Ad1

Ad2

S68, Where is brahmalok, indralok and golok ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 31-03-1954ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 68

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ६८ के बारे में। इसमें बताया गया है कि  ब्रह्मलोक, इंद्रलोक और गोलोक कहां है? ब्रह्मा, विष्णु और महेश में बड़ा कौन है? त्रिवेणी स्नान कैसे करें, जिससे पापों का नाश हो जाए? असल में परमात्म- दर्शन क्या है?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  सत्संग क्या सिखाता है? संसार का विस्तार कहां तक है? देश-काल से परे कौन है? दैहिक, दैविक, भौतिक और मानसिकता ताप का कारण क्या है? ईश्वर-परमात्मा कैसा है? संतमत क्या बताता है? पौराणिक संस्कृत ग्रंथों और आधुनिक संतो का एकमत क्या है? ब्रह्मलोक, इंद्रलोक और गोलोक कहां है? ब्रह्मा, विष्णु और महेश में बड़ा कौन है?  सभी दुखों का नाश कैसे होता है? त्रिवेणी स्नान कैसे करें, जिससे पापों का नाश हो जाए? असल में परमात्म- दर्शन क्या है?     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- गोलोक धाम कहां है, बैकुंठ लोक कहा है, गोलोक का वर्णन, गोलोक का अर्थ,परमधाम गोलोक, बैकुंठ धाम कहां पर स्थित है, साकेत लोक, बैकुंठ का अर्थ, बैकुंठ की परिभाषा, वैकुण्ठ का अर्थ, ब्रह्मलोक कहां है? Golok Dham, ब्रह्मा, विष्णु महेश में सबसे बड़ा कौन है, ब्रह्मा विष्णु महेश किसकी भक्ति करते हैं, शिव और विष्णु में बड़ा कौन; ब्रह्मा, विष्णु महेश के पिता,ब्रह्मा, विष्णु महेश के कार्य, संसार में सबसे बड़ा देवता कौन है, शिव और विष्णु में कौन श्रेष्ठ है, ब्रह्मा, विष्णु महेश के दादा कौन है, विष्णु की उत्पत्ति कैसे हुई, सबसे बड़ा भगवान कौन  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 67 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

देवों का निवास कहां है पर प्रवचन करते गुरुदेव
देवता लोग कहां रहते हैं?

Where is brahmalok, indralok and golok

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! हमलोग जितने हैं , सब - के - सब बन्धन में पड़े हैं । हमारे ऊपर शरीर और संसार का बंधन है..... इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What does satsang teach? How far does the world extend? Who is beyond the country? What is the reason for physical, divine, physical and mental warming? How is God? What does Santmat say? What is the consensus of mythological Sanskrit texts and modern saints? Where is Brahmlok, Indralok and Goloka? Who is older than Brahma, Vishnu and Mahesh? How does all suffering end? How to take a Triveni bath so that sins are destroyed? Actually, what is divine philosophy?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

६८. नैतिकतापूर्वक उपार्जन करो 

देवता संबंधित चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

प्यारे लोगो ! 

     हमलोग सत्संग मे इसलिए एकत्र होते हैं कि हम यह समझ सकें कि यही संसार जो कुछ है , वही है या इससे परे और कुछ है ? यदि संसार है और इसके परे कुछ नहीं है , तो संसार में रहने के लिए अच्छी तरह रहें । इसके लिए परिश्रम से धन संग्रह करें । धन - संग्रह करने का अर्थ ठगी , बेइमानी या अनैतिक रूप से नहीं । अनैतिक रूप से संग्रह होने पर राजनीतिक दण्ड , सामाजिक दण्ड और दुर्नाम भी होता है । । इस प्रकार का दण्ड और दुर्नाम जीवन के लिए बहुत बुरा है चाहिए कि नैतिकतापूर्वक परिश्रम करके धन का उपार्जन करें । 

