महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 66
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ६६ के बारे में। इसमें बताया गया है कि असली भक्ति क्या है? भक्ति की किसे कहते हैं? भक्ति के प्रकार, भक्ति और योग क्या है?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- Gyaan aur yog kya hai? yog kise kahate hain? bhakti kya hai? ganga sevan mein kya karate hain? hamaara shareer jad aur chetan kaise hain? saadhaaran log bhakti aur seva kise maanate hain? motee aur sookshm bhakti kya hai? praarambhik bhakti aur antim bhakti kya hai? khuda kaisa hai? eeshvar bhakti kyon karanee chaahie? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- Vaastavik sachchee bhakti kya hai? bhakti kya hai? asalee bhakti kya hai, bhakti kee paribhaasha, bhakti ke prakaar, bhakti yog ke prakaar, bhakti kya hai maharshi menheen, andhabhakt kise kahate hain, bhakti prem, bhakti ka mahatv, bhakt ka arth, bhakti shabd kee utpatti, bhakti kya detee hai, bhakti ka svaroop, bhakti kitane prakaar kee hotee hai, bhakti ke prakaar, bhakt ka matalab, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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वास्तविक और सच्ची भक्ति क्या है? पर प्रवचन |
वास्तविक सच्ची भक्ति क्या है? What is real devotion
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! ज्ञान का पूरक योग है और योग का पूरक ज्ञान । योग का अर्थ है मिलना और ज्ञान का अर्थ है जानना ।..... इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is knowledge and yoga? What is yoga called? What is devotion? What do Ganges consume? How are our bodies rooted and conscious? Who do ordinary people believe in devotion and service? What is thick and subtle devotion? What is initial devotion and final devotion? How is God? Why should one do piety?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
६६. चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
ज्ञान का पूरक योग है और योग का पूरक ज्ञान । योग का अर्थ है मिलना और ज्ञान का अर्थ है जानना । बिना कुछ जाने , मिले तो किससे ? ज्ञान भी दो तरह के होते हैं ? एक वह ज्ञान है , जिससे जानते हैं , लेकिन पहचानते नहीं हैं । दूसरा ज्ञान वह है , जिससे हम जानते हैं और पहचानते दोनों हैं । जाना किन्तु पहचाना नहीं , यह अधूरा ज्ञान है और जानकर पहचानने पर पूरा ज्ञान होता है । बिना मिलन के भी पूरा ज्ञान नहीं होता , पूरी पहचान भी नहीं होती । इसलिए ज्ञान और योग ; दोनों की आवश्यकता है । योग जैसे - जैसे बढ़ेगा , वैसे - वैसे ज्ञान भी बढ़ेगा । बढ़ते - बढ़ते योग भी बढ़ेगा और ज्ञान भी बढ़ेगा ।
चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है । यदि कोई कहे तो कहना चाहिए कि चित्त की धारें एक नहीं होने से निरोध कैसे हो सकता है ? चित्तवृत्ति के एकत्र होने से ही निरोध होगा । तब प्रश्न होगा कि ज्ञान और योग तो हुआ , लेकिन भक्ति तो नहीं हुई । तो कहो कि
भक्ति का अर्थ है सेवा। प्रणाम करना भी सेवा है । प्रणाम करने से आदर होता है । आदर होने से उसके दिल में प्रसन्नता होती है । यह जीवित प्राणी के लिए है । जो जीवित प्राणी नहीं है उसके लिए क्या सेवा है ? जैसे औषधि सेवन है । औषधि को खा जाते हैं , शरीर में लगाते हैं अथवा सूंघते हैं , यह भी सेवा है । जिससे जैसा काम लेना चाहिए वैसा लेना सेवा है । जैसे गंगा - सेवन । गंगा में स्नान करते हैं , वायु में टहलते हैं , गंगा का जल पीते हैं । गंगा - जल जड़ पदार्थ है । जड़ ज्ञानहीन पदार्थ को कहते हैं । जैसे यह कागज का फूल है । इसको ज्ञान नहीं है । यह जड़ है , यह शरीर भी जड़ है , किन्तु इसमें चेतन है । जैसे लोहे को अग्नि में तपा देने से वह लाल हो जाता है , अग्नि का रूप हो जाता है और अग्नि का काम करता है ; किन्तु उसको आग से थोड़ी देर अलग रख दो , तो उससे लाली निकल जाती है और वह ठण्ढा पड़ जाता है , फिर उससे अग्नि का काम नहीं होता । उसी तरह इस शरीर में जबतक चेतन है , तबतक यह चेतन सा काम करता है । मुर्दा शरीर में से चेतन निकल जाता है , तब वह जड़ का जड़ हो जाता है । तो यह जड़ और चेतन पर कहा । अब सेवा पर आते हैं । जैसे गंगा की सेवा । गंगा - जल जड़ है । उसको ज्ञान नहीं है । उसको पीते हैं , उसमें स्नान करते हैं । यह भी सेवा है । सेवा किसकी करोगे , यदि ज्ञान नहीं हो ? ज्ञान नहीं हो तो मिलोगे किससे ? ईश्वर की सेवा करोगे - भक्ति करोगे , यदि ईश्वर के सम्बन्ध में जानो नहीं , तो उससे कैसे मिलोगे ? इसलिए ज्ञान और योग करने से भक्ति भी हो जाती है । भक्ति या सेवा को लोग इस तरह समझते हैं - शिव , राम , कृष्ण , देवी आदि किसी की मूर्ति को बनाकर पूजना भक्ति या सेवा है । शिवलिंग में हाथ , पैर , नाक कुछ भी नहीं है । किन्तु इस रूप को शिव मानकर पूजते हैं ; किन्तु पूजन इतना ही है कि और भी है ? यदि इतना ही रहता तो श्रीमद्भगवद्गीता , उपनिषद , शास्त्र आदि क्यों होते ? यह मोटा ज्ञान उसके लिए है जो पहले से कुछ नहीं जानता ।
