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S92, Dharm Sumeru Eeshvar ka varnan ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। दि.10-10-1954ई. मुरादाबाद

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 92

 प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ९२ को । इसमें धर्मों में सुमेरु पर्वत की तरह श्रेष्ठ क्या है? इसके बारे में विशेष रूप से बताया गया है।

इसके साथ ही इस प्रवचन, उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष में बताया गया है कि-  Dharmon mein sumeru kya hai? Vishv ka aadi tatv kya hai? Eeshvar Aadi aur Anaadi bhee kaise hai? Eeshvar ka Darshan kaise hota hai? Hamara kya Kam hai? Guru-yukti ka mahatv kya hai? Santo kee drshti mein Eeshvar-bhajan kya hai? Dharm kee Sachchaee kya hai? Ishwar ko Kaun prapt kar sakta hai? Eeshvar kee Upaasana kaise karen? Aankh band karane par andhakaar ke alaava aur kya hai?    इत्यादि बातों के साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें बताया गया है। जैसे कि-   धर्म सुमेरु ईश्वर किस राज्य में है? धर्म सुमेरु ईश्वर कहाँ है? धर्म सुमेरु ईश्वर का दूसरा नाम, धर्म सुमेरु ईश्वर को किसने दिखाया था? धर्म सुमेरु ईश्वर पर्वत का रहस्य, धर्म सुमेरु ईश्वर इन रामायण, सुमेरु का अर्थ, धर्म सुमेरु ईश्वर कहां है? धर्म सुमेरु ईश्वर उत्तराखंड, धर्म सुमेरु ईश्वर पर्वत किस देश में स्थित है, धर्म सुमेरु ईश्वर का वर्णन, धर्म सुमेरु ईश्वर के दर्शन कराए, ईश्वर की कथा, धर्म सुमेरु ईश्वर का दूसरा नाम,   इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 91 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


धर्मों में सुमेरु पर्वत की तरह कौन है? इस पर प्रवचन करते गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज।
धर्मों में सुमेरु पर्वत की तरह श्रेष्ठ कौन है? पर प्रवचन

The description of god sumeru. धर्म सुमेरु ईश्वर का वर्णन

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! जैसे प्रत्येक जाप करने की माला में सुमेरु होता है , वैसे ही संसार में सुमेरु पर्वत सबसे ऊँचा है । उसी तरह धर्मों में सुमेरु ईश्वर की मान्यता है । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--What is Sumeru in religions? What is the beginning element of the world? How is God etc. and eternal? How does one see God? Importance of Guru-Yukti, what is God-Bhajan in the eyes of saints? What is the truth of religion? How to worship God? What other than darkness when you close your eyes?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

९२ . संगत ही जरि जाय न चरचा नाम की


धर्म सुमेरु ईश्वर का वर्णन करते गुरुदेव

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

     जैसे प्रत्येक जाप करने की माला में सुमेरु होता है, वैसे ही संसार में सुमेरु पर्वत सबसे ऊँचा है । उसी तरह धर्मों में सुमेरु ईश्वर की मान्यता है । ईश्वर की मान्यता को हटा दो तो धर्म उथल - पुथल हो जाएगा । धर्म मिट जाएगा । किसी भी धर्म में जहाँ ईश्वर की मान्यता नहीं है , वहाँ धर्म - भाव अवश्य डगमग रहेगा । संतों में उसकी मान्यता बहुत बड़ी हैसंत कबीर साहब कहते हैं संगत ही जरि जाय , न चरचा नाम की । दूलह बिना बारात , कहो किस काम की । 

     ईश्वर की मान्यता को केवल कहा ही नहीं है कि मान लो और बुद्धि से कुछ काम मत लो । बुद्धिगम्य बात यह है कि सोचने - विचारनेवाले जान सकते हैं और निर्णय कर सकते हैं कि इस विश्व का आदि तत्त्व अवश्य है वह आदि तत्त्व ऐसा नहीं कि थोड़ा ही हो , व्यापक न हो । जो व्यापक नहीं होगा , थोड़ा ही होगा अपना तल थोड़ी दूर में समाप्त कर लेता है । तो दूसरे कहेंगे कि उस तल के बाद में क्या है ? इस प्रकार कम समझी के साथ संतों ने नहीं कहा है । उन्होंने कहा है जैसे संत बाबा नानक के वचनों में है  अलख अपार अगम अगोचरि , ना तिसुकाल न करमा ।। 

