महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 122
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 122 के बारे में। इसमें बताया गया है कि उपनिषदों में ईश्वर के बारे में क्या कहा गया है? माया किसे कहते हैं? श्राद्ध क्रिया क्यों करते हैं? सावित्री और सत्यवान की कथा क्या है? पतिव्रता से क्या-क्या प्राप्त हो सकता है?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- लोग क्या पसंद करते हैं? परमानंद की प्राप्ति कैसे होगी? गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ईश्वर के बारे में क्या कहते हैं? उपनिषदों में ईश्वर के बारे में क्या कहा गया है? माया किसे कहते हैं? श्राद्ध क्रिया क्यों करते हैं? सावित्री और सत्यवान की कथा क्या है? पतिव्रता से क्या-क्या प्राप्त हो सकता है? ईश्वर-भक्ति किसे कहते हैं? ईश्वर की पहचान कैसे होती है? तुलाधार वैश्य की कथा, सत्य की महिमा, इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- पतिव्रता नारी कौन है? पतिव्रता कैसे बने? नारी के कितने गुण होते हैं? पतिव्रता का मतलब क्या होता है? पतिव्रता नारी की कथा, पतिव्रता नारी के गुण, पतिव्रता स्त्री की पहचान, पतिव्रता नारी का भजन, पतिव्रता का अर्थ, स्त्री में कितने गुण पाए जाते हैं, पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य, नारी धर्म क्या है, माया की परिभाषा क्या है? मोह को कैसे त्यागे? माया का स्वरूप क्या है? प्रकृति और माया में क्या अंतर है? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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१२२. तुलाधार वैश्य की तपस्या
प्यारे लोगो !
संसार में जितने शरीरधारी हैं , सब-के-सब कष्ट मालूम करते रहते हैं । मालूम होता है कि कष्ट छूट नहीं रहा है ।
दुःख किसी को पसन्द नहीं है । जिसका कभी नाश नहीं हो , ऐसा सुख संसार में किसी को नहीं मिलता । पुराने इतिहासों से तथा आधुनिक इतिहासों से पता चलता है कि शरीर में रहते हुए इस तरह से सुखी नहीं हो सकते । जो सुख सदा रहता है , कभी नष्ट नहीं होता , उसकी सदा इच्छा करते चले आ रहे हैं । वह सुख ईश्वर की भक्ति में है । ईश्वर को प्राप्त करो , तो वह सुख मिलेगा । जो माया को पहचानते हैं , जानते हैं , मायिक काम करते हैं , वे माया के अंदर सुख - दुःख भोग करते हैं , बिल्कुल माया के सुख - दुःख में पड़े रहते हैं ; किंतु ईश्वर को पाने से ये सुख - दुःख नहीं रहते । माया में रहकर ईश्वर को प्रत्यक्ष नहीं पा रहे हैं । इसलिए चाहिए कि सब कोई ईश्वर की भक्ति करें ।
ईश्वर की भक्ति करने के लिए पहले ईश्वर- स्वरूप को समझो कि वह कैसा और क्या है ? ईश्वर - स्वरूप के ज्ञान के लिए ही आपलोगों ने उपनिषद् के वचन सुने , गोस्वामी तुलसीदासजी के मानस का पाठ सुना
जो माया सब जगहि नचावा । जासु चरित लखि काहु न पावा ।। सो प्रभु भूबिलास खगराजा । नाच नटी इव सहित समाजा ।। सोइ सच्चिदानंद घन रामा । अज विज्ञान रूप बल धामा । व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोध सक्ति भगवन्ता ।। अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवद्य अजीता ।। निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।। प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रबिसन्मुख तम कबहुँकि जाहीं ॥ भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धेरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ॥ जया अनेकन वेष धरि , नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ , आपुन होइन सोइ ।
आपलोगों ने उपनिषद् के वचनों में सुना
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनायनन्तं महतःपरंध्रुवं निचाय्य तन्मृत्यु मुखात्प्रमुच्यते ॥ -कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३
