महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 117
सबसे गहन विषय जो हो सकता है , वह है ईश्वर - स्वरूप का निर्णय । जो लोग आस्तिक कुल में जन्म लिए हैं , उनको ईश्वर मानने में कोई अड़चन और कोई संदेह नहीं है । कोई अपने माता- पिता या बूढ़े के कहने से ईश्वर को मानते चले आए हैं । उनके बूढ़े लोगों ने ईश्वर के जिस - जिस नाम को लेकर पुकारा है , उन्होंने उसी को जाना है । उनको यह जनाया गया है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? लोग श्रद्धा से मानते चले आए हैं ।
ईश्वर - स्वरूप का निर्णय विशेष पढ़े - लिखे लोग विवेचना पूर्ण करके जानते हैं । लोग कहते हैं कि यह बात सबकी समझ में नहीं आएगी , इसलिए उनको कहने से क्या लाभ ? किंतु जो नहीं समझेंगे , उनको यदि यह विषय कभी समझाया ही नहीं जाय; तो वे कब समझेंगे ? इसलिए साधु - संतों ने इसको समझा और कहा कि इसको बारम्बार समझाओ ।
केवल विद्यालयों में ही जाकर ज्ञान नहीं होता है , सुनकर भी ज्ञान होता है, पहले कोई पुस्तक नहीं थी । संसार में सबसे पुराना ग्रन्थ लोग वेद को कहते हैं , लेकिन जब वेद ग्रंथ रूप में नहीं था , तब उसका ज्ञान ऋषियों के मस्तिष्क में था । जब अक्षर नहीं बना था , उस समय जितनी विद्याएँ थीं , लोगों को सुना - सुनाकर सिखलायी जाती थीं । लोगों की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी । लोग सुन सुनकर समझ लेते थे , सीख लेते थे । ज्ञान और विद्या पहले , पुस्तक पीछे हुई । आज भी जो पुस्तक लिखी जाती है , वह ज्ञान पहले मस्तिष्क में रहता है , फिर पुस्तक में लिखते हैं । लोगों की स्मरण- शक्ति जब कम हो गयी , तब लोगों ने उस ज्ञान को रखने के लिए अक्षर बनाया और पुस्तक का रूप दिया । आज भी कितने ज्ञान हैं , जो पुस्तक में नहीं हैं ।
राहुल सांकृत्यायन से भेंट हुई मुरादाबाद से आते समय । उन्होंने तालपत्र पर लिखे हुए अक्षरों को दिखलाए । पहले भोजपत्र पर , ताम्रपत्र पर लिखते थे , फिर कागज बना और उसपर लोग लिखते हैं । पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी । वह शक्ति आज भी है । आज भी कछ स्मरण - शक्ति है । महर्षि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्दजी जन्मान्ध थे , वे बड़े विद्वान थे । जिस गुरु के शिष्य स्वामी दयानन्द थे , वे गुरु कैसे थे , सो जानिए । विद्या कैसे आती है , इस पर कहा ।
ऊँचे विद्यालयों में लड़के पढ़ते हैं , अध्यापक कहते हैं , लड़के सुनते हैं , याद रखते हैं और लिख भी लेते हैं । साधु लोग जो सत्संग करते हैं , इसको याद रखो अथवा लिख लो । यदि लिखना नहीं जानते हो तो सुनते सुनते बहुत सीख जाओगे ।
हमारे चाचा के पिता एक सुग्गा पालते थे । वह सुग्गा सिखाने पर बहुत बातें सीख गया था । संयोग से एकदिन रात में चोर आया । सुग्गे ने हल्ला किया , ' बाबा हो चोर । लोग जग गए , चोर भाग गया । पक्षी को मनुष्य का संग करते - करते ज्ञान हो गया कि चोर आया है । उसको यह बात सिखलाई नहीं गई थी । पक्षी जब सीख लेता है , तो मनुष्य बार - बार सुन लेने पर क्यों नहीं सीख लेगा ?
