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S107, कायारूप कपड़ों को धो डालो ।। Yog Nidra kaise Karen ।। महर्षि १२.३.१६५५ ई० रात्रि.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 107

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 109 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  जिसकी सुरत सिमटती है , पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चला जाता है । वह जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में नहीं रहता तुरीय अवस्था में रहता है । वह संसार के ख्यालों से ऊपर उठा हुआ होता है ; इसीलिए वह बाहर संसार से सोया हुआ है ; लेकिन अंदर में जगा हुआ है ।...वह अपने अन्दर सारे विश्व को देखता है । गोया सारे दृश्य को अपने अन्दर घुसाकर देखता है । वह हरि - पद का अनुभव करता है , द्वैत से हटा रहता है और अद्वैत पद में स्थित रहता है । 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 106 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


सृष्टि का निर्माण और तुरिया अवस्था पर प्रवचन करते हुए सद्गगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
सृष्टि का निर्माण तुरीय अवस्था पर प्रवचन

योग निद्रा कैसे करते हैं? How do yoga sleep?

 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  जीव  शरीर में किस प्रकार बंधा है इसे क्रम से समझें।अपनी पहचान कैसे होती है? महाकारण किसे कहते हैं? साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृति किसे कहते हैं? कारण किसे कहते हैं? सूक्ष्म और स्थूल शरीर क्या है? स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कैसे पवित्र होते हैं? संतों की साधना कैसी है?  पांच तत्वों के पांच रंग कौन-कौन से हैं? नम्रता से रहने से क्या होता है? अणोरणीयाम् किसे कहते हैं ? अणोरणीयाम् का दर्शन कैसे होता है? आशा का महत्व । साधना में कैसे तरक्की होती है? साधना की तरक्की का क्रम क्या है? परमात्मा-घर में बासा कैसे होता है? भक्ति का सार क्या है? अभ्यास करने का महत्व क्या है? योग निद्रा क्या है? योगनिद्रा में क्या होता है ? योग निद्रा के फायदे। स्थूल भक्ति और सूक्ष्म भक्ति क्या है? भक्ति का आरंभ और अंत कहां है? बैठे रह कर कैसे चलते हैं? अंदर अंदर चलना क्या है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- योगनिद्रा कब करे? योग निद्रा के लाभ क्या है? योग निद्रा कैसे करते हैं? निद्रा को कैसे जीते? योगनिद्रा के फायदे, योगनिद्रा मराठी, योगनिद्रा संगीत, योग निद्रा व ध्यान में अंतर, योगनिद्रा का अभ्यास, योग निद्रा सद्गुरु महर्षि मेंहीं, योग निद्रा, योग निद्रा साइड इफेक्ट्स, स्थूल और सूक्ष्म में अंतर, ज्ञान और सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म शरीर का अर्थ, सूक्ष्म शरीर साधना, सूक्ष्म शरीर कितने तत्वों का है, स्थूल शरीर का अर्थ, सूक्ष्म शरीर के अवयव, स्थूल शरीर किस पर आधारित है, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

१०७. कायारूप कपड़ों को धो डालो 


परमात्म-भक्ति की महिमा को समझाते हुए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

बंदौं गुरु पद कंज, कृपा  सिंधु  नर  रूप  हरि । 

महा मोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

     भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि जिस तरह मूंज से खींच - खींचकर सींक निकालते हैं , उसी तरह योगी आत्मा से शरीर को भिन्न करके देखते हैं । तब अपने से अपनी पहचान होती है। सींक के ऊपर कई खोल चढ़े होते हैं । एक-एक करके निकालने पर अंत में सींक मिलती है । 

     इसी तरह शरीर के अंदर जीवात्मा है । उसके ऊपर पहला खोल जड़ का है , वह है महाकारणमहाकारण कहते हैं त्रयगुणों के सम्मिश्रण रूप को । वहाँ तीनों गुणों की शक्ति बराबर-बराबर रहती है ।

