महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 95
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ९५वां, को । इसमें आस्तिक, नास्तिक और ईश्वर प्राप्ति के सुख के बारे में विशेष रूप से बताया गया है।
इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- santamat aur logon ke vichitr vichaar, aastik aur naastik kaun hai? agun ka arth, akhand, alakh aj aur moksh ka varnan, nirgun brahm aur sagun brahm ka bhed, karn ke kavach daan kee katha, eeshvar praapti ka sukh kaisa hota hai? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- aastik ka arth, aastik in hindee, aastikata ka arth, aastik vichaaradhaara, naastik ka arth, aastik maianing, naastik vyakti ke lakshan, naastik vichaaradhaara, naastik ka matalab, naastik kee paribhaasha, naastik ka paryaayavaachee, naastik kise kahate hain, paramaatma se milane ke upaay, ishwar ki prapti, kaun hai naastik? aastikata aur naastikata kya hai, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! आपलोगों को यह विदित हुआ है कि अखिल भारतीय संतमत सत्संग का यह वार्षिक अधिवेशन यहाँ हो हा है । और कल्ह से ही हो रहा है और कल्ह समाप्त होगा । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----Who is a believer and an atheist? The meaning of Aguna, the description of Akhanda, Alakh Aj and Moksha, the distinction of Nirguna Brahma and Saguna Brahma, the story of donating the armor of Karna, how is the happiness of attaining God?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
९५ . जो कोई निर्गुण दरसन पावै
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
आपलोगों को यह विदित हुआ है कि अखिल भारतीय सन्तमत - सत्संग का यह वार्षिक महाधिवेशन यहाँ हो रहा है । और कल से ही हो रहा है और कल समाप्त होगा । मुझे जानने में आया है कि कुछ लोग कुछ विचित्र सा मानते हैं कि सन्तमत कौन - सी बात है ? तो मैंने सोचा , यह प्रश्न तो उन्हीं के अन्दर उठ सकता है जो संत का अर्थ और मत का अर्थ नहीं जानते । और यह शब्द पहले व्यवहत हुआ है कि नहीं , यह उनको मालूम नहीं है । और इस मत में ईश्वर की मान्यता है कि नहीं ? यह प्रश्न तो और विचित्र है । जो संतवाणी का पाठ नहीं किये होंगे , नहीं सुने होंगे , वे ऐसी बात कहें, तो ठीक ही है । मैं उस विद्यालय में आज हूँ , जहाँ से मैंने इस विद्या की शिक्षा पायी है । गुरु महाराज अताई मुहल्लं में विराजते थे । सन् १९०९ ई ० में मैं यहाँ आया था । वहाँ सत्संग हुआ करता था । ताज्जुब की बात कि मैं कहाँ पुरैनियाँ जिला बिहार प्रान्त के पूर्व उत्तर के अंत में और यहाँ मुरादाबाद युक्त प्रान्त के उत्तर - पश्चिम के अन्त भाग के निकट । इतनी दूर के फासले में मैं सन्तमत के बारे में जानता हूँ और खास मुरादाबाद में इसकी चर्चा हो कि सन्तमत क्या चीज है ? विचित्र बात है । १९०९ ई ० से अब तक शायद ५-६ वर्ष यहाँ नहीं आया हूँ । और तो मैं प्रत्येक वर्ष यहाँ आया हूँ । जब गुरु महाराज थे , तब मैं यहाँ साल - साल आता था । कभी - कभी तो साल में दो बार भी आया । इस वर्ष भी मैं दो बार आया हूँ . जनवरी में और इस बार अक्टूबर में । बात यह है कि सन्तमत परम आस्तिक मत है। ईश्वर की मान्यता जिस मत में नहीं है , ' ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ।। '
जहाँ नहीं है , वह नास्तिक है । किन्तु यहाँ तो ये दोनों हैं ही । हाँ , ईश्वर का बोध होने में लोगों को कठिनाई होती है । ईश्वर के लिए जो अनेक नाम - सतनाम , शिव , राम , कृष्ण आदि हैं ; इस बात को बहुत लोग जानते हैं । किन्तु स्वरूप नहीं जानते । स्वरूप का अर्थ निजरूप । इस निजरूप को लोग नहीं समझते ।अगुन अखंड अलख अज जोई । भगत प्रेमवम सगुन सो होई । उमा राम विषयक अस मोहा । नम तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥ राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह ।। रामचरितमानस )