हमारे यहाँ एक बड़ा भारी काला दाग है कि सभी वर्गों के लोगों को यह उपदेश मत दो । किंतु संत लोग सब ही दिन उदार रहे । ' चहुँ बरना को दे उपदेश ' गुरु नानकदेव ने कहा । आपको इसका इच्छुक होना चाहिए । इच्छा नहीं करते हैं , इसीलिए इससे दूर रहते हैं । लोग राम , शिव , हरि आदि को ईश्वर समझते हैं , परंतु उनसे स्वरूप पूछिए तो चुप हो जाएँगे । कोई सगुण मानते हैं , तो निर्गुण मानते हैं । दूसरा दल कहता है कि क्या ईश्वर है ?
एक नास्तिक विद्वान ने मुझसे पूछा कि ' आपका क्या प्रचार है ? ' मैंने कहा - ' ईश्वर - भक्ति । ' उन्होंने पूछा ' क्या ईश्वर है ? ' मैंने कहा - ' हाँ । ' उन्होंने कहा कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ मैंने कहा - ' नहीं मानिए । ' उन्होंने पुनः मुझसे पूछा कि ' तब मेरे लिए आपका क्या प्रचार है । मैंने कहा कि ' आप तो पढे लिखे है , विद्वान हैं , समेटकर बोलिए कि आप क्या चाहते हैं । वे चुप हो गए । तब मैंने कहा - ' यदि आपको ज्ञान और सुख मिल जाए तो कोई इच्छा रहेगी ? उन्होंने कहा – ' नहीं । ' मैंने कहा - ' आपके लिए मेरा यही प्रचार है कि ज्ञान और सुख होता है ध्यान से । आप ध्यान करेंगे तो ज्ञान होगा , सुख होगा और ध्यान के अंत में ईश्वर की प्राप्ति होगी । ध्यानाभ्यास से मन की एकाग्रता होती है । इससे मन में शान्ति आती है और ज्ञान भी बढ़ता है , मुझे विश्वास है कि आप यदि ध्यान के अंत में पहुँचिएगा , तो कहिएगा कि ईश्वर है ।
लोग कहते हैं कि ' एक प्रह्लाद के लिए भगवान ने अवतार लिया , एक दौपदी के लिए वस्त्रहरण के समय भगवान प्रकट हुए , आज बंगाल में , पंजाब में क्या - क्या हो गया , लेकिन भगवान कहाँ है ? क्या आजकल भगवान ने वैसा करना छोड़ दिया है ? ' किंतु गुण , कर्म से ईश्वर का निर्णय नहीं हो सकता । कितने विद्वानों ने कहा कि ईश्वर श्रद्धा में है , तर्क में नहीं । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा
राम अतक्र्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहु भवानी ॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रबि सन्मुख तम कबहुँकि जाहीं ॥
तर्क में बतलाया
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता । अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवद्य अजीता । प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥
तब कहा है कि - ' इहाँ मोह कर कारन नाहीं । और कहा - ' अज विज्ञान रूप बलधामा । ' अज=अजन्मा । व्याप्य= जिसमें कुछ समावे । व्यापक=जो समावे । समूचा प्रकृति - मण्डल व्याप्य है , परमात्मा उसमें व्यापक है । अखण्ड =जिसका टुकड़ा नहीं हो । अनन्त=जिसकी सीमा कहीं नहीं , जो असीम है । अगुन = गुणरहित , तीन शक्तियों - गुणों के परे । संसार में तीन गुणों का खेल है । एक वृक्ष , एक पहाड़ या छोटे जीव या मनुष्य का शरीर या ( देवता पर विश्वास रखते हो तो ) देवता का शरीर - इन सबमें तीन गुणों का काम है । रजोगुण - उत्पादक शक्ति , सत्त्वगुण - पालक शक्ति और तमोगुण – विनाशक शक्ति । अगुण तीन गुणों से रहित को कहते हैं । जो व्याप्य में व्यापक है , वह परमात्मा है । किंतु उसी में वह समाप्त नहीं होता । उससे परे भी है । इसीलिए कहा-
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्मनिरीह बिरज अबिनासी ॥
इन सब बातों को बतलाकर कहते हैं कि ' इहाँ मोह कर कारन नाहीं । ' अब यहाँ तर्क होता है कि व्याप्य में व्यापक अर्थात् प्रकृति पार अनंत हो सकता है कि नहीं ?