     जहाँ तीनों गुणों की शक्ति बराबर रहती है , उसको कहते हैं साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृतिजड़ का पहला खोल यह है । इसके अंदर में दूसरा खोल है , जिसको कारण कहते हैं । 

     महाकारण का कोई भाग जब परमात्मा की मौज से कम्पित होता है अर्थात् महाकारण के जिस भाग में तीनों गुणों की सम अवस्था छूटती है , तब कुछ रचना होती है । वही कारण है ।

     उसके ऊपर है सूक्ष्म । जिसको इन्द्रियों से नहीं देख सकते ; किंतु रूप - रेखा बन जाती है । उसके ऊपर स्थूल शरीर है , जो हाड़ , मांस , चाम से बना है । इस प्रकार जीवात्मा के ऊपर चार जड़ शरीर हैं

     इसी के लिए संत कबीर साहब के वचन में - 'धूंघट' शब्द आया है । इन चारों को खोल दें , तो फिर ईश्वर - दर्शन में कोई रुकावट नहीं । इसी को गुरु नानक साहब दूसरी तरह से कहते हैं 

घरि महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु । 

     स्थूल में सूक्ष्म , सूक्ष्म में कारण और कारण में महाकारण व्यापक है । इसी को संत दादू दयालजी ने कहा है 

'घरमा घर निर्मल राखै , पंचौं धोवै काया कपरा।'

       घर में घर को पवित्र रखो और पाँचों कायारूप कपड़ों को धो डालो । स्थूल की पवित्रता बाहरी शौच और अंतःकरण की शुद्धता से होती हैस्थूल की लपेट सूक्ष्म पर से उतर गया , सूक्ष्म पवित्र हो गया । इसी प्रकार कारण और महाकारण के संबंध में समझिए । चेतनमय शरीर तब धुल गया , जब महाकारण उस पर से उतर गया । कहने का ढंग अलग - अलग है , किंतु सब हैं एक तरह । जैसे कई बाजाओं के तारों को एक समान कसकर रखिए , तो सबसे एक ही तरह की ध्वनि निकलेगी । मालूम होता है कि इन सब संतों ने एक ही तरह की आत्मोन्नति की थी और एक ही तरह की साधना की थी । केवल कहने का ढंग अलग-अलग है ।

     इन शरीर - रूपी कपड़ों से - धूंघट से जो अपने को नहीं निकालता , वह घर में घर को नहीं देखता तथा वह ईश्वर को नहीं पा सकता । घमण्डी बनकर संसार में मत रहो । यह शरीर पंचरंगा चोल है । पाँच तत्त्वों के पाँच रंग हैं पृथ्वी का रंग पीला , जल का रंग लाल , अग्नि का रंग काला , हवा का रंग हरा और आकाश का रंग उजला है

      इसके अंदर के शरीर भी प्रलयकाल में नष्ट होनेवाले हैं और बहुत बाधक हैं । जिस तरह फल खा लो और बीज रह गया , तो फिर उससे गाछ हो जाता है , उसी तरह स्थूल शरीर - रूप गूदा तो नष्ट हो जाता है और बीजरूप सूक्ष्मादि शरीर रह जाते हैं , तो फिर स्थूल शरीर हो जाता है ।

     घमण्डी की सुरत फैली हुई होती है और नम्रता से रहनेवाले की सुरत सिमटती है । मन के सारे संकल्पों को छोड़ दो , शून्य महल में दियना जलेगा । 

     एक ऐसी वस्तु पर अपने को लगाओ , जो बाहर में नहीं है और जिसे कभी देखा नहीं है । वह शून्य है, उपनिषद् का अणोरणीयाम्जो यत्न से युक्तिपूर्वक दृष्टिधारों को गुरु के बताए हुए अनुकूल रखता है, यानी ऐसा रखता है कि दोनों दृष्टियों की नोक मिलकर एक हो जाती है तब विन्दु उदय होता है। यह केवल समझाने और कहने की बात नहीं है । अभ्यास करके देखने की बात है । जिस तरह से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाने से पानी हो जाता है ( मिलाकर देख लो ) , उसी तरह दोनों दृष्टियों की धारों को मिलाओ , देख लोगे कि अणोरणीयाम् है । 


