द से संकेत करता है, तो वह भी आस्तिक है । जैसे – महात्मा बुद्ध । उन्होंने ईश्वर है या नहीं, इसपर कुछ नहीं कहा, किन्तु सदाचार का पालन करने, ध्यान अभ्यास करने और नामरूपातीत पदार्थ को ग्रहण करने की शिक्षा दी । वे ईश्वर नहीं कहकर नामरूपातीत तत्त्व को बताते हैं, तो मेरी समझ में वे भी उसी ईश्वर का संकेत करते हैं; जिसके लिए और संतों ने कहा है । संतों के विचारानुकूल मूलतत्त्व में कुछ भेद नहीं । जो प्रत्यक्ष संत हैं , उनका आदर करो । यदि किसी की तारीफ नहीं कर सको , तो उसकी निन्दा भी मत करो , तटस्थ रहो । निन्दा - स्तुति दोनों से अलग रहो । 

    कबीर साहब के वचन में पाठ हुआ, सुरत को जगाने का, नादानुसंधान करने का, संत के पास जाकर नम्रता से उनको प्रणाम कर भक्ति मार्ग की शिक्षा - दीक्षा लेने का और संसार की ओर पीठ कर भागने का आदेश है । उनके वचन में ' सुरत- जीवात्मा ' के लिए प्रयोग हुआ है । ' सुरत ' उनका पारिभाषिक शब्द है । और संतों ने भी सुरत का प्रयोग कबीर साहब के अर्थ में ही किया है । सुरत का अर्थ केवल ख्याल ही नहीं है । ' आदि सुरत सतपुरुष से आई । जीव सोहं बोलिये सो ताई ।। '

     कबीर दास सुरत को जगाते हैं और कहते हैं कि अज्ञानता की नींद में तुम क्यों सोए हो ? उठो और भजन में लगो । उठने के वास्ते वे कहते हैं कि चित्तवृत्ति को जोड़कर - चित्त लगाकर आंतरिक कान से सुनो , मधुर ध्वनि का स्वर होता है । यह कहाँ सुनने को कहते हैं - कहीं बाहर में या अंदर में , अपने अंदर में सुनने को कहते हैं ; क्योंकि सुरत को सुनने कहते हैं । इसी को सुरत - शब्द - योग या नादानुसंधान कहते हैं । ऋषियों ने इसी को नादानु संधान कहा और आजकल के सन्तगण इसको नाम - नाम - भजन या सुरत - शब्द - योग कहते हैं । सब संतों ने इसी का साधन किया और इस विषय में प्रचुरता से उपदेश वाक्य कहे भी हैं । कबीर साहब के पहले भी श्रीरामानन्द स्वामी का प्रचार था । श्रीरामानन्द स्वामी के पहले गोरखनाथजी का प्रचार था किन्तु उनका प्रचार साथ - साथ हठयोग लिए हुआ था । श्री रामानन्द स्वामी ने इस नादानु संधान के द्वारा भगवद्भक्ति का प्रचार किया था । श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामायण की चौपाइयों में इस साधन का संकेत किया है-  बन्दउँ रामनाम रघुबर को । हेतु कृसानु भानुहिमकर को । विधिहरिहरमय वेदप्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधानसो ।। नामरूप दुइ ईश उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।  

