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S117, पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी ।। Moorti Pooja ke Vaigyaanik phaayade ।। २३.६.१९५५ ई०अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 117

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 117 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  केवल विद्यालयों में ही जाकर ज्ञान नहीं होता है , सुनकर भी ज्ञान होता है, पहले कोई पुस्तक नहीं थी । ....ध्यान करने के लिए प्रतिमा को मानता हूँ और मेला लगाकर पैसा कमाने के लिए नहीं । ' 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 116 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

Murti Puja ka pravachan karte hue Gurudev Maharshi Mehi

११७. पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी 

आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- सबसे गहन विषय क्या है? ईश्वर के स्वरूप को कैसे जानते हैं? ईश्वर स्वरूप को कैसे समझा जा सकता है? ऋषियों का ज्ञान कहां रहता था? पहले विद्या कैसे सिखाया जाता था? विद्या कैसे आती है? गुरु महाराज किसका प्रचार करते थे? नास्तिक को ईश्वर का स्वरूप कैसे समझा सकते हैं? भगवान प्रगट कब होते हैं और कैसे होते हैं?  ईश्वर प्रकट क्यों नहीं होते हैं? ईश्वर कैसा है? अगुण किसे कहते हैं? अनंत को ईश्वर क्यों मानते हैं? सूक्ष्म का मतलब क्या है? परमात्मा किस तरह सर्वव्यापक है? परमात्मा अज कैसे हैं? प्रकृति किसे कहते हैं? प्रकृति को अनाद्या क्यों कहते हैं? परमात्मा बुद्धि के परे क्यों कहा जाता है? असली ईश्वर का दर्शन कैसे होता है? भगवान बुद्ध की मूर्ति भिक्षु लोग क्यों बनाते थे? प्रतिमा या मूर्ति पूजा क्यों करते हैं?  इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि-  क्या वेदों में मूर्ति पूजा वर्जित है, सच्चा ईश्वर कौन और कहा है उसका नाम और पता क्या है, मूर्ति पूजा के वैज्ञानिक फायदे, मूर्ति पूजा का प्रमाण किस ग्रंथ में है, मूर्ति पूजा का विरोध किसने किया, वेद में मूर्ति पूजा है, मूर्ति पूजा सही है या गलत, मूर्ति पूजा पाप है शैतान इसका बाप है,क्या मूर्ति पूजा गलत है? मूर्ति पूजा का आरंभ कब से माना जाता है? मूर्ति पूजा कैसे करें? भारत में पहली मानव प्रतिमा किसकी पूजा हुई है? अणु किसे कहते हैं, अणु शब्द का मतलब, अणु किसे कहते हैं उदाहरण दीजिए, परमाणु किसे कहते हैं, तत्व किसे कहते हैं, अनु किसे कहते हैं उदाहरण दीजिए, लेटा हुआ ग्रह किसे कहते हैं, परमाणु किसे कहते हैं परिभाषा,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
Ishwar Swaroop aur Murti Puja par pravachan karte Gurudev

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

      सबसे गहन विषय जो हो सकता है , वह है ईश्वर - स्वरूप का निर्णय । जो लोग आस्तिक कुल में जन्म लिए हैं , उनको ईश्वर मानने में कोई अड़चन और कोई संदेह नहीं है । कोई अपने माता- पिता या बूढ़े के कहने से ईश्वर को मानते चले आए हैं । उनके बूढ़े लोगों ने ईश्वर के जिस - जिस नाम को लेकर पुकारा है , उन्होंने उसी को जाना है । उनको यह जनाया गया है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? लोग श्रद्धा से मानते चले आए हैं ।

     ईश्वर - स्वरूप का निर्णय विशेष पढ़े - लिखे लोग विवेचना पूर्ण करके जानते हैं । लोग कहते हैं कि यह बात सबकी समझ में नहीं आएगी , इसलिए उनको कहने से क्या लाभ ? किंतु जो नहीं समझेंगे , उनको यदि यह विषय कभी समझाया ही नहीं जाय; तो वे कब समझेंगे ? इसलिए साधु - संतों ने इसको समझा और कहा कि इसको बारम्बार समझाओ । 