     यदि संसार के परे कुछ समझो , जैसा कि संतलोग कहते हैं , तो ठीक है । जितना आप संसार देखते हैं , उतना ही यह संसार नहीं है । जैसे जितना आकाश आप देखते हैं , उतना ही आकाश नहीं है उससे भी बहुत विशेष है । यह तो मोटा संसार है । इस मोटे संसार के परे दूसरा संसार भी है , जिसे आप इस दृष्टि से भी नहीं देख सकते । यह स्थूल दृष्टि स्थूल तल के पदार्थों को देखती है । सूक्ष्म तल पर यह दृष्टि काम करे , संभव नहीं । स्थूल संसार के परे सूक्ष्म संसार है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म रचना जहाँ तक है , वहाँ तक संसार है । इसका वर्णन करने से बहुत होगा ; किंतु साधारणतः इसको दो रूपों में मानिए । एक वह , जिसको आप स्थूल दृष्टि से देखते हैं और दूसरा वह , जिसको आप इस दृष्टि से भी नहीं देख सकते । जिसको आप दिव्य दृष्टि से नहीं देख सकते , वह संसार से परे है। संतलोग कहते हैं कि संसार के परे कुछ है और वही असल है । वह हई है । उससे पहले कुछ था ऐसा नहीं । वह सदा से है ।

     समय के ज्ञान से पहले का है । समय का ज्ञान संसार से परे में नहीं है। स्थान का ज्ञान भी संसार में ही होता है । शास्त्रों में देश - काल कहा गया है । देश - काल के परे उत्कृष्ट पदार्थ को संतों ने ईश्वर , परमात्मा कहा है । उसे अनेक नामों से पुकारते हैं ; जैसे- ईश्वर , परमात्मा , खुदा , गॉड , अल्लाह आदि । वह सदा से है उसका अभाव कभी नहीं हो सकता । 

     संतों ने कहा कि संसार में आप पूर्ण रूप से सुखी रहेंगे , संभव नहीं । यहाँ कभी दैहिक , कभी दैविक और कभी भौतिक ये तीनों ताप होते रहते हैं । इनके बाद मानसिक ताप भी होता है । करोड़ों रुपये हाथ में हैं , पलंग पर सोए हैं ; किंतु कोई चिन्ता की बात हो जाती है, तो चैन नहीं मिलता । उपयुक्त चार प्रकार के तापों से धार्मिक भी तपते हैं और अधार्मिक भी तपते हैं ; बल्कि अधार्मिक भाव से बरतने पर और विशेष रूप से तपते हैंसंसार में रहना , संसार को पहचानना और संसार के परे को नहीं पहचानना , इससे मनुष्य की बहुत बड़ी हानि होती है । इससे विशेष और कोई हानि नहीं हो सकती । इस हानि से बचने के लिए संतों ने कहा कि संसार के परे परमात्मा को जानो । संसार में रहकर चारो तापों से तपते रहते हो । परमात्मा को प्राप्त करो , तो सब ताप दूर हो जाएँगे । 

     परमात्मा के लिए लोगों में साधारणतः दो प्रकार के ख्याल हैं । एक ख्याल है कि परमात्मा व्यक्ति रूप में शरीरधारी चाहे मनुष्य शरीरधारी , चाहे देवरूपधारी रूप में हैं अथवा इन दोनों के परे विराट रूप वाला है । दूसरे का ख्याल है कि परमात्मा व्यक्त में नहीं है । वह किसी तरह किसी आधार पर अवलंबित नहीं है । विराट रूप लो , नरसिंह रूप लो या विष्णु रूप को लो - ये धरती पर खड़े हैं । किसी स्थान का अवलंब लेकर रहनेवाला ईश्वर नही है । कोई कहे कि आकाश में है , तो आकाश में वायु ही उसका अवलंब है । यदि सूक्ष्म रूप मण्डल का रहनेवाला माना जाय , तो वह मण्डल उससे बड़ा हो जाता है , वह मण्डल ही उसका आधार हो जाता है । किंतु वह परमात्मा आकाश या मूल प्रकृति आधार पर नहीं रहता । मतलब यह कि उसमें स्थान और स्थानीय - इन दोनों का भेद नहीं है । जो किसी आधार का आधेय नहीं , जो सबके आदि का है , वह ईश्वर- परमात्मा है । जो सबसे पहले का है , उसको मूल प्रकृति मण्डल में रहनेवाला माने , तो वह उस मण्डल के अंदर हो जाएगा । इस प्रकार वह मण्डल उससे बड़ा हो जाएगा । ऐसा परमात्मा नहीं होता । जो सावलंब है , वह जिस आधार पर रहता है , जैसे पाँच तत्त्व यानी आकाश से लेकर मिट्टी तक जितने तत्त्व हैं , सब एक के आधार पर दूसरे हैं । इन पाँच तत्त्वों के अंदर आप आकाश को लीजिए तो आकाश निराधार है । चारो मण्डलों से आकाश मंडल बड़ा है । मतलब यह कि जिस मण्डल के अंदर कोई या कुछ रहता है , तो वह रहनेवाला उस मंडल से छोटा होता है । यदि परमात्मा किसी मण्डल में है , तो वह मण्डल परमात्मा से बड़ा हो जाएगा, तो वह मण्डल असीम हो जाएगा और परमात्मा ससीम हो जाएगा । किन्तु तर्क - बुद्धि ऐसा मंजूर नहीं करती । संतों ने कहा कि वह परमात्मा कभी आधेय नहीं हुआ । विराटरूप कहने पर उसको भी किसी-न-किसी मण्डल में रहना पड़ेगा । अर्जुन जिस विराट रूप को देखता था , वह विराट रूप और अर्जुन - दोनों ही उसी मण्डल में थे और बीच में कुछ फाँक भी था । ससीम - असीम पर शासन करे , कब संभव है ? इसलिए संतों ने बताया कि परमात्मा वह , जो अपनी सीमा नहीं रखता । वह किसी मण्डल में आ नहीं सकता । वह सबमें है और सबसे न्यारा भी है । संत कबीर साहब ने कहा "है सबमें सबही तें न्यारा । जीव जन्तु जल थल सबही में , शब्द वियापत बोलनहारा । सबके निकट दूर सबहीते , जिन जैसामन कीन्ह विचारा ।। कहै कबीर सुनो भाई साधो , शब्द गहे सो हंस हमारा ।। "