अर्थात् जो अशब्द , अस्पर्श , अरूप , अव्यय तथा रसहीन , नित्य और गंधरहित है , जो अनादि , अनंत महतत्त्व से भी पर और ध्रुव ( निश्चल ) है उस आत्मत्त्व को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख जाता है ।
ईश्वर - स्वरूप समझाने के वास्ते पाठ कराया गया । पाठ में यह था कि जो कुछ आँख से देखते हैं , कान से सुन सकते हैं , हाथ से छूते हैं , जिस वस्तु से किसी प्रकार की गंध मालूम हो , जिभ्या से जो मालूम हो , वह माया है । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द - ये पाँचों माया ही माया हैं ।
इस तरह हमलोगों को ये ही मालूम होते हैं उपनिषद् कहती है जिसे इन्द्रियों से पहचानते हैं , वह ईश्वर नहीं है , माया है बुद्धि भी उस परमात्मा के स्वरूप को नहीं पहचान सकती । बुद्धि निर्णय कर सकती है । लोग तब पूछते हैं कि मन - बुद्धि और इन्द्रियों के ज्ञान में जो नहीं हैं , वह किससे छूआ जाएगा , पकड़ा जाएगा ? तो जानो कि शरीर में इन्द्रियों और मन - बुद्धि से परे चेतन आत्मा है । इन्द्रियों और मन बुद्धि के सहित शरीर के अंदर चेतन आत्मा है । शरीर छूट जाता है । शरीर छूटने पर उससे क्या निकल गया , लोग देखते नहीं हैं ; किंतु कहते हैं कि इससे जीवात्मा निकल गया । ज्ञान इस बात को कहता है ।
श्राद्ध - क्रिया का मूल आधार यही है । यदि यह विश्वास नहीं हो कि इस शरीर से जीवात्मा चला गया , तो श्राद्ध - क्रिया नहीं कर सकते । विश्वास किया जाता है कि शरीर से जीवात्मा निकल गया है , उसका कल्याण हो । इसीलिए श्राद्ध - क्रिया करते हैं । शरीर के अंदर जो मन - बुद्धि हैं , हम उनको भी नहीं पहचानते हैं , उनके कर्मों को जानते हैं शरीर से चेतन आत्मा निकलती है तो अकेली नहीं । उसके साथ मन , बुद्धि और सूक्ष्म शरीर भी जाता है । लोग उसको प्रत्यक्ष नहीं देखते ; किंतु ज्ञान से जानने में आता है । इसके लिए महाभारत में कथा भी है ।
सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ । नारदजी से सावित्री को जानकारी मिल गई कि सत्यवान की मृत्यु अमुक तिथि को अमुक समय में होगी । सत्यवान के माता - पिता अंधे थे । उनका राज्य भी छिन गया था । इसलिए वे लोग जंगल में रहते थे । सत्यवान लकड़ी काटकर जीवन - यापन करते थे । जब सत्यवान की मृत्यु का समय आ गया , तो सावित्री ने सत्यवान से कहा कि आज आपके साथ मैं भी जंगल जाऊँगी । सत्यवान ने कहा – यदि तुम मेरे साथ जंगल जाना चाहती हो , तो माताजी तथा पिताजी से आज्ञा ले लो । सावित्री बड़ी नम्रता से सास - ससुर से निवेदन करती है कि आज मैं भी पतिदेव के साथ जंगल देखने जाना चाहती हूँ । दोनों सास - ससुर की आज्ञा हो गई । सत्यवान के साथ सावित्री भी जंगल गई । जब सत्यवान गाछ पर चढ़कर लकड़ी काटने लगे , तो ऊपर से ही वे सावित्री से कहते हैं कि मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है । सावित्री ने कहा - आप वृक्ष से नीचे उतर आवें । नीचे उतरते ही सत्यवान बेहोश हो गए । सावित्री अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर बैठी है । सत्यवान को लेने यमदूत आता है । लेकिन सावित्री के पातिव्रत्य के तेज के कारण वह समीप नहीं आ सका । तब यमराज स्वयं आए और सत्यवान के सूक्ष्म लिंग शरीर को लेकर चलने लगे । सावित्री भी यमराज के पीछे - पीछे चलने लगी । यमराज ने पूछा - तुम क्या चाहती हो ? यदि कुछ वरदान माँगना हो तो मुझसे माँगो । सावित्री ने कहा - ' मेरे अंधे सास - ससुर मेरे सौ पुत्रों को भोजन करते देखें और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल जाय । यमराज ने कहा - एवमस्तु ! जब यमराज आगे बढ़े , तो सावित्री फिर उनके पीछे चलने लगी । यमराज ने पूछा - ' तुमको मैंने वरदान दे दिया , अब क्यों मेरे पीछे आ रही हो ? ' सावित्री ने कहा ' आप तो मेरे पति को लिए जा रहे हैं , मुझे सौ पुत्र होंगे कैसे ? ' यमराज चकित हो गए और सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को उसके स्थूल शरीर में वापस कर दिया ।
