महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 59
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ५९वां, के बारे में। इसमें बताया गया है कि सुमिरन की महिमा, सहज रूप सुमिरन क्या है?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- सुमिरन की महिमा, सहज रूप सुमिरन क्या है? श्रीमद्भागवत गीता में सुमिरन, कबीर वाणी में सुमिरन, सत्संग का उद्देश, ईश्वर दर्शन की लालसा, अभ्यास का महत्व, इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- सिमरन का अर्थ क्या है? सुमिरन का अर्थ, सुमिरन का हिंदी अर्थ, सुमिरन का पर्यायवाची, सुमिरन का महत्व, शब्दों के अर्थ लिखिए-सुमिरन, सुमिरन शब्द का अर्थ, अरे मन सुमिरन क्यों नहीं करे, राम नाम का सुमिरन करले, भजन सुमिरन क्यों नहीं करे, नाम सुमर ले सुमिरन करले, सतगुरु कबीर की वाणी, सुमिरन साहेब के भजन, सुमिरन क्यों नहीं करे लिरिक्स, सुमिरन क्यों नी करे नागर जी का भजन, कबीर साहब का भजन, कबीर साहेब के भजन, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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How to Importance Sumiran
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! सन्त कबीर साहब ने कहा है " पिउ पिउ फरि करि कूकिए , ना पडि रहिये असरार । बार बार के कूकते , कबहुँक लगे पुकार ॥ " । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----सुमिरन की महिमा, सहज रूप सुमिरन क्या है? श्रीमद्भागवत गीता में सुमिरन, कबीर वाणी में सुमिरन,सुमिरन का महत्व, सुमिरन कैसे करें? स्वामी विवेकानंद का सुमिरन,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
५९. सहज रूप सुमिरन करें।
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
सन्त कबीर साहब ने कहा है " पिउ पिउ फरि करि कूकिए , ना पडि रहिये असरार । बार बार के कूकते , कबहुँक लगे पुकार ॥ "
ईश्वर का नाम सदा जपो । जपते - जपते कभी - न- कभी अवश्य पुकार सुनी जाएगी । " पड़ा रह सन्त के द्वारे , तेरा बनत बनत बन नाय । "
सन्त दादू दयाल साहब ने कहा " सुरति सदा सनमुख रहै , जहाँ तहाँ लै लीन । सहज रूप सुमिरण करै , निहकर्मी दादू दीन ॥ "
बड़े - बड़े विद्वान् सहज स्वरूप का सही अर्थ में समझने में बहुत गड़बड़ाये हैं । लिखा है खूब; किन्तु ' सहज रूप मुमिरण ' के विषय में नहीं लिख सके । कुछ भी करते रहो , पाखाने में रहो , चाहे पेशाव करो , चाहे कोई काम करो , उसका मुमिरन करते रहो तो तुम निष्कर्मी हो । इसका सब भाई अभ्यास करो । हमारे एक बहुत ऊँचे दर्जे के सत्संगी थे । यदुनाथ चौधरी । उनका शरीर छूटे हुए तीन साल हुए । उनकी बीमारी का नाम सुना और सुना कि वे सख्त बीमार हैं । बचने की सम्भावना नहीं है । मेरे लिए सवारी आयी , मैं उनके यहाँ गया और भेंट होने पर कहा " निसदिन रहै सुरति ली लाई । पल - पल राखो तिल ठहराई । "
इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है " प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव ।भ्रूवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥१० ॥ "
अर्थात् वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकाल में योग बल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके और निश्चल मन से स्मरण करता हुला उस दिव्य पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है ।
