महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 102
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर १०२वां, के बारे में। इसमें katha udaaharan sahit sumiran kee sampoorn jaanakaaree दी गई है।
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- manushy shareer ka sarvottam upayog kya hai? gyaan aur yog kya hai? yog kaun kar sakata hai? mukti kab hotee hai? mukti kitane prakaar kee hotee hai? yogaabhyaas kee mahima, bhagavaan shree krshn dvaara yogee kee gati ka varnan, dhyaanaabhyaas kee anivaaryata, इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- yog kee paribhaasha, yog ke uddeshy,yog kee visheshataen,yog ke prakaar,yog kya hai,yog ka itihaas pdf, yog kitane prakaar ke hote, yog ka mahatv,yog, yog kaun - kaun se hote hain, yog kaun - kaun se hain, yog kaun sa karana chaahie, yog kaun see prakriya hai, yog kaun sa hai, yog kaun hai, yog kaun sa karen, yog kaun hota hai, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
Types and Importance of Yoga, Moksha
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! क्लेशों से छूटने के लिए मनुष्य को स्वाभाविक ही अंत : प्रेरण होता है । शरीर धारण करना ही क्लेशों का कारण है । किसी लोक में रहो , उस लोक में रहने योग्य शरीर धारण करके रहो । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is the best use of human body? What is knowledge and yoga? Who can do yoga? When does liberation happen? What type of freedom is there? Glory of yoga practice, description of Yogi's movement by Lord Krishna, imperative of meditation,.......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
१०२. गृहस्थाश्रम में रहकर स्वल्प भोगी
प्यारे लोगो !
क्लेशों से छूटने के लिए मनुष्य को स्वाभाविक ही अंत : प्रेरण होता है । शरीर धारण करना ही क्लेशों का कारण है । किसी लोक में रहो , उस लोक में रहने योग्य शरीर धारण करके रहो । क्लेश से छुट्टी नहीं है । नरलोक को लोग प्रत्यक्ष देखते हैं और स्वर्गादि लोकों के लिए पुराणों में पढ़ते हैं । संतों ने कहा कि ईश्वर की भक्ति करो, ईश्वर को प्राप्त कर लो , तो सभी शरीरों से छुटकारा हो जाएगा , सभी लोकों से छुटकारा हो जाएगा और सभी क्लेशों से भी छुटकारा हो जाएगा । इसके लिए ईश्वर का भजन करो । भजन करने के लिए पहले युक्ति - भेद जानो , फिर उनसे मिल जाने का अभ्यास करो । यही योग और ज्ञान है । इसको दृढ़ता से जान लो कि ईश्वर की प्राप्ति देहयुक्त रहने से नहीं होता है । आवश्यकता यह है कि एक शरीर को छोड़ो , फिर दूसरे को , तीसरे को एवम् प्रकार से सभी जड़ - शरीरों को छोड़ो , तो ईश्वर की भक्ति पूरी होगी । जैसे आप जगन्नाथ जाना चाहें तो रास्तों को , गाँवों को , नगरों को छोड़े बिना वहाँ नहीं पहुँच सकते । इसी तरह सभी शरीरों को छोड़े बिना परमात्मा की पहचान नहीं हो सकती ।