पहले एक अनंत तत्त्व पर विचार करो कि है कि नहीं । यदि कहो कि ' कोई भी अनंत नहीं होगा , सब सान्त - ही - सान्त है । ' प्रश्न होगा कि ' सब सान्तों के बाद में क्या है ? ' सब खेतों की सीमा है , सब खेतों को जोड़कर भूमण्डल होता है । भूमण्डल सान्त हो गया । सारे सान्तों के पार में क्या है ? जबतक एक अनंत नहीं कह दो , तबतक यह प्रश्न सिर से उतर नहीं सकता । इसलिए एक अनंत का मानना अनिवार्य है । अनंत दो नहीं हो सकता । यदि कहो कि ' एक दूसरे में समाते हुए अनंत है । ' तब प्रश्न होगा कि दोनों तत्त्वरूप में एक है कि दो ? यदि एक दूसरे में घुसता है तो जब उसमें घुसता है तो उसमें पोल है , उसका खण्ड हो सकता है । उसके अणु - अणु में वह है , तब वह परमाणु भी उसी से बना होगा , इस तरह अनंत एक ही होगा , दो नहीं ।
एक एम. ए. , बी ० एल ० ने प्रश्न किया कि ' यदि वह अनंत है तो फिर उसको ईश्वर क्यों मानूं ? ' तो उत्तर होगा - ' अनंत से बाहर कोई नहीं हो सकता । जब सब उसके अंदर में है , तो वह ईश्वर नहीं हुआ तो क्या हुआ ? जिसके अधीन सब हो । ' अनंत के पहले का कुछ नहीं हो सकता । सबसे पहले का जो है , उसका जन्म नहीं हो सकता । इसलिए वह अज है । अनंत होने के कारण वह सर्वव्यापी है । जो जितना अपना विस्तार विशेष रखता है , वह उतना सूक्ष्म होता है । सूक्ष्म का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं , बल्कि आकाशवत् सूक्ष्म । एक सेर बर्फ लो , उससे एक सेर जल का विस्तार ज्यादा होगा । यदि उसको वाष्प में परिणत किया जाय , तो उसका विस्तार और विशेष होगा । जो जितना सूक्ष्म होगा , वह उतना विशेष पतला होगा । जो जितना विशेष महीन होगा , वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समाया हुआ होगा । जैसे पृथ्वी में जल , जल में अग्नि , अग्नि में हवा और हवा में आकाश । जो सबसे विशेष सूक्ष्म है , वह सबमें व्यापक होगा । इसीलिए अति सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा सर्वव्यापक है । इसीलिए कहा - ' प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ' प्रकृति कहते हैं उस मसाले को , जिससे यह सब कुछ बनता है । बनने में दो भाग करो तो एक पिण्ड , दूसरा ब्रह्माण्ड होगा । पिण्ड - ब्रह्माण्ड में तीन गुणों का खेल होता है । बालकपन का शरीर कहाँ चला गया ? शरीर गया नहीं , बल्कि बदल गया है । यदि तीनों गुणों का काम नहीं हो तो रूप नहीं बदल सकता । उत्पादक शक्ति का काम है - उत्पन्न करना , बदलते जाना । तमोगुण का काम है - नाश करना । ठहरा हुआ है - यह सतोगुण का काम है । तीनों का काम संग - संग होता है । जिसने जन्म नहीं लिया , उसमें तीन गुणों का काम कैसे होगा , इसलिए वह अज है । कार्य और कारण को समझने के लिए प्रकृति कारणरूप है और कार्यरूप में सब चीजें बन गई हैं ।
त्रयगुणों के सम्मिश्रणरूप को प्रकृति कहते हैं । बराबर - बराबर शक्तियों के मिलाप को प्रकृति कहते हैं । इसकी जड़ में तीन गुण हैं । इसलिए अपरा प्रकृति , अष्टधा प्रकृति इसको कहते हैं ।