     केवल विद्यालयों में ही जाकर ज्ञान नहीं होता है , सुनकर भी ज्ञान होता है, पहले कोई पुस्तक नहीं थी । संसार में सबसे पुराना ग्रन्थ लोग वेद को कहते हैं , लेकिन जब वेद ग्रंथ रूप में नहीं था , तब उसका ज्ञान ऋषियों के मस्तिष्क में था । जब अक्षर नहीं बना था , उस समय जितनी विद्याएँ थीं , लोगों को सुना - सुनाकर सिखलायी जाती थीं । लोगों की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी । लोग सुन सुनकर समझ लेते थे , सीख लेते थे । ज्ञान और विद्या पहले , पुस्तक पीछे हुई । आज भी जो पुस्तक लिखी जाती है , वह ज्ञान पहले मस्तिष्क में रहता है , फिर पुस्तक में लिखते हैं । लोगों की स्मरण- शक्ति जब कम हो गयी , तब लोगों ने उस ज्ञान को रखने के लिए अक्षर बनाया और पुस्तक का रूप दिया । आज भी कितने ज्ञान हैं , जो पुस्तक में नहीं हैं । 

     राहुल सांकृत्यायन से भेंट हुई मुरादाबाद से आते समय । उन्होंने तालपत्र पर लिखे हुए अक्षरों को दिखलाए । पहले भोजपत्र पर , ताम्रपत्र पर लिखते थे , फिर कागज बना और उसपर लोग लिखते हैं । पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी । वह शक्ति आज भी है । आज भी कछ स्मरण - शक्ति है । महर्षि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्दजी जन्मान्ध थे , वे बड़े विद्वान थे । जिस गुरु के शिष्य स्वामी दयानन्द थे , वे गुरु कैसे थे , सो जानिए । विद्या कैसे आती है , इस पर कहा ।

     ऊँचे विद्यालयों में लड़के पढ़ते हैं , अध्यापक कहते हैं , लड़के सुनते हैं , याद रखते हैं और लिख भी लेते हैं । साधु लोग जो सत्संग करते हैं , इसको याद रखो अथवा लिख लो । यदि लिखना नहीं जानते हो तो सुनते सुनते बहुत सीख जाओगे

     हमारे चाचा के पिता एक सुग्गा पालते थे । वह सुग्गा सिखाने पर बहुत बातें सीख गया था । संयोग से एकदिन रात में चोर आया । सुग्गे ने हल्ला किया , ' बाबा हो चोर । लोग जग गए , चोर भाग गया । पक्षी को मनुष्य का संग करते - करते ज्ञान हो गया कि चोर आया है । उसको यह बात सिखलाई नहीं गई थी । पक्षी जब सीख लेता है , तो मनुष्य बार - बार सुन लेने पर क्यों नहीं सीख लेगा ? 

     हमारे यहाँ एक बड़ा भारी काला दाग है कि सभी वर्गों के लोगों को यह उपदेश मत दो । किंतु संत लोग सब ही दिन उदार रहे । ' चहुँ बरना को दे उपदेश ' गुरु नानकदेव ने कहा । आपको इसका इच्छुक होना चाहिए । इच्छा नहीं करते हैं , इसीलिए इससे दूर रहते हैं । लोग राम , शिव , हरि आदि को ईश्वर समझते हैं , परंतु उनसे स्वरूप पूछिए तो चुप हो जाएँगे । कोई सगुण मानते हैं , तो निर्गुण मानते हैं । दूसरा दल कहता है कि क्या ईश्वर है ? 