योग के नाम से लोगों को डरना नहीं चाहिए । ज्ञान को भी अगम्य न जानना चाहिए । योग - मिलने को कहते हैं और ज्ञान - जानने को कहते हैं । योग के बिना मिल कैसे सकते हैं और ज्ञान जाने बिना मिलेंगे किससे ? हमलोग सत्संग करते हैं , यह ज्ञान का उपार्जन है और ध्यान करते हैं , यह योग है । योग चित्तवृत्ति - निरोध को भी कहते हैं । आपलोगों ने सुना होगा कि हठयोग में बहुत आसन आदि लगाने पड़ते हैं घर को छोड़े बिना नहीं होगा । जो पूर्ण बैरागी होगा , ब्रह्मचारी होगा , उसीसे होगा ; किंतु संतों ने ऐसा नहीं कहा । संतों ने कहा है हठयोग के किए बिना भी ईश्वर की प्राप्ति होती है ; किंतु हाँ , संयमी होकर रहना होगा । तब गृहस्थ रहो या विरक्त रहो - दोनों से होगा । संयमी होने का आशय है , मितभोगी होना । स्वल्पभोगी संयमी है । जो भोगों में विशेष आसक्त है , वह भोगी है । उससे संयम नहीं होगा । दो तरह से संयमी होते हैं - एक गृहस्थाश्रम से दूर रहकर और दूसरे गृहस्थाश्रम में रहकर स्वल्पभोगी होते हुए । गृहस्थाश्रम में रहकर संतानविहीन रहे , धनविहीन रहे - ऐसी बात नहीं । संयम से रहे , अपना रोजगार करते रहे और संतान भी उत्पन्न करे । आप कहेंगे कि हम साधारण जन से यह संयम नहीं होगा , तो आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए । आपके यहाँ ऐसे बहुत लोगों का इतिहास है , जो गृहस्थ रहते हुए खेती करते - करते , मुंशी का काम करते - करते संत हो गए हैं ।
कबीर साहब ताना - बाना करते - करते संत हो गए । आज कितना उनका नाम है , विद्वानों से पूछिए । प्रथम कक्षा से लेकर ऊँची कक्षाओं तक उनकी वाणी पढ़ाई जाती है । कबीर साहब ने दिखला दिया कि घर में रहकर अपना काम करते हुए भी लोग संत होते हैं । कबीर पंथ के लोग उनका गृहस्थ होना नहीं मानते ; किंतु और लोग उनका गृहस्थ होना मानते हैं । खैर , जो हो । गुरु नानकदेवजी के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि वे गृहस्थ थे । उनके दो पुत्र थे । श्रीशंकराचार्यजी बिना गृहस्थ जीवन बिताए संत हुए । किंतु सर्वसाधारण के लिए कबीर साहब और गुरु नानक साहब का नमूना अच्छा है । आज भी मंदार पहाड़ के नजदीक श्री भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी बड़े भारी विद्वान मौजूद हैं , जो बड़े संयमी हैं और साधु - संत से कम दर्जा नहीं रखते हैं । आज जो राधास्वामी मत प्रचलित है , उसके लोग भी गृहस्थ हैं । जो कोई कहे कि गृहस्थ से भजन - साधन नहीं होगा , तो जानना चाहिए कि वे स्वयं इसको नहीं जानते हैं , अपने नहीं करना चाहते और न दूसरे को करने देने का उत्साह देते । इसलिए सब कोई ईश्वर का भजन कीजिए और शरीर रहते ही , यानी जीवनकाल में ही उस परम पुरुष को प्राप्त कीजिए , मुक्ति लाभ कीजिए । संतों ने कहा है कि जीवत मुक्त सोइ मुक्ता हो । जब लग जीवन मुक्ता नाही , तब लग दुखसुख भुक्ता हो ।। -कबीर साहब
संतों ने जीवनकाल में ही मुक्ति की मान्यता दी है । संत दादूदयालजी ने कहा है जीवत छूटै देह गुण , जीवत मुक्ता होइ । जीवत काटै कर्म सब , मुक्ति कहावै सोइ ॥ जीवत जगपति कौं मिले , जीवत आतम राम । जीवत दरसन देखिये , दादू मन विसराम ॥ जीवत मेला ना भया , जीवत परस न होइ । जीवत जगपति ना मिले , दादू बूड़े सोइ ॥ मूआँ पीछे मुकति बतावै , मूआँ पीछे मेला । मूआ पीछै अमर अभै पद , दादू भूले गहिला ॥ -दादू दयाल
आपलोगों ने उपनिषद् के पाठ में भी सुना कि मरने पर जो मुक्ति होती है , वह मुक्ति नहीं है । आप कहेंगे कि गृद्ध शरीर छोड़कर भगवान के रूप को धरकर बैकुण्ठ चला गया , उसकी मुक्ति हो गई , तो जानना चाहिए कि यह असली मुक्ति नहीं है । मुक्ति चार प्रकार की होती हैं - सालोक्य मुक्ति , सामीप्य मुक्ति , सारूप्य मुक्ति और सायुज्य मुक्ति । ये चारों मुक्तियाँ असली मुक्तियाँ नहीं हैं । असली मुक्ति वह है , जिसमें किसी प्रकार की देह नहीं रहे । उसी को ब्रह्मनिर्वाण भी कहते हैं । इसके लिए कोशिश कीजिए । एक शरीर में नहीं होगा , तो दूसरे तीसरे किसी - न - किसी शरीर में अवश्य होगा ।