इसका खुब अभ्यास करो । यही अन्त - समय में काम देगा । कभी मानस जप , कभी मानस ध्यान , कभी दृष्टि - साधन - इन तीनों को रखो । इसीसे वृक्ष लगेगा और मोक्ष का फल फलेगा । " आरती कीजे आतम पूजा , सत्त पुरुष की और न दूजा ॥१ ॥ ज्ञान प्रकाश दीप उजियारा , घट घट देखो प्रान पियारा ॥२ ॥ भाव भक्ति और नहीं सेवा , दया स्वरूपी करि ले सेवा ॥३ ॥ सतसंगत मिलि सवद विराजे , धोखा दुन्य भरम सब भाजे ॥१ ॥ काया नगरी देव बहाई , आनन्द रूप सकल सुखादाई ॥ सुग्न ध्यान सबके मन माना , तुम बैठो आतम अस्थाना ॥६ ॥ सबद सुरत ले हृदय बसावो , कपट क्रोध को दूरि वहावो ॥७ ॥ कहे कबीर निज रहनि सम्हारी , सदा आनंद रहे नर नारी ॥८॥ "
सन्तों की वाणियों से प्रेरणा लेकर सत्संगियों के हदय में ऐसी प्रेरणा होनी चाहिये कि वे खूब ध्यान करें । ध्यान करने में कुशल होने पर सब काम करते हुए भी ध्यान करना होता है । विद्वान् ऐसा वर्णन करते हैं कि कहना ही क्या ! फिन्तु सहज सुमिरन के वर्णन करने में पैर लड़खड़ा जाता है; किन्तु हमलोगों के समझने के लिए तो कठीन नहीं जान पड़ता । सन्त दादू दयालजी महाराज ने कहा" सुरति सदा स्यावित रहे , तिनके मोटे भाग । दादू पीये राम रस , रहे निरंजन लाग ॥ "
प्रेम इतना हो कि उसके मिलने की इच्छा बराबर लगी रहे । घूमते - फिरते , कुछ काम करते हुए भी उस ओर मन को घुमाते रहना चाहिए । इसके लिए तो रोना चाहिए कि अभी तक प्राप्त नहीं हुआ । विवेकानन्द के लिए कहा जाता है कि वे इतना रोते थे कि तकिया भीग जाता था। सन्त कबीर साहब के पद्य में कितना विरह है - ऐसा अन्यत्र मिलना कठिन है " कैसे मिलोंगी पिय जाय ॥टेक।। समझि सोचि पग धरों जतन से, बार बार डिग जाय । ऊंची गैल राह रपटीली , पाव नहीं ठहराय ॥ लोक लाज कुल की मरजादा , देखत मन सकुचाय । नैहर बास बसौं पीहर में , लाज तजी नहिं जाय ॥ अधर भूमि जहं महल पिया का , हम पे चढ़ो न जाय । धन भई बारी पुरुष भये भोला, , सुरत झकोला खाय ॥ दूती सतगुरु मिले बीच में ,दीन्हों भेद बताय । साहब कबीर पिया से भेंटे , सीतल कण्ठ लगाय ॥
" कैसे मिलीगी पिय जाय । समझि सोचि पग परौ जतन से " का अर्थ पैर रखना - सुरत जमाना ' है । ' बार बार ढिग जाय ' - सुरत हट जाती है । यदि कोई कहे कि कबीर साहय तो पूर्ण थे ही , सो उनके लिए यह कहना उचित नहीं । उत्तर में कहा जा सकता है कि उक्त सज्जन का कथन अनुचित नहीं होगा कि वे पूर्ण थे; किन्तु और लोगों के लिए उन्होंने ऐसा करने के लिए कहा , अथवा यदि वे इस प्रकार साधन करके ही पूर्ण हुए, तो यह कहने में भी क्या हर्ज ?
वार्षिक सत्संग सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरण के लिए होता है , ऐसा नहीं कि यह मनोरंजन के लिए होता है । सब लोगों को इस सत्संग से प्रेरण मिले , सबका ख्याल नवीन हो जाय , इसलिए यह वार्षिक सत्संग होता है ।
जिस सत्संग में अन्तर की प्रेरणा न मिले , वह सत्संग नहीं हुआ । भगवद्भजन खुब करो । इसकी प्रेरणा सत्संग से लो ।०
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि सुमिरन की महिमा, सहज रूप सुमिरन क्या है? श्रीमद्भागवत गीता में सुमिरन, कबीर वाणी में सुमिरन, सत्संग का उद्देश, ईश्वर दर्शन की लालसा, अभ्यास का महत्व, इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S59, (क) How to Importance Sumiran ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 23-02-1954ई, कोरका
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/14/2020
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