     जो प्रयोग कर लेता है , वह देख लेता है । उसकी साधना करो , अवश्य होगा । आशा से मत डोलो । निराशा गिराती है , आशा ऊपर चढ़ाती है । होने योग्य काम भी निराशा होने से नहीं होता है । कठिन - से - कठिन काम भी आशा से धीरे - धीरे करते - करते पूरा होता है । यह योग की युक्ति है । प्रयोग करो , पाओगे । 

     अपने अंदर में जैसे - जैसे कोई प्रवेश करता है , वैसे - वैसे अंतर्नाद  सुनता है और शब्द के साथ उसके उद्गम स्थान तक पहुँच जाता है । परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । इसी तरह गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है -

'पंचशबदुधुनिकार धुन , तहँ बाजै सबदुनिसाणु ॥ सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मंडल लिव लाइ । अकथ कथा वीचारीजै, मनसा मनहि समाइ । सभि सखिया पंचे मिलै , गुरुमुखि निज घरि वासु । सबदु खोजि इहु धरु लहै , नानकु ताका दासु ॥'

      गुरु नानक साहब के दर्जे के जितने संत हुए , सभी को ‘ पंच सबदु धुनिकार धुन ' मिले । जिनको ये शब्द मिलते हैं , उनका परमात्म - घर में वासा होता है । संत दादू दयालजी घर में घर को पवित्र रखने के लिए कहते हैं । पवित्र कैसे होगा? सो पहले कहा जा चुका है । 

     त्रिवेणी तट पर अपनी वृति को रखकर शम - दम की साधना करो, तो पाँचों शरीर - रूप कपड़े धुलेंगे । और जहाँ सुरत की बैठक है , उसके सामने ही उसकी स्थिति बन जाएगी । वह ईश्वरीय आकर्षण से उधर को खींच जाएगा । सुरत सम्मुख जगेगी और वह पकड़ा जाएगा। इस तरह भक्ति करते हुए, अपना उद्धार होगा, यह भक्ति का सार है  

     साथ - ही - साथ यह रास्ता सँकरा है । यह हाथी - घोड़ा ले जाने का रास्ता नहीं है । इसमें सुरत जाती है । इसके लिए तंग रास्ता है । इसी तरह ' रघुपति भगति करत कठिनाई ' गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है । घबराओ नहीं , कठिन काम है तो यह समझो कि जो जिस कला में पारंगत हो जाता है , विशेष अभ्यस्त हो जाता है तो वह विद्या उसके वास्ते सुगम और सुख देनेवाली हो जाती है । अभ्यास किए बिना कोई अभ्यस्त नहीं होता छोटी मछली नाले में भाठे से सिरे की ओर जिसकी धारा तेज होती है , चली जाती है । किंतु गंगा की चौड़ी धारा में हाथी नहीं जा सकता , वह बह जाता है । बालू और चीनी का मिश्रण करने से वह बुद्धिमान प्राणी जो मनुष्य है , वह उसको अलग-अलग नहीं कर सकता ; किंतु छोटी चींटी चीनी को चुन लेती है और बालू को छोड़ देती है । सिमटी हुई सुरत सफरी है , चींटी है और फैली हुई सुरत हाथी है ।

     जिसकी सुरत सिमटती है , पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चला जाता है । वह जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में नहीं रहता तुरीय अवस्था में रहता है । वह संसार के ख्यालों से ऊपर उठा हुआ होता है ; इसीलिए वह बाहर संसार से सोया हुआ है ; लेकिन अंदर में जगा हुआ है गोस्वामीजी ने कहा है 