     एक नास्तिक विद्वान ने मुझसे पूछा कि ' आपका क्या प्रचार है ? ' मैंने कहा - ' ईश्वर - भक्ति । ' उन्होंने पूछा ' क्या ईश्वर है ? ' मैंने कहा - ' हाँ । ' उन्होंने कहा कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ मैंने कहा - ' नहीं मानिए । ' उन्होंने पुनः मुझसे पूछा कि ' तब मेरे लिए आपका क्या प्रचार है । मैंने कहा कि ' आप तो पढे लिखे है , विद्वान हैं , समेटकर बोलिए कि आप क्या चाहते हैं । वे चुप हो गए । तब मैंने कहा - ' यदि आपको ज्ञान और सुख मिल जाए तो कोई इच्छा रहेगी ? उन्होंने कहा – ' नहीं । ' मैंने कहा - ' आपके लिए मेरा यही प्रचार है कि ज्ञान और सुख होता है ध्यान से । आप ध्यान करेंगे तो ज्ञान होगा , सुख होगा और ध्यान के अंत में ईश्वर की प्राप्ति होगी । ध्यानाभ्यास से मन की एकाग्रता होती है । इससे मन में शान्ति आती है और ज्ञान भी बढ़ता है , मुझे विश्वास है कि आप यदि ध्यान के अंत में पहुँचिएगा , तो कहिएगा कि ईश्वर है । 

     लोग कहते हैं कि ' एक प्रह्लाद के लिए भगवान ने अवतार लिया , एक दौपदी के लिए वस्त्रहरण के समय भगवान प्रकट हुए , आज बंगाल में , पंजाब में क्या - क्या हो गया , लेकिन भगवान कहाँ है ? क्या आजकल भगवान ने वैसा करना छोड़ दिया है ? ' किंतु गुण , कर्म से ईश्वर का निर्णय नहीं हो सकता । कितने विद्वानों ने कहा कि ईश्वर श्रद्धा में है , तर्क में नहीं । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा

राम अतक्र्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहु भवानी ॥ 

     किंतु ऐसी बात नहीं । बिल्कुल श्रद्धा - ही - श्रद्धा नहीं , तर्क भी है । अभी पाठ में आपलोगों ने सुना- 

इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रबि सन्मुख तम कबहुँकि जाहीं ॥

तर्क में बतलाया 

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता । अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवद्य अजीता । प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ 

     तब कहा है कि - ' इहाँ मोह कर कारन नाहीं । और कहा - ' अज विज्ञान रूप बलधामा । ' अज=अजन्मा । व्याप्य= जिसमें कुछ समावे । व्यापक=जो समावे । समूचा प्रकृति - मण्डल व्याप्य है , परमात्मा उसमें व्यापक है । अखण्ड =जिसका टुकड़ा नहीं हो । अनन्त=जिसकी सीमा कहीं नहीं , जो असीम है । अगुन = गुणरहित , तीन शक्तियों - गुणों के परे । संसार में तीन गुणों का खेल है । एक वृक्ष , एक पहाड़ या छोटे जीव या मनुष्य का शरीर या ( देवता पर विश्वास रखते हो तो ) देवता का शरीर - इन सबमें तीन गुणों का काम है । रजोगुण - उत्पादक शक्ति , सत्त्वगुण - पालक शक्ति और तमोगुण – विनाशक शक्ति । अगुण तीन गुणों से रहित को कहते हैं । जो व्याप्य में व्यापक है , वह परमात्मा है । किंतु उसी में वह समाप्त नहीं होता । उससे परे भी है । इसीलिए कहा- 

प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्मनिरीह बिरज अबिनासी ॥

     इन सब बातों को बतलाकर कहते हैं कि ' इहाँ मोह कर कारन नाहीं । ' अब यहाँ तर्क होता है कि व्याप्य में व्यापक अर्थात् प्रकृति पार अनंत हो सकता है कि नहीं ? 