     अपार शब्द का व्यवहार किया । उपनिषद् वाक्यों में भी है वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपंप्रतिरूपो बभूव । एकस्तथासर्वभूतान्तरात्मारूपंरूपंप्रतिरूपोबहिश्च ।

      वह ऐसा है जैसा वायु प्रत्येक के अन्दर भी है और बाहर भी है । सबके अंदर और सबके बाहर के तत्त्व पर सोचने से अपार तत्त्व हो जाता है । वह आदि तत्त्व अनादि - अनंत है ऐसा विचार में भी निर्णय होता है । जो स्वरूपतः अनादि - अपरिमित है तो उसकी शक्ति भी अपार अपरिमित हो तो क्या संदेह है ? अपरिमित , शक्तियुक्त , आदि और अनादि भी । सबसे पहले का इसलिए आदि और उसका कहीं कभी आदि नहीं - इसलिए अनादि उसको सर्वेश्वर कुल्ल मालिक मानते हैं । इस ईश्वर का ज्ञान देते हुए संतों ने कहा कि उसका दर्शन आँख से नहीं कर सकते । उसे हाथ से नहीं पकड़ सकते । वह इन्द्रियों के ज्ञान से परे है , इसलिए ' अगम अगोचर शब्द कहा । यह कह कर उन्होंने कहा - तुम अपने शरीर और इन्द्रियों से भिन्न पदार्थ अपने शरीर के अंदर रहते हो । इन्द्रियों को छोड़कर तुम क्या कर सकते हो? क्या पहचान सकते हो? इसको नहीं जानते हो। तुम्हारा काम ईश्वर की पहचान करना है । इन्द्रियों से ईश्वर की पहचान करना चाहो तो यह ज्ञान अपूर्ण है । प्रेममय गाना को गाना , उसके विचार में तल्लीन होना , केवल इतना ही बस नहीं है । आत्मज्ञान को विचार से विचार लो , सुन लो , समझ लो ; किंतु कहोगे कि पहचान नहीं हुई । जाना , किंतु पहचाना नहीं । तुलसी साहब का आदेश है हिय नैन सैन सुचैन सुंदरि साजि स्रुति पिउ पैचली । 

     पिय के पास चलो । चलने के लिए अंतर - दृष्टि का सहारा लो । सहारा कैसे लिया जाए ? केवल ख्याली पोलाव नहीं है , जिससे पेट नहीं भरता । यह कैसे होता है ? यह गुरुगम्य है । जैसे कोई महिला अपने रूप को बनाती है और पति से मिलने के लिए जाती है , उसी प्रकार जीवात्मा अपने को अंतर - दृष्टि से सजाकर ईश्वर से मिलने के लिए जाती है और इसकी युक्ति गुरु होती है । अन्न - अन्न कितनाहू कहो , किंतु बिना भोजन किए पेट नहीं भरता । इसी तरह ज्ञान की बातें कितनी ही कहो , इससे ज्ञान के पद तक पहुँचा नहीं जाता और न संतुष्टि होती है । जो ईश्वर सर्वव्यापी है , उनको पहचानने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं , यदि ऐसा कोई कहे तो वे सज्जन अपने हृदय पर हाथ रखकर कहें ' सर्वेश्वर सर्वेश्वर कहते - कहते कभी उनको प्रत्यक्ष हुआ ? ' मिट्टी में पानी अवश्य है , किंतु बिना खोदे नहीं मिलता । मिट्टी खोदते - खोदते पानी तक जाओ , तभी पानी पाओगे । उसी तरह तुम अपने अंदर धंसो तो सर्वेश्वर को पाओगे । इसी को ' सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर और अक्षर पार में । निर्गुण सगुण के पार में . ......।। '

     वाले भजन में कहा गया । किसी सज्जन ने मुझसे कहा - ' सब पार में ही है , इधर नहीं है ? ' मैंने कहा - ' इधर भी है , किंतु उसे पहचान नहीं सकते । उधर अर्थात् मायिक आवरणों से पार जाकर ही पहचान करेंगे । ' ईश्वर को पार नहीं किया जाता । सृष्टि के तत्त्वों को जिधर पार करो ( उत्तर , दक्षिण , पूरब , पश्चिम ) उधर ही मिल जाएँगेइन तत्त्वों को पार करना ही कठिन मसला है । मेरे सामने सृष्टि के तत्त्व हमेशा रहते हैं । इसीलिए उपनिषद् में है जिस इस ( देशकालाविच्छिन्न वस्तु ) की लोक उपासना करता है , वह ब्रह्म नहीं है । यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम् । तदेव ब्रह्मत्वं विद्धिनेदं यदिदमुपासते ।। -केनोपनिषद् 