     जैसे संसार में हमारा योग हो गया है - संबंध हो गया है , उसी तरह हम परमात्मा से योग करें - संबंध करें । संसार में संबंध करने से आपकी क्या हालत है , देखें । अब परमात्मा से संबंध करके देखिए कि क्या होता है ? संबंध करने की विधि क्या है , इसी को बताने के लिए संतमत है । परमात्म संबंधी ज्ञान देने के लिए संतों का उपदेश है । यह ज्ञान वेद - पुराणों में मौजूद है और संतों ने भी यही बात कही है । यदि कोई यह कहे कि यह ज्ञान नवीन है , पहले यह ज्ञान नहीं था , तो ऐसा कहना पुराने ग्रंथों का अनादर करना है । जो कहते हैं कि वेद में सब ज्ञान है और जब वे ही कहें कि यह ज्ञान नवीन है , तब वे वेद की मर्यादा को घटाते हैं । संस्कृत ग्रंथों में और हमारी भारतीय भाषा में भी यह ज्ञान है । कलिकाल के संतों की पोथी में भी यह ज्ञान है । यदि वे कहें कि पहले के ग्रंथों में यह बात नहीं थी , तो इतना अवश्य कहेंगे कि उनको इस बात का ज्ञान नहीं था कि पहले की पुस्तकों - ग्रंथों में क्या था ?

     परमात्म - ज्ञान के लिए ग्रंथों में बताया गया है कि इन्द्रियातीत पदार्थ ही परमात्मा है।  गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।। -रामचरितमानस 