इन चौपाइयों से ईश्वर - स्वरूप का विचार सार रूप में मिलता है । मूल में ' अगुन अखंड अलख अज ' है । अगुण का अर्थ गुणातीत न कि सम्पूर्ण विशेषणों से रहित । सम्पूर्ण विशेषणों से रहित का वर्णन नहीं हो सकता । राम, ब्रह्म , परमात्मा कहने से कुछ - न - कुछ विशेषण आ ही जाता है । इसलिए सम्पूर्ण विशेषणों से रहित मानना हो नहीं सकता । किन्तु सत् , रज , तम से रहित मानना ठीक है । अखण्ड अर्थात् जिसका खण्ड नहीं हो सकता । अलख अर्थात् इन्द्रियातीत । अज- जो उत्पन्न नहीं हुआ हो, जो हई है कहीं से आया नहीं , हुआ नहीं इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर , बुद्धि के ज्ञान से भी ऊपर है । यह किसी कारणवश प्रकट और इन्द्रियगोचर होता है, भक्त के प्रेमवश होकर सगुण रूप धारण करता है । प्रश्न होता है - ' जो गुण रहित सगुन सो कैसे । ' तो शिवजी उत्तर देते हैं - ' जल हिम उपल बिलग नहिं जैसे ।। ' जल , हिम , उपल तत्त्व रूप में अलग - अलग पदार्थ नहीं , सब एक ही है । किन्तु आज तक यहाँ किसी ने नहीं जाना है कि संसार का सम्पूर्ण जल पाला है या उपल ? जो आकाश से गिरता है , पानी है । किन्तु पानी से पाला और ओला रूपान्तर दशा में है । पानी से खेती सींची जाती है , किन्तु ओला और पाला से खेती का नाश होता है । सम्पूर्ण जल कभी हिम या उपल नहीं होता , उसी तरह सम्पूर्ण अगुण , अखण्ड , अलख , अज कभी सगुण नहीं हो सकता है । इतना बड़ा कभी कोई मन्दिर नहीं हो सकता है , जिसमें सम्पूर्ण आकाश अँट . जाय । मन्दिर में आकाश व्यापक है अवश्य , किन्तु सम्पूर्ण आकाश उसमें अँट नहीं सकता । उसी प्रकार जो स्वरूपतः अपार है , वह परिमित हो जाय , यह बुद्धि में अटने के काबिल बात नहीं है । श्रद्धा से मान लें ॥ तो उसको कौन रोक सकता है ? संतों ने परमात्मा के उम स्वरूप को लखाया है । उस म्वरूप को पकड़ो , तो मोक्ष हो जाएगा । लोग कहते हैं कि जो हाथ से पकड़ने, आंख से देखने योग्य नहीं, उससे प्रेम कैसे करें? उसमें अपना मन कैसे लगावें। लोग अपनी कमजोरी दिखलाते हैं । संतमत कहता है-- तुम कुछ और सुनो... समझो । तब कहोगे ठीक मैं उससे प्रेम कर सकता हूं। उसे प्राप्त कर सकता हूं । यदि कहें कि सगुण से ही काम चल जाएगा , निर्गुण की क्या आवश्यकता , तो गांस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धरेउ तनु भृप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ॥ जथा अनेकन वेप धरि , नृत्य करइ नट कोड । सोइ सोइ भाव दिखावइ , आपुन होइ न सोई ॥
और निर्गुण स्वरूप के लिए कहते हैं प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी । ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।। इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रवि सनमुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥
रामचरितमानस का वर्णन करते हैं तो कहते हैं - कथा - रूप जल है , जल में स्वच्छता और मिठास सगुण का वर्णन है । गंभीरता चाहिए तो कहते हैं रघुपति महिमा अगुन अवाधा । वरनव सोइ वर वारि अगाधा ॥
यह निर्गुण महिमा है । जहाँ तक कहना चाहिए कह देते हैं । गोस्वामीजी की दोहावली पढ़िये तो हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन , रसना राम सुनाम । मनहु पुरट संपुट लसत , तुलसी ललित ललाम ।
हृदय में निर्गुण है और आँख में सगुण बेचारी आँख की सगुण के आगे गति ही नहीं है , करे तो क्या ? फिर कहते हैं ' रसना राम सुनाम ' यह कैसे हुआ ? मानो सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न हो । हृदय में निर्गुण है , आँख में सगुण और जिभ्या पर सुन्दर राम नाम है । यह क्या हुआ ? मेरी समझ से सगुण सोने का डिब्बा है और उसके अन्दर ' ललित ललाम ' निर्गुण है । वह उसमें शोभा पा रहा है । उसी तरह मेरे हदय में निर्गुण है और आँख से सगुण को देखता हूँ । यह भाव ईश्वर मानने का है । जो लोग यह कहते हैं कि निर्गुण में अपने को कैसे सटावें , इन्द्रियों से मैं मिला - जुला