     यह जो भूतल है , एक महान टापू है । कई महादेश हैं , सब मिलाकर महान टापू है । इन सबको जिधर पार करो , उधर ही जल है । उसी तरह सृष्टि के तत्त्वों को जिधर पार करो , उधर ही ईश्वर है । ईश्वर का स्वरूप और उसका ज्ञान ऐसा देकर संतों ने कहा है - ईश्वर का भजन करो । भजन वही है , जिससे सृष्टि के सब तत्त्वों को पारकर ईश्वर को पहचाना जा सके इसी को हमलोग समझते , सोचते और विचारते हैं । मायिक तत्त्वों से ही मनुष्य - पिण्ड बना है । जिसमें सतगुरु बाबा देवी साहब ने चौदह दर्जे बताए हैं । मूलाधार से आज्ञाचक्र तक छह और उसके ऊपर आठ दर्जे मानते हैं । इन चौदहों दर्जे में आप चलें तो धर्म की सचाई मापने में आ जाएगी । उन्होंने कोई खास किताब नहीं लिखी तुलसी साहब की घटरामायण उन्होंने छपवायी , उसकी भूमिका में यह लिखा है । हमलोगों को चाहिए कि ईश्वर की उपासना अंतर्मुख होकर करें । उपनिषद् में बड़ा अच्छा लिखा है ना विरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः । नाशान्तो मानसोवापिप्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ -कठोपनिषद् 

     जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है , जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है , वह इसे  आत्मज्ञान द्वारा  प्राप्त नहीं कर सकता है पाप करनेवाला विषयों में लसका हुआ रहता है । जो अपने को पापों से छुड़ावे , वही उसको पा सकता है । पापों से छूटने के लिए संतों ने कहा है - झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार मत करो । इनसे छूटने की ताकत आपमें तब होगी , जब आप इनसे बचने के लिए कोशिश करेंगे और आप की चढ़ाई ऊपर होगी । इन दोनों प्रकारों की कोशिश होनी चाहिए । इसलिए ' नाम का तेल सुरत की बाती , ब्रह्मअगिन उद्गारु रे ।

     आँख बंदकर देखो और सोचो कि मैं कहाँ हूँ ? आपको उत्तर आवेगा – मैं अंधकार में हूँ इसमें क्या मिलेगा ? अंधकार में क्या मिलेगा ? भगवान बुद्ध ने कहा - ' अंधकारेन ओनद्धा प्रदीपं न गवेस्सथ ।

     अंधकार में पड़े हुए तुम प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते ? कोई कहे मैं तो विद्वान हूँ , मैं अंधकार में कहाँ हूँ ? तो आप आँख बंदकर देखिए , अंधकार मिलेगा । आपके अंदर प्रकाश का तल भी है । अंधकार के तल को पार कीजिए , फिर प्रकाश का तल मिलेगा । तब ' जगमग जोत निहारु मंदिर में संत कबीर साहब की यह वाणी चरितार्थ होगी । यह कोई गप की बात नहीं है । सब कोई अभ्यास कीजिए, प्रत्यक्ष होगा


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 93 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि धर्मों में सुमेरु क्या है? विश्व का आदि तत्व क्या है? ईश्वर आदि और अनादि भी कैसे है? ईश्वर का दर्शन कैसे होता है? गुरु-युक्ति का महत्व, संतो की दृष्टि में ईश्वर-भजन क्या है? धर्म की सच्चाई क्या है? ईश्वर की उपासना कैसे करें? आंख बंद करने पर अंधकार के अलावा और क्या है? । इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। 




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S92, Dharm Sumeru Eeshvar ka varnan ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। दि.10-10-1954ई. मुरादाबाद S92, Dharm Sumeru Eeshvar ka varnan ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। दि.10-10-1954ई. मुरादाबाद Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/26/2020 Rating: 5

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