    निर्गुण और अकथ अनादि रामनाम वर्णात्मक नहीं , ध्वन्यात्मक ही हो सकता है ।

     सुरत को जगानेवालों में दो प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं । एक वह जो देख - सुन सकते हैं । दूसरे वह जो केवल सुन सकते हैं । जन्मान्ध को देखना नहीं होता , वह सुन सकता है । किन्तु जिनकी आँख अच्छी है , वह देख और सुन सकते हैं । यह अच्छा है जहाँ कि देखना - सुनना दोनों हो सकते हैं । लेकिन नहीं देख सकनेवाला नहीं देखता है , केवल सुनता है । यदि आप अपने अन्दर देखना चाहो तो बाहर देखना बन्द करो । यानी आँख बन्द कर लो , तो बाहर देखना नहीं होगा । बाहर देखना बन्द होने से और भीतर देखने से अंधकार मालूम होगा । ऐसा सबको होता है । इस देखने में कुछ देखना नहीं होता है , किन्तु सुनना चाहो तो अन्दर में कुछ सुन सकते हो ! सुरत अन्धकार में है और सुन भी सकती है । इसको जगना कहो तो जगना है , किन्तु देखता नहीं है , सुनता है । दूसरा वह है , जो अंत : प्रकाश में अपनी सुरत को ले गया है । वह देखता और सुनता दोनों है । जो पहले तरह आँख बंद करने से मालूम होता है , वह पहले तल पर है । किंतु जो प्रकाश में जाकर देखता - सुनता है , वह वैसा , जैसे आँखवाला हो । इन दोनों में बड़ा फर्क है । देखने और सुननेवाला ऊँचे में है , केवल सुननेवाला नीचे में है । साधन के अंदर देखो भी और सुनो भी , यह जगना ठीक है । यह प्रातःकाल है , आप जगे हुए हैं ही , थोड़ी देर पहले आप सोए थे । सोए में कभी स्वप्न भी देखते होंगे । दिन - रात में बहुत काल जगे रहते हैं , अल्पकाल ही सोते हैं । फिर जगाते हैं ? तो ये कहते हैं - अज्ञानता में पड़े हो , गोया सोए हो । ज्ञानीजन ज्ञान से समझाते हैं , गोया जगाते हैं । फिर कहते हैं - वचन ज्ञान से जगना अल्प है । पहले सुनो , फिर विचारो ; विचार से जो कर्म निर्णय हो जाय , उसका साधन करो , फिर साधन के अंत तक पहुँचो , तब पूरा जगना होगा ।

     इसी को श्रवण , मनन , निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान कहा गया है । सुनो , विचारो , साधन करो और साधन के अंत तक पहुँचो । जो प्राप्त होना चाहिए , प्राप्त हो गया , यह अनुभव ज्ञान है । सुनना श्रवण ज्ञान है , विचारना - मनन ज्ञान है , अभ्यास करना - निदिध्यासन ज्ञान है । श्रवण - मनन का जगना अंधों का जगना है । जैसे अन्धा जगता है , किंतु कुछ देखता नहीं है । वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण , भव पार न पावइ कोई । निशिगृह मध्य दीप की बातन्हि , तम निवृत नहिं होई ॥ गोस्वामी तुलसीदास 

     अन्धकार दूर करने के लिए जो यत्न करना चाहिए , करना होगा , तब ठीक जगना होगा । तेल तूल पावक पुट भरिधरि , बनै न दिया प्रकाशत । कहत बनाय दीप की बातें , कैसे हो तम नाशत । - संत सूरदासजी