भगवान श्रीकृष्ण की बात याद कीजिए , जो उन्होंने गीता में कही है - योग के आरम्भ का नाश नहीं होता , उसका उलटा परिणाम नहीं होता और वह महाभय से बचाता है जिस जन्म में आपको स्वयं मालूम हो जाय कि यह जड़ है और यह मैं चेतन हूँ , उसी जन्म में आपको ब्रह्मनिर्वाण हो जाएगा । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जो थोड़ा भी योग ध्यानाभ्यास करेगा , तो शरीर छूटने पर वह बहुत दिनों तक स्वर्गादि सुखों को भोगेगा । स्वर्ग सुख भोगने के बाद इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान् के घर में जन्म लेगा अथवा योगी के कुल मे जन्म लेगा और पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर योगाभ्यास करने लगेगा और करते - करते कई जन्मों में मुझको प्राप्त कर लेगा और मुझमें विराजनेवाली शान्ति को प्राप्त कर लेगा । इस योगाभ्यास को बारम्बार करते रहो , कभी मत छोड़ो । किसी के बहकावे में मत पड़ो कि नहीं
होगा ।
आरम्भ कैसे किया जायगा ? इसके लिए संतों की वाणियाँ हैं - स्थूल - साधना से सूक्ष्मतम साधना तक करने के लिए । मोटा जप , मोटा ध्यान फिर दृष्टि - साधन और अंत में शब्द - साधन - ये ही चार बातें हैं । मरने का डर नहीं करना चाहिए । शरीर मरता है , आप नहीं मरेंगे । जिनको मरने की आदत हो गई है , वह मरने से क्यों डरेगा ? इसीलिए कबीर साहब ने कहा जा मरने से जग डरै , मेरे मन आनन्द । कब मरिहौं कब पाइहौं , पूरन परमानन्द ॥
मरने का डर उसको होता है , जो बुरे - बुरे कर्मों को करता है ; क्योंकि उसकी दुर्गति होती है भगवान श्रीकृष्ण ने गीता , ८/१० में कहा है प्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्सतं परंपुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
प्रयाणकाल में अर्थात् मरने के समय अचल मन से भक्तियोग युक्त होकर अपने प्राणों को दोनों भौओं के बीच में रखकर जो शरीर छोड़ता है , वह दिव्य परमपुरुष को प्राप्त करता है । जिसको जीते जी इसका खूब हिस्सक लगेगा , उसका कल्याण होगा । जीते जी जो भावना होगी , मरने के समय वही होगी ; जैसे जड़भरत की हुई थी । हिरणी के बच्चे में उनकी आसक्ति थी , तो शरीर छूटने पर उनको हिरण का शरीर मिला । साधन - भजन की बात मन में बराबर लानी चाहिए । जो कहे कि हमको बाल बच्चों की सेवा तथा अपने काम - धंधों से फुर्सत नहीं है , हम भजन - ध्यान क्या करेंगे , तो मैं कहता हूँ कि आपको मरने की फुर्सत है ? यदि आपको मरने की फुर्सत नहीं है , तो क्या मौत इसको मान सकती है ? समय पर आपको मरना ही पड़ेगा । इसलिए सब कामों को करते हुए कुछ समय बचा बचाकर ध्यान योगाभ्यास भी किया कीजिए ।०
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि मनुष्य शरीर का सर्वोत्तम उपयोग क्या है? ज्ञान और योग क्या है? योग कौन कर सकता है? मुक्ति कब होती है? मुक्ति कितने प्रकार की होती है? योगाभ्यास की महिमा, भगवान श्री कृष्ण द्वारा योगी की गति का वर्णन, ध्यानाभ्यास की अनिवार्यता, इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S102, Types and Importance of Yoga, Moksha ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 26-02-1955ई. मुंगेर
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/06/2020
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