     पहले एक अनंत तत्त्व पर विचार करो कि है कि नहीं । यदि कहो कि ' कोई भी अनंत नहीं होगा , सब सान्त - ही - सान्त है । ' प्रश्न होगा कि ' सब सान्तों के बाद में क्या है ? ' सब खेतों की सीमा है , सब खेतों को जोड़कर भूमण्डल होता है । भूमण्डल सान्त हो गया । सारे सान्तों के पार में क्या है ? जबतक एक अनंत नहीं कह दो , तबतक यह प्रश्न सिर से उतर नहीं सकता । इसलिए एक अनंत का मानना अनिवार्य है । अनंत दो नहीं हो सकता । यदि कहो कि ' एक दूसरे में समाते हुए अनंत है । ' तब प्रश्न होगा कि दोनों तत्त्वरूप में एक है कि दो ? यदि एक दूसरे में घुसता है तो जब उसमें घुसता है तो उसमें पोल है , उसका खण्ड हो सकता है । उसके अणु - अणु में वह है , तब वह परमाणु भी उसी से बना होगा , इस तरह अनंत एक ही होगा , दो नहीं । 

     एक एम. ए. , बी ० एल ० ने प्रश्न किया कि ' यदि वह अनंत है तो फिर उसको ईश्वर क्यों मानूं ? ' तो उत्तर होगा - ' अनंत से बाहर कोई नहीं हो सकता । जब सब उसके अंदर में है , तो वह ईश्वर नहीं हुआ तो क्या हुआ ?  जिसके अधीन सब हो । ' अनंत के पहले का कुछ नहीं हो सकता । सबसे पहले का जो है , उसका जन्म नहीं हो सकता । इसलिए वह अज है । अनंत होने के कारण वह सर्वव्यापी है । जो जितना अपना विस्तार विशेष रखता है , वह उतना सूक्ष्म होता है । सूक्ष्म का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं , बल्कि आकाशवत् सूक्ष्म । एक सेर बर्फ लो , उससे एक सेर जल का विस्तार ज्यादा होगा । यदि उसको वाष्प में परिणत किया जाय , तो उसका विस्तार और विशेष होगा । जो जितना सूक्ष्म होगा , वह उतना विशेष पतला होगा । जो जितना विशेष महीन होगा , वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समाया हुआ होगा । जैसे पृथ्वी में जल , जल में अग्नि , अग्नि में हवा और हवा में आकाश । जो सबसे विशेष सूक्ष्म है , वह सबमें व्यापक होगा । इसीलिए अति सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा सर्वव्यापक है । इसीलिए कहा - ' प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ' प्रकृति कहते हैं उस मसाले को , जिससे यह सब कुछ बनता है । बनने में दो भाग करो तो एक पिण्ड , दूसरा ब्रह्माण्ड होगा । पिण्ड - ब्रह्माण्ड में तीन गुणों का खेल होता है । बालकपन का शरीर कहाँ चला गया ? शरीर गया नहीं , बल्कि बदल गया है । यदि तीनों गुणों का काम नहीं हो तो रूप नहीं बदल सकता । उत्पादक शक्ति का काम है - उत्पन्न करना , बदलते जाना । तमोगुण का काम है - नाश करना । ठहरा हुआ है - यह सतोगुण का काम है । तीनों का काम संग - संग होता है । जिसने जन्म नहीं लिया , उसमें तीन गुणों का काम कैसे होगा , इसलिए वह अज है । कार्य और कारण को समझने के लिए प्रकृति कारणरूप है और कार्यरूप में सब चीजें बन गई हैं । 

त्रयगुणों के सम्मिश्रणरूप को प्रकृति कहते हैं । बराबर - बराबर शक्तियों के मिलाप को प्रकृति कहते हैं । इसकी जड़ में तीन गुण हैं । इसलिए अपरा प्रकृति , अष्टधा प्रकृति इसको कहते हैं