कार्यरूप का जितना फैलाव है , उससे कारणरूप का विशेष फैलाव होता है । जहाँ से कुछ बनने का आरम्भ होता है , वह कारण है । उसके बाद जब कुछ बनता है , तब सूक्ष्म कहलाता है । अद्वैतवादी को पहले से दूसरा तत्त्व नहीं जंचता है । परमात्मा से प्रकृति उपजी हुई है । प्रकृति को अनाद्या भी कहते हैं , इसलिए कि प्रकृति के होने से समय होता है । प्रकृति नहीं होने के पहले देश काल बने , नहीं हो सकता । जब देश और काल नहीं था , तब प्रकृति हुई । इसलिए इसको अनाद्या कहते हैं । प्रकृति देश - काल ज्ञान से अनादि और उपज ज्ञान से सादि है । परमात्मा अनादि के भी आदि हैं । ' अनादिर आदि परम कारण ।
जो असीम है , सर्वव्यापी है , जो गुण रहित है , अज है , ऐसा तत्त्व टूटनेवाला नहीं हो सकता । इसलिए अखण्ड है । इस तरह ईश्वर का स्वरूप है । किंतु उसके कार्य से ईश्वर माना जाय , हो नहींं सकता । ससीम बुद्धि से असीम परमात्मा के कार्य का वर्णन किया जाय , नहीं हो सकता ।
बुद्धि रबड़ का एक थैला है । रबड़ के थैले में हवा भरो , हवा विशेष भरने से थैला फट भी सकता है । उसी तरह बुद्धि को समझो । ईश्वर को सुगम रीति से जानने के लिए क्या करो ? बाहर में आपकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , भीतर में मन है । मन से कुछ करते हैं । इसको बुद्धि से विचारते हैं । बुद्धि पीछे बनी । फिर मन और पीछे बाहर की इन्द्रियाँ बनीं । जो जितना पीछे बना , वह उतना स्थूल है । बुद्धि सूक्ष्म है । उससे स्थूल मन है । उससे और इन्द्रियाँ स्थूल हैं । बुद्धि को सारथी , मन को लगाम और इन्द्रियों को घोड़े कहा गया है । सबसे सूक्ष्म परमात्मा हैं । स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । हाथ में बांधने की घड़ी और दीवार में टाँगने की घड़ी दोनों में एक ही तरह के यंत्र हैं , किंतु दोनों घड़ियों में एक ही औजार से काम नहीं होता । बड़ी घड़ी के लिए बड़े - बड़े और छोटी घड़ी के लिए छोटे - छोटे यंत्र काम में लाते हैं । परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म हैं , इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल हैं । इन स्थूल इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्मा ग्रहण होने योग्य नहीं हैं ।
सामने में जो प्रत्यक्ष दृश्य है , उसको ग्रहण करने के लिए आँख है , किन्तु आँख को फोड़कर कान से देखना चाहें , तो नहीं होगा । कान से शब्द सुन सकते हैं । पाँच विषयों को ग्रहण करने के लिए पाँच इन्द्रियाँ हैं । रूप क्या है ? जिसको आँख से ग्रहण करें । शब्द क्या है ? जिसको कान से सुन सकते हैं । इसी तरह ईश्वर क्या पदार्थ है ? जो केवल चेतन आत्मा से ग्रहण होता है । यदि कहो कि प्रत्यक्ष दिखलाओ तो प्रत्यक्ष आँख से नहीं हो सकता । मैं इसकी क्रिया - युक्ति बतलाता हूँ , अपने को शरीर - इन्द्रियों से छुड़ाकर कैवल्य दशा प्राप्त करो तब प्रत्यक्ष होगा ।