यह ईश्वरकृत शरीर भी जड़ है । एक पत्थर लो और अपनी देह देखो दोनों में मोल किसका विशेष है ? दोनों ईश्वरकृत हैं । शरीर की इज्जत पत्थर से विशेष है । हीरा , लाल , मोती आदि भी मनुष्य से कम नहीं हैं । फिर भी मनुष्य देह जड़ है । तब और जो पत्थर है , उसका क्या मूल्य? गुरु यदि गोरू हो, तो उसकी सेवा से क्या लाभ होगा ? ईश्वर को जानना है , तो यदि इतना ही जाने कि शालिग्राम ही ईश्वर है , तो इतने से काम नहीं चलेगा । यदि गुरु को ही ईश्वर मानो , जैसा तुलसीकृत रामायण में है बन्दौं गुरुपद कंज , कृपासिन्धु नररूप हरि । महामोह तमपुंज , जासुवचन रविकर निकर ।।
वाल्मीकि जी ने भी श्रीराम से कहा था तुम्हते अधिक गुरुहिं जिय जानी । सकल भाव सेवहिं सनमानी ।।
ईश्वर सबमें है । इसलिए कि ईश्वर सबसे पहले का है । उसके पहले कुछ नहीं था । खुदा-- खुद+आ=स्वयं आया । इसी का जोड़ा हमलोगों के यहाँ ' स्वयंभू ' शब्द है । किंतु यह शब्द भी कमजोर है । जो पहले से है , वह छोटा नहीं हो सकता या बड़ा भी हो तो परिमाण सहित आदि - अंतसहित । चाहे करोड़ों योजन लम्बा - चौड़ा हो , अनादि अनंत से छोटा ही है । यदि कहा जाय कि सबसे पहले का सीमावाला पदार्थ था , तो प्रश्न होगा कि उस सीमा के पार में क्या था ? सीमावाला मान लेने पर ईश्वर सबसे पहले का सिद्ध नहीं होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ॥
जो पहले का होगा , उसकी सीमा नहीं होगी और वह सबमें होगा । इसीलिए कबीर साहब ने कहा- "है सब में सबही तें न्यारा । जीव जन्तु जल थल सबही में , सबद वियापत बोलनहारा ।"
शालिग्राम , श्रीराम या गुरु की मूर्ति को जो बताया गया है , वह तो इसलिए कि तुम कुछ नहीं जानते हो , तो उनमें मन लगाने के लिए बताया। यदि कहो कि ईश्वर से मिलकर क्या होगा ? तो देखो , यहाँ पर आराम नहीं है , बेचैनी लगी रहती है । चाहे राजा हो या कुछ बने रहो । अंग्रेज हमलोगों के यहाँ से भाग गया । वह यहाँ था , तब उसको बेचैनी थी । इसको छोड़कर भाग गया , तब भी बेचैनी है । सोचकर देखिए , आपकी एक कट्ठा जमीन कोई ले लेता है , तो आपका कैसा मन होता है ? जिसके हाथ से सारा भारतवर्ष छूट गया , उसका मन कैसा होता होगा ? इसलिए संसार में शान्ति चैन कहीं नहीं है , चाहे कुछ बन जाओ । सूर्य , चन्द्र , तारे आदि सभी देश काल से घिरे हैं । देश - काल के अंदर रहोगे , तो बेचैनी में और दुःख में रहोगे । इन्द्र , ब्रह्मा , शिव आदि सब - के - सब बेचैन रहते हैं । इसलिए देश - काल से जो परे है , उससे मिलो । यही योग है । इसी योग का अर्थ ' भक्ति है । परमात्मा से मिलने के लिए कोशिश करो । यही भक्ति है । मोटी बातों से भक्ति का आरंभ है । भक्ति का जहाँ अंत है , वहाँ परमात्म - दर्शन है । इस भक्ति में ईश्वर के पास जाना है , ईश्वर को बुलाना नहीं है ।
यदि कोई कहे कि ईश्वर को सर्वव्यापी मानते हो , तो उसको यहाँ क्यों नहीं पकड़ते ? तो उत्तर में कहेंगे कि जानने - पहचानने के लिए हमारे पास पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । ये मोटी मोटी हैं ; किंतु ईश्वर झीने से झीना है । उसको इन मोटी इन्द्रियों से कैसे पकड़ सकेंगे ? इसलिए वहाँ जाना है , जहाँ सब शरीरों और सब इन्द्रियों से छूट जायँ , तब ईश्वर दर्शन होगा ।०
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इसी प्रवचन को शांति संदेश में प्रकाशित किया गया है उसे पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Saadhaaran log bhakti aur seva kise maanate hain? motee aur sookshm bhakti kya hai? bhakti kya detee hai?bhakti yog ke prakaar, praarambhik bhakti aur antim bhakti kya hai? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S66, (क) What is real devotion ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 12-03-1954ई. मोरंग, नेपाल
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/18/2020
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