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S93, Worshiping God, an infinite form ।। महर्षि मेंहीं वचनामृत ।।अप. दि.10-10-1954ई. मुरादाबाद, U.P.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 93

 प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ९३वां, को । इसमें अनंत स्वरूप ईश्वर की सूक्ष्म उपासना कैसे करें ? इस बारे में विशेष रूप से बताया गया है।

इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में बताया गया है कि-  apanee paristhiti par vichaar karen, sansaar kee sthiti aur vistaar, anant kee sthiti aur hamaaree sthiti kaisee hai, saahab ka arth, sansaar mein sukhee kaun hai? sukhee hone ka upaay, man ko jeetane ka upaay, man kahaan rahata hai? brahmaand mein jaana kya hai? para bhakti mein bina aankh aur kaan ke kaise dekhate sunate hain?     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- anant ka arth kya hai, anant arth, alaukik sankhyaon kee apeksha anant ka prateek hai, anant shabd kisake lie prayukt hai, inaphinit kee khoj kisane kee, anant kee khoj kisane kee, anant shabd kisake lie prayukt hua hai, anant kee paribhaasha, anant kya hota hai? sansaar aur anant, shoony se anant pravachan,    इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 92 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।

अनंत की उपासना कैसे करते हैं ?  इस पर प्रवचन करते गुरुदेव
अनंत की उपासना 

anant svaroop eeshvar kee upaasana,

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! हमलोग संसार में अच्छी हालत में हैं या बुरी हालत में , इसका विचार करना चाहिए । यदि अच्छी हालत में हैं तो ठीक है । यदि बुरी हालत में हैं , तो क्या इसी हालत में रहना अच्छा है ? .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----Think about your situation, the state and extent of the world, the state of infinity and how our situation is, the meaning of sir, who is happy in the world? The way to be happy, the way to win the mind, where is the mind? What is going into the universe? How do you listen without seeing the eyes and ears in para devotion?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

९३ . समस्त प्रकृति मण्डल को जानिए 

अनंत की उपासना पर प्रवचन करते गुरुदेव

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

      हमलोग संसार में अच्छी हालत में हैं या बुरी हालत में , इसका विचार करना चाहिए । यदि अच्छी हालत में हैं तो ठीक है । यदि बुरी हालत में हैं , तो क्या इसी हालत में रहना अच्छा है ? यदि इससे कोई अच्छी हालत है , तो उसमें जाना चाहिए । पशु भी बुरी हालत में रहना नहीं चाहता , हम तो मनुष्य हैं । 

     यह संसार बहुत बड़ा है । जो पढ़े - लिखे हैं , वे जब इस संसार के चित्र को मन में लाते हैं , तो उन्हें बहुत विस्तृत मालूम होता है । संसार के जिस तल पर हमलोग हैं , संसार इतना ही बड़ा नहीं है । हमलोग जिस तल पर रहते हैं , वह स्थूल है । स्थूल तबतक नहीं हो सकता , जबतक इसका पूर्व रूप सूक्ष्म न हो । सूक्ष्म भी तबतक नहीं हो सकता , जबतक उसका पूर्व रूप कारण न हो। इसके , अर्थात् संसार के , स्थूल तल को बहुत लोग भूगोल में पढ़े हैं । किंतु इसके जो दो तल और बच जाते हैं , इसको किसी स्कूल और कॉलेज में किसी ने पढ़ा है ? कभी नहीं । यह संसार अनंत नहीं है किंतु बहुत बड़ा है। तुलसीकृत रामायण में है  प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी । ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ 