     कार्यरूप का जितना फैलाव है , उससे कारणरूप का विशेष फैलाव होता है । जहाँ से कुछ बनने का आरम्भ होता है , वह कारण है । उसके बाद जब कुछ बनता है , तब सूक्ष्म कहलाता है । अद्वैतवादी को पहले से दूसरा तत्त्व नहीं जंचता है । परमात्मा से प्रकृति उपजी हुई है । प्रकृति को अनाद्या भी कहते हैं , इसलिए कि प्रकृति के होने से समय होता है । प्रकृति नहीं होने के पहले देश काल बने , नहीं हो सकता । जब देश और काल नहीं था , तब प्रकृति हुई । इसलिए इसको अनाद्या कहते हैं । प्रकृति देश - काल ज्ञान से अनादि और उपज ज्ञान से सादि है । परमात्मा अनादि के भी आदि हैं । ' अनादिर आदि परम कारण

     जो असीम है , सर्वव्यापी है , जो गुण रहित है , अज है , ऐसा तत्त्व टूटनेवाला नहीं हो सकता । इसलिए अखण्ड है । इस तरह ईश्वर का स्वरूप है । किंतु उसके कार्य से ईश्वर माना जाय , हो नहींं सकता । ससीम बुद्धि से असीम परमात्मा के कार्य का वर्णन किया जाय , नहीं हो सकता । 

     बुद्धि रबड़ का एक थैला है । रबड़ के थैले में हवा भरो , हवा विशेष भरने से थैला फट भी सकता है । उसी तरह बुद्धि को समझो । ईश्वर को सुगम रीति से जानने के लिए क्या करो ? बाहर में आपकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , भीतर में मन है । मन से कुछ करते हैं । इसको बुद्धि से विचारते हैं । बुद्धि पीछे बनी । फिर मन और पीछे बाहर की इन्द्रियाँ बनीं । जो जितना पीछे बना , वह उतना स्थूल है । बुद्धि सूक्ष्म है । उससे स्थूल मन है । उससे और इन्द्रियाँ स्थूल हैं । बुद्धि को सारथी , मन को लगाम और इन्द्रियों को घोड़े कहा गया है । सबसे सूक्ष्म परमात्मा हैं । स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । हाथ में बांधने की घड़ी और दीवार में टाँगने की घड़ी दोनों में एक ही तरह के यंत्र हैं , किंतु दोनों घड़ियों में एक ही औजार से काम नहीं होता । बड़ी घड़ी के लिए बड़े - बड़े और छोटी घड़ी के लिए छोटे - छोटे यंत्र काम में लाते हैं । परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म हैं , इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल हैं । इन स्थूल इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्मा ग्रहण होने योग्य नहीं हैं । 

     सामने में जो प्रत्यक्ष दृश्य है , उसको ग्रहण करने के लिए आँख है , किन्तु आँख को फोड़कर कान से देखना चाहें , तो नहीं होगा । कान से शब्द सुन सकते हैं । पाँच विषयों को ग्रहण करने के लिए पाँच इन्द्रियाँ हैं । रूप क्या है ? जिसको आँख से ग्रहण करें । शब्द क्या है ? जिसको कान से सुन सकते हैं । इसी तरह ईश्वर क्या पदार्थ है ? जो केवल चेतन आत्मा से ग्रहण होता है । यदि कहो कि प्रत्यक्ष दिखलाओ तो प्रत्यक्ष आँख से नहीं हो सकता । मैं इसकी क्रिया - युक्ति बतलाता हूँ , अपने को शरीर - इन्द्रियों से छुड़ाकर कैवल्य दशा प्राप्त करो तब प्रत्यक्ष होगा । 

     इसके लिए मन को एकाग्र करो । मन को एकाग्र करने के लिए लोग मोटे - मोटे काम करते हैं , परंतु पूरा एकाग्र नहीं होता । पूर्णता के लिए ध्यानाभ्यास करो । ध्यानाभ्यास का अर्थ यह नहीं कि मोटे - मोटे कर्मों को नहीं करो । मोटे - मोटे कार्यों - सत्संग , पूजा - पाठ से भी सिमटाव होता है विशेष सिमटाव मंत्र - जप से होगा । इससे भी विशेष सिमटाव मूर्ति - ध्यान से होगा