     किसी मायिक रूप के दर्शन को परमात्म - दर्शन नहीं कहा जा सकता । ब्रह्मा का देश , इन्द्रलोक , गोलोक आदि सभी लोक संसार के अंदर हैं इन लोकों में रहने पर पूर्ण सुख नहीं है । इन सब स्थानों में भी चारो ताप लगे रहते हैं । वैकुण्ठ और गोलोक में भी कष्ट आता है । भृगु जी- ब्रह्मा , विष्णु और महादेवजी को जाँचने के लिए गए कि देखें इन तीनों में कौन बड़ा है ? ब्रह्मा और शिव तो आवेश में आ गए ; किंतु उन्होंने भगवान विष्णु की छाती में लात मारी , तो लात मारने पर भृगुजी को विष्णु की गंभीरता मालूम हुई । इनमें से किसी स्थान में पूर्ण शान्ति नहीं है ।  ज्ञानी जानता है कि माया में निर्माया व्यापक है ; किंतु जानने मात्र से ही उसकी पहचान तो होती है नहीं । भगवान ने नारद को विश्वरूप का दर्शन देकर कहा था - ' तुम जो मेरे रूप को देख रहे हो , यह मेरी उत्पन्न की गई माया है । ' जो संसार से पहले का पदार्थ है , उसको पाए बिना सुखी नहीं हो सकते । अर्जुन ऐसे वीर को अभिमन्यु के मरने पर भारी कष्ट हुआ था , जिसकी वीरता में अत्यंत प्रसिद्धि थी । वह अर्जुन साधारण लोगों की लाठी से बेहोश हो गया । दोभुजी , चतुर्भजी , बहुभुजी - इन तीनों प्रकार के रूपों के दर्शन अर्जुन को हुए थे । किंतु यह परमात्मा का दर्शन नहीं । संतों के विचार के अनुकूल परमात्मा वह है , जिसको आप इन्द्रियों से पहचान नहीं सकते । जिसको आप इन्द्रियों से पहचानते हैं , वह माया है । स्वाद जिभ्या का विषय है । स्पर्श त्वचा का विषय है । उसी प्रकार चेतन आत्मा का विषय परमात्मा है संतों ने कहा कि ऐसी कोशिश करो , जिससे परमात्मा को प्राप्त कर लो । अपने जाकर दर्शन करो । ऐसा नहीं कि वे आकर दर्शन देंगे । हम चलकर वहाँ जायें । शरीर के अन्दर - अन्दर चलें । यह मार्ग ऐसा है कि स्थूल इन्द्रियों को , सूक्ष्म इन्द्रियों को और प्रकृति मण्डलों को पार करेंगे , तब अकेले होंगे और तभी परमात्मा को पहचानेंगे । मन के मण्डल को पार करें , जड़ प्रकृति मण्डलों को पार करें , तब अपनी चेतन आत्मा से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे । दृष्टि इतनी सिमटे कि सभी इन्द्रियों से बिल्कुल छूट जाएँ । अन्दर - अन्दर चलने पर जाग्रत , स्वप्न - दोनों छूट जाते हैं ; सुषुप्ति भी छूट जाती है । ऐसा आप हो जाएँ कि बाहर का ज्ञान आपको कुछ न रहे । आप स्थूल इन्द्रियों से ऊपर शिवनेत्र - तीसरे तिल में ठहरिए , तो आपको ज्योतिर्मय शिव के दर्शन होंगे , जैसा कि योगशिखोपनिषद् में लिखा है विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् । देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।। 

     विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है । इस शरीर को शिवालय कहते हैं । सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है , मुक्ति मिलती है । यदि कहो कि नाद क्या है , तो जहाँ विन्दु है , वहाँ नाद है । ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है बीजाक्षरं परम विन्दुनादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि : शब्दं परमं पदम् ।। -ध्यानविन्दूपनिषद्

     आप अपने को एक जगह - केन्द्र पर स्थिर कीजिए । पूर्ण सिमटाव होगा तो नाद खुल पड़ेगा । वहाँ ज्योतिर्मय विन्दु देखिएगा और ज्योतिर्मय नाद सुनिएगा । यदि कहिए कि नाद तो नाद ही है , फिर ज्योतिर्मय नाद कैसा ? तो उत्तर है कि अंधकार का शब्द काला और ज्योति के शब्द को पकड़ने पर श्वेत शब्द मिलता है । उसी ज्योतिर्मय शब्द के विषय में संत बुल्ला साहब ने कहा है पैठि अंदर देखु कन्दर , जहाँ जिय को वास । उलटि प्राण अपान मेटो , सेत सबद निवास ॥ 

     इस पर सुरत चलती है , पैर नहीं चलता । संत कबीर साहब के वचन में है बिन पावन की राह है , बिन बस्ती का देश । बिना पिण्ड का पुरुष है , कहै कबीर संदेश

      पहले मन के साथ चेतन चलेगा । फिर मन छूटकर चेतन रहेगा । तब परमात्म दर्शन होगा । इसके लिए घर में बैठकर साधना कीजिए । ऐसा नहीं कि किसी खास स्थान में दर्शन होगा । अच्छा तो यही है कि आप वहाँ जाकर दर्शन कीजिए , जहाँ उनके स्वरूप का ज्ञान हो । ऐसा नहीं कि उनको यहाँ बुलाकर दर्शन कीजिए । किसी मंदिर में जाने के लिए अपवित्र होकर क्यों जाइए पवित्र होकर जाइए । पवित्र होने के लिए त्रिवेणी में स्नान कीजिए ।  वह त्रिवेणी क्या है ? तुलसी साहब कहते हैं आली अधरधार निहार निजकै , निकरि सिखर चढ़ावहीं । जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना , जतन धार बहावहीं ।। जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि , धुर गुरू गति गावहीं । जहाँ संत आस विलासबेनी , विमल अजब अन्हावहीं ॥ कृत कुमति काग सुभाग कलिमल , कर्म धोय बहावहीं । हिय हेरि हरष निहारि घर को , पार हंस कहावहीं ।। मिलि तूल मूल अतूल स्वामी , धाम अविचल बसि रही । आलिआदि अंत विचारिपद कौ , तुलसी तब पिउ की भई ॥ 