     एक अनादि अनंत अवश्य है । दो अनादि अनंत कभी नहीं हो सकते । दो अनंत के होने से दोनों की सीमा मिल जाएगी , दोनों सान्त हो जाएँगे । अनंत दो नहीं हो सकते , एक ही होगा । प्रकृति व्याप्य है और परमात्मा व्यापक है । परमात्मा मोहितेकुल्ल और प्रकृति मोहान है । परमात्मा इस प्रकृति को भरकर और भी आगे है । समस्त प्रकृति मण्डल को जानिए कि कितना बड़ा है ? समस्त प्रकृति मण्डल का कहीं नक्शा है ? कहीं नहीं । गुरु महाराज कहा करते थे वह नक्शा मनुष्य के अंदर है , उसने किसी छापेखाने का मुँह नहीं देखा है। बहुत बड़ा संसार है , इसलिए उसको समुद्र कहा गया । इसमें हमलोग रहते हैं, क्या हालत है ? आप बड़े धनवान हैं तो क्या आप सब तरह सुखी हैं आपकी प्रतिष्ठा बहुत बड़ी है । आप बहुत विद्वान हैं ; तो क्या आप सब तरह सुखी हैं ? कभी नहीं । कहेंगे यह दुःख है और वह दुःख है । महात्मा बुद्ध को भी पेचिश का रोग हुआ । वे पहुँचे हुए महात्मा थे । समाधि में सुखी रहते थे । समाधि से उतरने पर दुःखी होते थे , उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा था । जो पिण्ड में रहता है , स्थूल संसार में रहता है । इससे ऊपर उठता है , तो उन कष्टों से बचता है । उस तल से ऊपर उठकर भगवान बुद्ध रहते थे , तब कष्ट नहीं होता था । इस संसार में कोई सुखी नहीं रह सकता । संत कबीर क्या कहा है  तनधर सुखिया कोइ न देखा , जो देखा सो दुखिया हो । उदय अस्त की बात कहतु हैं , सबका किया विवेका हो ।। घाटे बाढ़े सब जग दुखिया , क्या गिरही बैरागी हो । सुकदेव अचारज दुख के डर से , गर्भ से माया त्यागी हो ।। जोगी दुखिया जंगम दुखिया , तपसी को दुख दूना हो । आसा तृस्ना सबको व्यापै , कोई महल न सूना हो । साँच कहीं तो कोइ न माने , झूठ कहा न जाई हो । ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया , जिन यह राह चलाई हो । अवधूदुखिया भूपति दुखिया , रंक दुखी विपरीती हो । कहै कबीर सकल जग दुखिया , संत सुखी मन जीती हो ।

     तुलसी साहब को लोग ' साहब ' कहते थे , वे अपने को ' दास ' कहते थे । ' साहब ' अरबी शब्द है । इसका अर्थ है- प्रभु , स्वामी आदि । तुलसी साहब ने कहा है आली देख लेख लखाव मधुकर भरम भौ भटकत रही । दिनतीनितन संगसाथ जानौ अंत आनंद फिरि नहीं ।। 

     संत लोग ऐसा ही कहते चले गए हैं । यह संसार सुख का स्थान नहीं है, दुःख का स्थान है। यहाँ रहकर हम अच्छी हालत में नहीं रह सकते हैं । इसलिए यहाँ से हमलोग चल दें , तभी अच्छा है । किंतु फिर चलें तो किधर ? पूर्व , पश्चिम , उत्तर या दक्षिण ? चारो ओर संसार - ही - संसार दिखता है । यह संसार बहुत बड़ा है । ऊपर की ओर आकाश है , यह भी संसार है । नीचे भी संसार है । बचे हुए आठो दिशाओं में भी संसार है । इसलिए किसी जानकार से जानें कि किधर जाएँ ? कबीर साहब कहते हैं- ' संत सुखी मन जीती हो । ' इसलिए मन जीतने की ओर चलें चंचल मन थिर राखु जबै भल रंग है । तेरे निकट उलटि भरि पीव सो अमृत गंग है । -संत कबीर साहब 

     चंचल चित्त को थिर करो तो भला रंग देखोगे । तुम्हारे नजदीक ही अमृत की गंगा बहती है । तुम उलटकर पीओ । संत कबीर साहब की एक कड़ी और याद आती है - ' उलटि पाछिलो पैंडो पकड़ो , पसरा मना बटोर ।

     बड़े मजे का भजन है मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा , मुसाफिर जैहो कौनी ओर ॥ मोह का शहर कहर नर नारि , दुइ फाटक घन घोर । कुमती नायक फाटक रोके , परिहौ कठिन झिंझोर ।। संशय नदी अगाडी बहती , विषम धार जल जोर । क्या मनुआँ तुम गाफिल सोवो , इहवाँ मोर न तोर ॥ निसि दिन प्रीति करो साहेब से , नाहिंन कठिन कठोर । काम दिवाना क्रोध है राजा , बसे पचीसो चोर ॥ सत्त पुरुष इक बसे पछिम दिसि , तासों करो निहोर । आवै दरद राह तोहि लावै , तब पैहो निज ओर ॥ उलटि पाछिलो पैंडो पकड़ो , पसरा मना बटोर । कहै कबीर सुनो भाइ साधो , तब पैहो निज ठौर ॥ 