इसके लिए मन को एकाग्र करो । मन को एकाग्र करने के लिए लोग मोटे - मोटे काम करते हैं , परंतु पूरा एकाग्र नहीं होता । पूर्णता के लिए ध्यानाभ्यास करो । ध्यानाभ्यास का अर्थ यह नहीं कि मोटे - मोटे कर्मों को नहीं करो । मोटे - मोटे कार्यों - सत्संग , पूजा - पाठ से भी सिमटाव होता है । विशेष सिमटाव मंत्र - जप से होगा । इससे भी विशेष सिमटाव मूर्ति - ध्यान से होगा ।
भगवान बुद्ध की मूर्ति को भिक्षु लोग बनाते थे । लोगों ने पूछा कि ' भिक्षु ! यह क्या करते हो ? ' उन्होंने कहा कि ' इस मूर्ति को बनाते - बनाते इसका रूप मन में छप जाएगा । ' इसी के लिए हमारे यहाँ प्रतिमा - पूजन है केवल प्रणाम करके चलने के लिए नहीं । प्रतिमा देखो और उसका ध्यान करो । एक पंडित ने मुझसे पूछा कि ' आप प्रतिमा को मानते हैं कि नहीं ? ' मैंने कहा कि ' मानता भी हूँ और नहीं भी मानता हूँ । ' ध्यान करने के लिए प्रतिमा को मानता हूँ और मेला लगाकर पैसा कमाने के लिए नहीं । '
प्रतिमा का ध्यान क्यों किया जाया , इसका भी उत्तर है । एक मौलवी थे । उन्होंने कहा कि ' हिन्दू लोग बहुत ईश्वर मानते हैं । ' मैंने उनसे कहा कि ' आप एक शरीर में रहते हैं , इसलिए आपका शरीर है खुदा सबमें रहते हैं , इसलिए सब शरीर खुदा के है । इस तरह हिन्दू लोग सब रूपों को ईश्वर का रूप मानकर पूजते हैं । ईश्वर सबमें रहते हैं । ' जैसे तुम घर में रहते हो , तुम घर नहीं हो ।मूर्ति में परमात्मा है , मूर्ति परमात्मा नहीं है ।
श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ कहकर इसको अच्छी तरह समझाया गया है । मूर्ति - पूजा इसलिए है कि शक्ल का ध्यान करो । मूर्ति में ईश्वर हैं , मूर्ति ईश्वर नहीं है । मूर्ति का ध्यान करो , इससे एकाग्रता होगी , किंतु इससे पूर्ण सिमटाव नहीं होगा ।
श्रीमद्भागवत के एकादश अध्याय में उद्धवजी को भगवान श्रीकृष्णजी ने कहा कि ' पहले मेरे सर्वांग शरीर का ध्यान करो , फिर मेरे मुस्कानयुक्त मुखारविन्द का , फिर शून्य में ध्यान करो ।'
भगवान ने शून्य - ध्यान करने कहा । विन्दु - ध्यान शून्य ध्यान है । विन्दु - ध्यान शून्य - ध्यान क्यों है ? विन्दु कहते हैं - परिमाण - शून्य , नहीं विभाजित होनेवाले चिह्न को । यह शून्य न हो गया तो क्या हुआ । इस प्रकार विन्दु - ध्यान से पूर्ण सिमटाव होगा । सिमटाव में ऊर्ध्वगति होगी । ऊर्ध्वगति में उठते - उठते कैवल्य दशा प्राप्त होगी , फिर ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी ।
ईश्वर - स्वरूप का ज्ञान हो , फिर उसकी पहचान हो । पहले जानकर ज्ञान हो , फिर पहचान कर ज्ञान हो । जबतक पहचान कर ज्ञान नहीं हो , तबतक कल्याण नहीं । इसके लिए आपका चरित्र बहुत अच्छा होना चाहिए । झूठ बोलना , चोरी करनी , नशा खाना , व्यभिचार करना और हिंसा करनी - इन पाँचों महापापों को छोड़ने से चरित्र अच्छा होगा ।∆
महर्षि मेंहीं सत्संग-... |
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