     बाहर त्रिवेणी के स्नान से पाप कट नहीं सकता । पवित्र तो अंदर की त्रिवेणी में स्नान करने से ही होगा , बाहर के तीर्थों में स्नान करने से नहीं । तीर्थ - स्नान करने के लिए जाइए ; किंतु मेले के समय में नहीं जाइए । स्नान - दान से आप पाप से नहीं छूट सकते । पाप से छूटना ध्यान द्वारा ही हो सकता है । 

     परमात्मा की पहचान आत्मा से ही होगी । यदि कोई कहे कि हम , अपनी देह में आत्मा हई हैं और परमात्मा भी अपने अंदर में है तो पहचान क्यों नहीं होती ? तो उत्तर होगा कि आत्मा शरीर , इन्द्रिय और प्रकृति के आवरण में है , इसीलिए पहचान नहीं होती है । जब इन तीनों आवरणों से छूट जाएँगे , तब दर्शन होगा - पहचान होगी । जैसे आँख पर रंगीन चश्मा रहने से बाहर की चीज चश्मे के रंग के अनुरूप देखते हैं । चश्मा उतारकर देखने से वस्तु का सही रूप दीखता है । उसी प्रकार चेतन आत्मा के ऊपर मायिक आवरण रहने के कारण मायिक दर्शन होता है । मायिक आवरण उतर जाने पर निर्मायिक परमात्मा का दर्शन होता है । अपने अंदर सुरत से यात्रा करते हुए परमात्मा को प्राप्त कीजिए । झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार से छूटकर रहिए तो आप संसार में सुखी रहेंगे और परलोक में भी सुखी रहेंगे ।

     हमलोगों को स्वराज मिला है , उसमें सुराज हो जाय । रामराज वहाँ है , जहाँ राम - ही - राम है ; बिल्कुल आराम ही आराम है । पृथ्वी पर रामराज्य होना असंभव है भजन कीजिए और अपने अंदर में प्रवेश कीजिए , वहीं असली रामराज्य मिलेगा । आत्मा शरीर और इन्द्रियों से मिली - जुली है और प्रकृति मण्डल के आवरण में है । इनसे छुड़ाइए , तब परमात्म - दर्शन होगा । उपनिषद् में है भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ 

     जड़ से चेतन के छूटने से ही परमात्मदर्शन होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।। -रामचरितमानस

      इन दोनों वचनों को यानी उपनिषद् और गोस्वामीजी के वचनों को याद रखिए , तब जाँच लीजिए कि ठीक ही ईश्वर का दर्शन हुआ या नहीं । अपनी परीक्षा आप कर लीजिए । लोगों को भजन करना चाहिए । भजन के लिए जितनी पवित्रता होनी चाहिए , उतनी पवित्रता रखिए । पंच पापों यानी झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार से बचिए । इन पापों को नहीं करेंगे , तो इतने पवित्र हो जाएँगे कि ईश्वर को पहचानने के योग्य हो जाएँगे ।०

इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 69 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Where is Brahmlok, Indralok and Goloka?  Who is older than Brahma, Vishnu and Mahesh?  How to take a Triveni bath so that sins are destroyed?  Actually, what is divine philosophy?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
अगर आप "महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर"' पुस्तक से महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस  जी महाराज के  अन्य प्रवचनों के बारे में जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं तो   यहां दबाएं।

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए  शर्तों के बारे में जानने के लिए.  यहां दवाएं ।
S68, Where is brahmalok, indralok and golok ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 31-03-1954ई. S68, Where is brahmalok, indralok and golok ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 31-03-1954ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/20/2020 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

प्रभु प्रेमियों! कृपया वही टिप्पणी करें जो सत्संग ध्यान कर रहे हो और उसमें कुछ जानकारी चाहते हो अन्यथा जवाब नहीं दिया जाएगा।

Ad

Blogger द्वारा संचालित.