हूँ । इसका उत्तर है कि तुम ईश्वर के अंश हो । यदि तुम अपने को ईश्वर का अंश मानते हो , तो भी तत्त्वत : वही हो । शरीर का जन्म हुआ है यह वैसे हुआ है जैसे कोई घट बन जाय । यहाँ सत्संग - घर नहीं था , घर बन गया । घर के अन्दर शून्य है , शून्य के अन्दर घर है । ईट और पत्थर के जुड़ जाने से घटाकाश और मठाकाश के हो जाने से आकाश नहीं टूट जाता । जब आप कहते हैं कि मेरी आँख और मेरा पैर , आप आँख और पैर नहीं हैं । जैसे कहते हैं कि मेरा कुरता है , तो आप कुरता नहीं हैं । आप अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक् जानते ही हैं और पृथक् भी कर सकते हैं , यह आपके लिए असंभव नहीं अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक करके ही कैवल्य दशा में सन्तों ने परमात्म - स्वरूप को पाया था और इसी दशा में अपने को लाकर उन्होंने परमात्मा को प्राप्त करने की शिक्षा दी है । शरीर और इन्द्रियों से अपने को छुड़ाने में कोई आपदा नहीं है । इसके लिए संतों की सुगम रीति जानकर ईश्वर की भक्ति का अभ्यास करना चाहिए ।
कर्ण कैसा वीर था कि कवच लिए जन्म लिया था । शरीर बढ़ता था तो कवच भी बढ़ता था । वह सदा कवच के साथ रहता था अर्जुन से उसका युद्ध होगा , अर्जुन उसका संहार करेगा , किन्तु कवच सहित उसका संहार नहीं कर सकता है । इन्द्र का पुत्र अर्जुन था इसलिए उसको हुआ कि किसी तरह कर्ण का कवच लेना चाहिए । सूर्य का पुत्र कर्ण था । सूर्य ने कर्ण से कहा था कि इन्द्र तुम्हारा कवच कुण्डल माँगने आवेगा , तुम नहीं देना । नहीं तो तुम मारे जाओगे । कर्ण ने कहा- माँगने आवेगा , तो कैसे नहीं दूंगा ! इन्द्र एक भिक्षुक के रूप में आये । वे कहते हैं , हम तुमको जाँचनं आये हैं , तुम अपना कवच उतारकर मुझे दे दो । देह से सटा हुआ उसका कवच था । जन्म से ही था । देह से सटे को तलवार से काटकर बह दे देता है । आज भी इस दान के लिए उसकी प्रसिद्धि है । इस कर्म में उसका रक्त भी बहा होगा और उसको कप्ट भी हुआ होगा ।
किन्तु अपने को शरीर से , इन्द्रिय से और मन से फुटा लेने में रक्त भी नहीं बहेगा और न कोई कष्ट होगा । तुम अंश हो , अपने अंशी में अपने को मिलाओ तो इसमें क्या कष्ट है ? अपने सम्पूर्ण शरीर को आँख से देखते हो और आइने में अवलोकन कर आँख को आँख से देखते हो । इसी तरह जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन होता है और जैसे त्वचा के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से ही होता है , उसी तरह जीवात्मा से परमात्मा के मिलन का ज्ञान होता है । उसका सुख कैसा है , तो सूरदासजी कहते हैं अविगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गूंगहििं मीठे फल को रस अन्तर गत ही भावै ।। परम स्वाद सबही जू निरन्तर अमित तोष उपजावै । मन बानी को अगम अगोचर सो जान जो पावै ।
परमस्वाद - अलौकिक स्वाद है . सांसारिक स्वाद नहीं । जबसे वह स्वाद मिले . तब से वह बराबर बना रहेगा । स्वाद हो तुष्टि नहीं , सो नहीं । स्वाद के सहित अत्यन्त तुष्टि होती है । गो ० तुलसीदासजी जिस तरह श्रीराम के उपासक थे , उसी तरह सूरदासजी श्रीकृष्णा के उपासक थे । इन्होंने भी सगुण का वर्णन करते हुए निर्गुण का वर्णन किया है । निर्गुण के लिए तो सूरदासजी कहते हैं रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्य मन चकृत धावै ।......शेष प्रवचन दूसरे भाग में।
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि संतमत और लोगों के विचित्र विचार, आस्तिक और नास्तिक कौन है? अगुन का अर्थ, अखंड, अलख अज और मोक्ष का वर्णन, निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म का भेद, कर्ण के कवच दान की कथा, ईश्वर प्राप्ति का सुख कैसा होता है? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S95, (क) Believer, Atheist and God Receiver ।। महर्षि मेंहीं वचनामृत ।। अपराह्न दि.11-10-1954ई.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
9/28/2020
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