      भगवान बुद्ध की मूर्ति को भिक्षु लोग बनाते थे । लोगों ने पूछा कि ' भिक्षु ! यह क्या करते हो ? ' उन्होंने कहा कि ' इस मूर्ति को बनाते - बनाते इसका रूप मन में छप जाएगा । ' इसी के लिए हमारे यहाँ प्रतिमा - पूजन है केवल प्रणाम करके चलने के लिए नहीं । प्रतिमा देखो और उसका ध्यान करो । एक पंडित ने मुझसे पूछा कि ' आप प्रतिमा को मानते हैं कि नहीं ? ' मैंने कहा कि ' मानता भी हूँ और नहीं भी मानता हूँ । ' ध्यान करने के लिए प्रतिमा को मानता हूँ और मेला लगाकर पैसा कमाने के लिए नहीं । ' 

     प्रतिमा का ध्यान क्यों किया जाया , इसका भी उत्तर है । एक मौलवी थे । उन्होंने कहा कि ' हिन्दू लोग बहुत ईश्वर मानते हैं । ' मैंने उनसे कहा कि ' आप एक शरीर में रहते हैं , इसलिए आपका शरीर है खुदा सबमें रहते हैं , इसलिए सब शरीर खुदा के है । इस तरह हिन्दू लोग सब रूपों को ईश्वर का रूप मानकर पूजते हैं । ईश्वर सबमें रहते हैं । ' जैसे तुम घर में रहते हो , तुम घर नहीं हो ।मूर्ति में परमात्मा है , मूर्ति परमात्मा नहीं है । 

     श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ कहकर इसको अच्छी तरह समझाया गया है । मूर्ति - पूजा इसलिए है कि शक्ल का ध्यान करो । मूर्ति में ईश्वर हैं , मूर्ति ईश्वर नहीं है । मूर्ति का ध्यान करो , इससे एकाग्रता होगी , किंतु इससे पूर्ण सिमटाव नहीं होगा ।

     श्रीमद्भागवत के एकादश अध्याय में उद्धवजी को भगवान श्रीकृष्णजी ने कहा कि ' पहले मेरे सर्वांग शरीर का ध्यान करो , फिर मेरे मुस्कानयुक्त मुखारविन्द का , फिर शून्य में ध्यान करो ।' 

     भगवान ने शून्य - ध्यान करने कहा । विन्दु - ध्यान शून्य ध्यान है । विन्दु - ध्यान शून्य - ध्यान क्यों है ?  विन्दु कहते हैं - परिमाण - शून्य , नहीं विभाजित होनेवाले चिह्न को । यह शून्य न हो गया तो क्या हुआ । इस प्रकार विन्दु - ध्यान से पूर्ण सिमटाव होगा । सिमटाव में ऊर्ध्वगति होगी । ऊर्ध्वगति में उठते - उठते कैवल्य दशा प्राप्त होगी , फिर ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी । 

     ईश्वर - स्वरूप का ज्ञान हो , फिर उसकी पहचान हो । पहले जानकर ज्ञान हो , फिर पहचान कर ज्ञान हो । जबतक पहचान कर ज्ञान नहीं हो , तबतक कल्याण नहीं । इसके लिए आपका चरित्र बहुत अच्छा होना चाहिए । झूठ बोलना , चोरी करनी , नशा खाना , व्यभिचार करना और हिंसा करनी - इन पाँचों महापापों को छोड़ने से चरित्र अच्छा होगा ।∆


 ( यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर तेतराही में दिनांक २३.६.१९५५ ई० को अपराहनकालीन सत्संग में हुआ था । n 

नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर में प्रकाशित रूप में पढ़ें-


महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 117 पृष्ठ 0

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 117 पृष्ठ 1

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 117 पृष्ठ 2

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 117 पृष्ठ 3



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S117, पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी ।। Moorti Pooja ke Vaigyaanik phaayade ।। २३.६.१९५५ ई०अपराह्न S117, पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी ।। Moorti Pooja ke Vaigyaanik phaayade ।। २३.६.१९५५ ई०अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/24/2021 Rating: 5

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