इस कथा से जानने में आता है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर भी है । किंतु ज्ञान कहता है कि केवल सूक्ष्म शरीर ही नहीं है । कारण , महाकारण और कैवल्य शरीर भी हैं । अपने कर्मानुसार यह जीवात्मा उन लोकों में जाकर दुःख - सुख भोगता है । एक सती स्त्री ( सावित्री ) के प्रभाव से कितना लाभ हुआ कि सौ पुत्र हुए राजा का राज्य लौट गया , अंधे - अंधी को फिर आँखें मिल गईं । इसीलिए स्त्रियों को पातिव्रत्य धर्म धारण करना चाहिए और पुरुष भी एकपत्नीव्रत धारण कर रहें तो उनका बहुत कल्याण होगा , किंतु कह सकूँगा कि इससे बिल्कुल कष्ट छूट नहीं जाते । बिल्कुल दुःख तो ईश्वर - भजन से छूट सकता है ।
हाँ , तो मैं कह रहा था कि ईश्वर को चेतन आत्मा ही पहचान सकती है । यह चेतन आत्मा न स्त्री है और न पुरुष है , न नपुंसक है । ईश्वर - भक्ति की पराकाष्ठा यही है कि ईश्वर मिल जाय । जिस काम के करने से ईश्वर मिल जायँ , वही ईश्वर- भक्ति है । मन - इन्द्रियों के संग जबतक कोई रहेगा , तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकता । मन , बुद्धि आदि इन्द्रियों और स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण को पार कर कैवल्य दशा प्राप्त कर लेने पर ईश्वर की पहचान होती है ।
ईश्वर की भक्ति करने के लिए शुद्धाचरण से रहना चाहिए । अंत : करण में मलिनता नहीं रखनी चाहिए अपने को शरीर और मन आदि इन्द्रियों से छुड़ाने के लिए ईश्वर का ध्यान करना चाहिए ।
ध्यान कैसे किया जाय ? संसार के जितने रूप हैं , सबमें ईश्वर है किसी रूप को इष्ट मानकर उनका ध्यान करो । चाहे माता के रूप में मानो , पिता के रूप में मानो , गुरु - रूप को मानो , कृष्ण , राम किसी रूप को मानकर उसका ध्यान करो ।
तुलाधार वैश्य अपने घर में रहकर रोजगार करता था ; लेकिन वह बड़ा ही सत्यनिष्ठ था । अपनी माता तथा पिता की सेवा करता था । उसी समय जाजलि मुनि तप करते थे । उनको अपने तप का घमण्ड हुआ कि मैं बड़ा तपी हूँ । उसी समय आकाशवाणी हुई कि अभी तक तुम तुलाधार वैश्य के समान नहीं हुए हो । जाजलि मुनिजी तुलाधार के यहाँ गए । तुलाधार ने कहा - ' महाराज ! आप तप कर रहे , आपकी जटा में चिड़िया ने घोंसला बनाया , अण्डा दिया और उससे बच्चा हुआ वह बच्चा उड़ भी गया । इसी का आपको घमण्ड है । ' मुनि ने तुलाधार से पूछा - ' तुम घर बैठे मेरे तप की सारी बातें कैसे जान गए ? ' तुलाधार ने कहा - ' देखिए मैं लोगों को सौदा देता हूँ , डण्डी को सीधा रखता हूँ । तात्पर्य यह कि मैं इस व्यापार में जरा भी असत्य का व्यवहार नहीं करता हूँ और भगवान का भजन करता हूँ । सबों को मैं ईश्वर का रूप मानता हूँ । इसीलिए किसी के साथ मैं बुरे व्यवहार नहीं करता हूँ । '
कहने का मतलब है कि किसी रूप में ईश्वर को मानो । मानो कि वह रूप ईश्वर का ही है । तब उसका ध्यान करो । इतने में ही समाप्त नहीं है इसके बाद और है भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है जितने विभूतिवान , तेजवान रूप हैं , सब मेरे ही रूप हैं । फिर कहते - कहते अणोरणीयाम् के लिए भी कहा और कहा कि शब्द ब्रह्म भी मेरा ही रूप है । इस प्रकार स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण ; सबको पारकर कैवल्य अवस्था प्राप्त करनी होती है । फिर परमात्मा की पहचान होती है । ∆
( यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत मारवाड़ी पंचायती धर्मशाला , साहेबगंज में दिनांक ४.८.१९५५ ई० को प्रात:कालीन सत्संग में हुआ था । )
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 123 को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि उपनिषदों में ईश्वर के बारे में क्या कहा गया है? श्राद्ध क्रिया क्यों करते हैं? सावित्री और सत्यवान की कथा क्या है? माया किसे कहते हैं? पतिव्रता से क्या-क्या प्राप्त हो सकता है? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
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