     पता कौन बता देगा ? तो कहा सत्त पुरुष इक बसे पछिम दिसि , तासों करो निहोर । आवै दरद राह तोहि लावै , तब पैहो निज ओर ॥ 

     मन को जीतने के लिए किधर जाइएगा ? आकाश में उड़ने से मन वश होता तो आकश में उड़नेवाला , वायुयान पर चलनेवाले का मन काबू हो जाता । पहले जानो कि मन कहाँ है ? इस तन में मन कहँ बस , निकसिजाय केहि ठौर । गुरु गम है तो परखि ले , नातर कर गुरु और ।। नैनों माहीं मन बसै , निकस जाय नौ ठौर । गुरु गम भेद बताइया , सब संतन सिरमौर ।। -कबीर साहब

      ब्रह्मोपनिषद् में भी यही बात है - ' नेत्रस्थं जागरितं विद्यात् ... ' यह आँख में रहता है । आँख का स्थान सबसे ऊँचा है । कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों में सबसे ऊँचे में आँख है । कान से भी ऊपर आँख है संत दरिया साहब बिहारी ने कहा है जानिले जानिले सत्तपहचानिले , सुरति साँची बसै दीद दाना । खोलो कपाट यह बाट सहजै मिले , पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।। 

     इस साधन अभ्यास में मन में मन नैनन में नैना , मन नैना एक होइ जाई । 

     मन में मन तब होगा , जब नैनन में नैना होगा । दरिया साहब ने कहा - ' दृष्टि भीतर अब दृष्टि समोए । लागी झरी अमृत रस पोए ।। '

     मन को काबू में करने के लिए बाहर जाना नहीं है । मन को सम्हाल कर उसके केन्द्र में समेटना है । समेट लो तो मन में मन हो जाएगा । उसको मिठास मिल जाएगा , अपना आनंद अपना सुख उसको मिल जाएगा भगवान श्रीकृष्ण के वचन अनुकूल ' कछुए की तरह अंगों को समेट लेगा । ' शरीर के अंग तो नहीं सिमटेंगे , इन्द्रियों की चेतनधारा सिमटेगी । यदि कोई कहे कि यहाँ भी संसार में सुख मिलता है , तो वह अल्प है । भगवान बुद्ध ने कहा यदि विशेष सुख प्राप्ति की संभावना दीखे तो विशेष सुख की प्राप्ति के लिए स्वल्प सुख छोड़ दे । मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में है निद्रा भय सरीसृपं हिंसादि तरंग तृष्णावर्त्तदारपंकं संसार वार्धितर्तु सूक्ष्म मार्गमवलम्ब्य .. 

     शरीर के जितने सरोकारी हैं , सब पंक हैं। सन का बंधन , लोहे का बंधन , मजबूत बंधन नहीं है । जिसमें अपनी ममता है , वह बड़ा बंधन है ' भगवान बुद्ध ने कहा । अज्ञानता से ममता उत्पन्न होती है । इस अज्ञानता के कारण हम पंक में लसके हैं । इसको पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलंब करो । ' मन में मन नैनन में नैना ' जो कहा , वह सूक्ष्ममार्ग है । कबीर साहब ने कहा है गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै , गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं । गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं , समुझि विचारि ले मने माहिं ।। राह बारीक गुरुदेव तें पाइए , जनम अनेक की अटक खोले । कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिले , जीव और सीव तब एक तोले ।।