मोह निसा सब सोवनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ।। यहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी । 

     वह अपने अन्दर सारे विश्व को देखता है । गोया सारे दृश्य को अपने अन्दर घुसाकर देखता है । वह हरि - पद का अनुभव करता है , द्वैत से हटा रहता है और अद्वैत पद में स्थित रहता है । वह अद्वैत पद कैसा है ? तो कहा  

'सोक मोह भय हरष दिवस निसि , देस काल तहँ नाहीं ।' 

      गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस अंदर दशा से जो हीन है , उसका संशय निर्मूल नहीं होता है । यह सूक्ष्म भक्ति है । हाँ , कुछ मोटी बात भी है - जप करो , कीर्तन करो । किंतु जबतक कोई यहाँ नहीं आता , देश - काल से परे नहीं हो जाता , तबतक भक्ति समाप्त नहीं होती । यह अन्तस्साधना के विषय की बात है । अभ्यासी शून्य में आरूढ़ रहता है , जहाँ एक शून्य से दूसरे शून्य में जाता है । ऐसे द्वार पर चढ़ो , जिससे अंधकार के आकाश से प्रकाश के आकाश में जा सको । इसी के लिए राधास्वामी साहब कहते हैं

 सखी री क्यों देर लगाई , चटक चढ़ो नभ द्वार । 

     मन और दृष्टि को दसवें द्वार पर स्थिर करके रखो । स्थिर रखना ही चलना है- 

बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई ।।  है कुछ रहनि गहनि की बाता । बैठा रहे चला पुनि जाताकहै को तात्पर्य है ऐसा । जस पंथी वोहित चढ़ि बैठा ।।' 

     इस नगरी में अंधकार समाया हुआ है । इसलिए भूल भ्रम हर बार होते रहते हैं । अपने अंदर की ज्योति की खोज करो । अपने अंदर - अंदर चलो । चलने के लिए जो जहाँ बैठा रहता है , पहले वहीं से चलता है । तुम अंदर में जहाँ बैठे हुए हो , अंदर - अंदर वहाँ से चलो । संतों ने अंदर - अंदर चलने का आदेश दिया है ।∆

(यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत कहलगाँव के धर्मशाला में दिनांक १२.३.१६५५ ई० को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था । ) 


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें- 

इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  Srshti ka nirmaan, jeevaatma ke oopar kitane shareer hain? santon ke anusaar ghunghat ka arth, santo ke vichaar mein ekata, paanch tatv ke naam, aur paanch tatvon ke rang, dhairy kee visheshata,  eeshvar bhakti kaise karate hain? abhyaas ka mahatv, turiya avastha mein kaun jaata hai? bhakti kee samaapti kahaan hotee hai?  jaanate hue bhee ham log galatee kyon kar baithate hain?     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- Srshti kee rachana kaise huee? srshti ka nirmaan kab hua?brahmaand kee utpatti kaise huee? srshti mein sabase pahale kaun paida hua? srshti kee utpatti kab aur kaise huee, srshti ke rachayita kaun hai, vedon ke anusaar srshti kee utpatti, srshti kee paribhaasha, srshti rachana kee katha, sansaar kee rachana kaise huee, srshti ka arth, srshti ko rachane vaalee shakti, srshti kumaaree, srshti kee rachana, srshti ka speling, srshti,srshti ka nirmaan aur tureeya avastha,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के लिए पढ़ें-


महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 107

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 107a

Dddf महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 107b


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महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S107, कायारूप कपड़ों को धो डालो ।। Yog Nidra kaise Karen ।। महर्षि १२.३.१६५५ ई० रात्रि. S107,  कायारूप कपड़ों को धो डालो ।।  Yog Nidra kaise Karen ।। महर्षि १२.३.१६५५ ई० रात्रि. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/10/2020 Rating: 5

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