     तात्पर्य यह कि प्रकाश पाने का जो यत्न है , वह करते नहीं केवल बोलते हैं , इससे प्रकाश नहीं हो सकता । भगवान बुद्ध ने भी कहा - तुम जो अंधकार में पड़े हो , प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते । और मुक्तिकोपनिषद् में श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से अंतर की ज्योति की खोज करने के लिए कहा है । प्रकाश पाने के लिए जो दृष्टि होती है , वह साधारण दृष्टि नहीं । साधारणतः तीन अवस्थाओं में जो आते - जाते रहते हैं , सो क्यों ? एक ही जगह में सब समय नहीं रहते हैं । यह शरीर एक घर के समान है , इसे घट भी कहते हैं , इसी में आप रहते हैं । इसमें कभी जगते हैं , कभी स्वप्न में जाते हैं और कभी सुषुप्ति में जाते हैं , ऐसा क्यों ? जाग्रत के स्थान में जाने से जगते हैं , स्वप्न के स्थान में जाने पर स्वप्न होता है और सुषुप्ति के स्थान में जाने पर वह अवस्था होती है । इन तीनों अवस्थाओं में आना - जाना जगना नहीं है । सुनने , समझने , विचारने से मोह नहीं छूटता । तुरत ज्ञानी बन जाते हैं और तुरत अज्ञानी के समान काम करते हैं । यह जगना नहीं हैइसके लिए कुछ और बात है । जाग्रत से स्वप्न में जाते समय आपकी शक्ति भीतर खींचती है । हाथ पैर कमजोर होते जाते हैं । शक्ति खींचकर उस स्थान में चली जाती है और स्वप्न में चले जाते हैं जाग्रत का स्थान आँख , स्वप्न का कण्ठ , सुषुप्ति का हृदय और तुरीय में आँख के ऊपर जाना होता है । भजन किया अंत:प्रकाश पाया और आंतरिक नाद को सुना भी , यह जगना है यह जगना बिना साधन के नहीं हो सकता । इसके लिए चाहिए कि ' दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे , भक्ति अचल वर माँग री । ' किसी के यहाँ जाकर नम्र होओ, उसको प्रणाम करो और जानो । अर्थात् जनाने के लिए गुरु चाहिए , उनसे जानो और करो । फिर कहा ' जगत पीठ दै भाग री ' कहीं भी जाओ , संसार रहेगा ही धरती पर कहीं जाने से संसार की ओर पीठ नहीं हो सकती । जब वह साधन के समय संसार के ज्ञान से रहित हो जाता है , इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर रहता है तब जगत की ओर पीठ देना होता है उपनिषद् में भी लिखा है - उठो , जागो और ज्ञानी के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो । फिर बतलाया कि वह छुरे की धार के समान है ।

     इस सूक्ष्म मार्ग पर पैर नहीं चलता, मन सूक्ष्म है , सूक्ष्ममार्ग पर मन चलेगा । मन का सिमटाव हो तब जा सकता है । फैलाव होने से सूक्ष्म पथ पर नहीं चल सकता । फैलाव से सिमटाव में आने के लिए ही भजन - अभ्यास करना है । क्योंकि इसी भजन से परमात्म - स्वरूप प्राप्त होता है । लोगों को डर नहीं होना चाहिए कि छुरे की धार पर चलना विकट काम है । हाँ ! इस रास्ते पर चलना कठिन है , परंतु असम्भव नहीं । जितने जो कोई बड़े हुए हैं , , वे सब इसी रास्ते पर चलकर । उस रास्ते पर चलकर किधर जाना होगा ? परमात्मा की ओर । लोग संसार की ओर रहते हैं , तो संसार की अस्थिरता में कभी शान्त नहीं होते - सुखी नहीं होते । किंतु परमात्मा को पाने से सांसारिक कष्टों से वे छूट जाएँगे । परमात्मा को पाकर उस मिलन - सुख में निमग्न हो जाएँगे । उपर्युक्त मार्ग को केवल जानने से ही काम समाप्त नहीं होगा । जानना होगा और उसके अंत तक चलना होगा । इस रास्ता को जानिए और चलिए । यह रास्ता सबके अंदर एक तरह है । किसी दूसरे देश के रहने वाले हों या दूसरी जाति के हों इस कारण से उनके लिए दूसरा रास्ता हो , यह बात नहीं । सबके लिए एक ही रास्ता है । यह भी दृढ़ता से जानिए कि जो सदाचारपूर्वक रहता है और गुरु से युक्ति जानकर नित्य दृढ़ ध्यानाभ्यास करता है , वह अज्ञानता से छूटकर ब्रह्म को पाता है और पूर्ण रूप से जगकर ब्रह्मानन्द में मग्न रहता है ।०


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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि स्थूल और सूक्ष्म उपासना क्या है? सुरत' शब्द का संतों की दृष्टि में अर्थ, नादानुसंधान क्या है? दृष्टि साधन का प्रारंभिक स्वरूप, स्थूल का अर्थ, महाकारण शरीर। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का  सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S47, What is gross and subtle worship ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं प्रवचन ।। दि.06-03-1953ई. तेलो, साहेबगंज S47, What is gross and subtle worship ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं  प्रवचन ।। दि.06-03-1953ई. तेलो, साहेबगंज Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/18/2020 Rating: 5

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