     अनेक जन्मों से इस पिण्ड में अटके थे । यह अटक सूक्ष्म मार्ग के अवलंब से खुलता है । इस संसार से पार होने के लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलंबन करें । सूक्ष्ममार्ग का अभ्यास करने के लिए गुरु से जानो । इससे आखिर में क्या मिलता है ? जीव परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । उसकी प्राप्ति में जो मिठास है , उसको पाकर फिर जीव दुःखी नहीं होता । इस संसार में नहीं आता है । ' फिर आवना नहिं या देश । ' फर्ज करो कि मैं पहली बार यहाँ ( मुरादाबाद ) आया । निशाना था कि मुरादाबाद पहुँचूँ । रास्ते में बहुत शहर से मिले , किंतु वह मुरादाबाद नहीं । सबको पार करता हुआ अब मुरादाबाद पहुंचा हूँ । उसी तरह अपना लक्ष्य परमात्मा में रखो और चलो । कबीर साहब ने कहा - ' उलटि पाछिलो पैंडो पकड़ो । ' इस पिछले पैड़े को पकड़ो । बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ । यह चेतन आत्मा सूक्ष्म तल से स्थूल तल ( पिण्ड ) में आई है । सूक्ष्मतल में जाने को ही ब्रह्माण्ड में जाना कहते हैं । पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चलो , यही उलटना है । सिमटी हुई चीज की ऊर्ध्वगति होती है । सुरत के सिमटाव से उसकी ऊर्ध्वगति हो जाएगी । रास्ता पकड़ने के लिए सत्संग करो । जिसमें श्रद्धा हो , उसको गुरु धारण कर उसके बताए हुए रास्ते पर चलो । सिनेमा की बिजली क्या है ? अपने अंदर एक बार भी देख पाओ तो समझ में आ जाए कि सिनेमा की बिजली कुछ नहीं है । अंदर में तारा देखने से क्या होगा ? मेरे एक मित्र ने कहा । मैंने कहा - ' जिस कर्म के करने में विशेष कष्ट होता है उसको पाकर वह उतना ही सुखी होता है । इस तारे को ( बाहर आकाश के तारे को ) देखने में क्यों , कष्ट है ? गर्दन ऊपर उठाया कि देखा । किंतु अंदर के तारे को देखने में कितना परिश्रम होता है ? सतोगुण को पार कर दोनों भौओं के बीच में तारक ब्रह्म ( ... सत्त्वादि गुणानतिक्रम्य तारकमवलोकयेत् । भ्रूमध्ये सच्चिदा नन्दतेज : कूट रूपं तारकं ब्रह्म । ) का अवलोकन करने के लिए मंडल ब्राह्मण उपनिषद् में वचन आया है । सतोगुण से कैसे पार होंगे ? बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला , रजस्तमो गुणे करि ते छे खेला , मध्ये सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमलाधरधर तारे सादरे । 

     दायें - बायें को रोक कर सुषुम्ना में चलो , सतोगुण को भी पार कर जाओगे । यह परा भक्ति हैश्रवण बिना धुनि सुनै , नयन बिनु रूप निहारे । रसना बिनु उच्चरै , प्रशंसा बहु विस्तारै ।। नृत्य चरण बिनु करै , हस्त बिनु ताल बजावै । अंग बिना मिलि संग , बहुत आनंद बढ़ावै ।। बिनुशीश नवे जहँ सेव्य को , सेवक भाव लिए रहै । मिलि परमातम सौ आतमा , परा भक्ति सुन्दर कहै ।। 

     इसी प्रचार गुरु महाराज करते थे गुरु महाराज की दया से १९०९ ई ० में मुझे विश्वास हुआ । १९०४ ई ० में मैंने स्कूल छोड़ा । इस मार्ग के पहिला मेरे गुरु थे बाबू राजेन्द्रनाथ सिंह वकील । मैंने उनसे पूछा- कैसे विश्वास हो कि तारा अंदर में देखने में आवेगा ? उन्होंने कहा - आकाश के तारे को कैसे देखते हो ? बाहर के तारा की ओर नजर करके देखते हो , उसी तरह उस तारा की ओर भी नजर करो तो देखोगे । ' जौं लग नहिं देखौं निज नैना । तब लग नहिं मानौं गुरु के बैना ।।

     जिस तरह गुरु कहें उस तरह करो , तब नहीं देखोगे तो कहो कि गुरु झूठा है । जैसा गुरु ने कहा , वैसा किया नहीं और कहे कि नहीं है , ठीक नहीं ।० 


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