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S76, (क) Mahaaraaj Yudhishthir aur Paap Puny. ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 01-04-1954 ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 76

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है । आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ७६ को । इसमें पुण्य और पाप का फल अलग-अलग मिलता है। सगुण भगवान के दर्शन से भी संपूर्ण पाप का नाश नहीं होता है? पुण्य करने से पाप का नाश नहीं होता। पाप का नाश केवल ध्यान योग से होता है। ऐसा बताया गया है। 

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में पायेंगे कि- Mahaabhaarat mein kya hai? mahaaraaj yudhishthir kaise the? kya puny karane se paap kat jaata hai? kya bhagavaan ke darshan se paap katata hai? paap kaise katata hai? sab dharmon ko kaise chhod sakate hain? dhyaan yogee kaisa hota hai? karm kitane tarah ka hota hai? dhyaan kaise kiya jaata hai.     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- युधिष्ठिर और कुत्ता, धर्मराज युधिष्ठिर की कहानी, युधिष्ठिर की परीक्षा, युधिष्ठिर की मृत्यु, युधिष्ठिर किसके पुत्र थे, युधिष्ठिर को धर्मराज क्यों कहा जाता है, पाप का अर्थ क्या है, पाप के प्रकार, पाप in English, पुण्य क्या है, पाप पुण्य, सबसे बड़ा पाप, पाप की परिभाषा, पाप और पुण्य की कहानी, पाप का विशेषण, पाप का विलोम शब्द,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 75 को पढ़ने के लिए  यहां दबाएं।

पाप कैसे कटता है ? इस पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
पाप कैसे करता है? पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं

Maharaja Yudhishthira and sin virtue. महाराज युधिष्ठिर और पाप पुण्य।

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! अपने देश में ' महाभारत ' नाम से एक बहुत बड़ी पुस्तक है । बहुत लोग पढ़ते हैं । एक ही परिवार के दो नामधारी परिवार थे - एक कौरव और दूसरा पाण्डव ।.....   इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is there in Mahabharata?  How was Maharaj Yudhishthira?  Does sin be cut off by doing virtue?  Does sin be cut off by seeing God?  How is sin cut?  How can we leave all religions?  What is a meditation yogi like?  What is the type of karma?  How is meditation done?....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

७६. पाप और पारे को कोई हजम नहीं कर सकता

पाप कैसे करता है? इस विषय पर चर्चा करते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज और उनके भक्त।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

      अपने देश में ' महाभारत ' नाम से एक बहुत बड़ी पुस्तक है । बहुत लोग पढ़ते हैं । एक ही परिवार के दो नामधारी परिवार थे - एक कौरव और दूसरा पाण्डव । पाण्डव पाँच भाई थे । कौरव एक सौ भाई थे । 

     पाण्डवों में युधिष्ठिर श्रेष्ठ थे , बड़े धर्मात्मा थे । बारह वर्ष वनवास और तेरहवाँ वर्ष अज्ञात वास किया । बारह वर्ष तक उनको बड़ा कष्ट हुआ , किंतु उसमें बड़े - बड़े अच्छे साधु - संतों के दर्शन होते रहे । तीर्थ - स्नान करते थे , दान - पुण्य करते थे । बड़े दुर्गम - से - दुर्गम स्थान में जाते थे । जहाँ स्वयं नहीं जा सकते थे , वहाँ घटोत्कच अपनी देह पर बैठाकर तीर्थ - स्नान कराते थे। होते होते लड़ाई हुई । उनकी जीत हुई , राजा हुए । अश्वमेध यज्ञ किया । राज्य - प्राप्ति के पहले राजसूय यज्ञ भी किया था । वे बहुत पुण्य करते थे । उनके सहायक भगवान श्रीकृष्ण थे । उनके यहाँ भगवान बहुत रहते थे । भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से उम्र में छोटे थे । युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम भी करते थे । भगवान की सहायता से उनलोगों की जीत हुई थी । भगवान जब इस संसार से चले गए , तो वे बिल्कुल पुरुषार्थहीन हो गए । श्रीकृष्ण के नहीं रहने से उनलोगों को बहुत वैराग्य हुआ और तमाम तीर्थों में दान - पुण्य , स्नान करते हिमालय में कोई कहीं गिरे , तो कोई कहीं गिरे । युधिष्ठिर देह - सहित स्वर्ग गए , किंतु पहले उनको नरक का दर्शन कराया गया । 

     भगवान का दर्शन , दान - पुण्य , तीर्थ व्रत ; सब कुछ होते हुए भी जरा सा झूठ बोलने के कारण नरक उनको देखना पड़ा । विशेष पुण्य किया था , उसके बदले स्वर्ग मिला । थोड़ा पाप किया था , इसलिए थोड़े काल नरक देखना पड़ाआपलोग अपने - अपने मन में सोचिए कि कितना पाप किया , उसका क्या फल होगा ? ऐसा नहीं कि पाप - कर्म पुण्य - कर्म करने से नष्ट हो जाता है । पाण्डव बिल्कुल भगवान श्रीकृष्ण पर निर्भर थे । अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण का इतना भक्त था कि नारायणी सेना न लेकर केवल भगवान श्रीकृष्ण को लिया , किन्तु पाप - कर्म का फल कटा नहीं भोगना पड़ा । श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है - ' पाप और पारे को कोई भी हजम नहीं कर सकता । ' 

     पाण्डवों का इस तरह से दान - यज्ञ आदि करने पर भी पाप - कर्म कटा नहीं , तब फिर क्या उपाय है कि जिससे पाप कटे ? विभीषण जब भगवान श्री राम के पास गया , तो वानरी सेना ने पहले तो भगवान श्रीराम के पास जाने नहीं दिया ; किंतु भगवान श्रीराम की आज्ञा से फिर उनके सामने किया गया । भगवान श्रीराम ने कहा सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहि तबहीं ।। 

     सुनकर आश्चर्य होगा कि भगवान श्रीराम ने जो कहा , उसके अनुकूल भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख पाण्डवों के होने पर भी पाप का नाश कैसे नहीं हुआ ? भगवान ने करोड़ जन्म का नाम कहा , किंतु ऐसा नहीं कहा कि सब जन्मों का । यदि करोड़ जन्म से विशेष का पाप हो , तो सब पाप नाश कैसे होगा ? ध्यानविन्दूपनिषद् में है यदिशैल समं पापं विस्तीर्ण बहुयोजनम् । भियते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।। 

      कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है , इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है । भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः ।। 

     अर्थात् सब धर्मों को छोड़कर तू केवल एक मेरी शरण में आ जा । मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा , तू शोक मत कर ।

      हो सकता है कि सब धर्मों को छोड़ने में कसर हो । लोग बहस करने लगते हैं कि सब धर्मों को कैसे छोड़ा जाय ? पिता - माता की सेवा धर्म है क्या यह धर्म छोड़ दिया जाय ? कर्म होने पर धर्म होता है । कर्म बड़ा है , धर्म छोटा है । इन्द्रियों से आप कर्म करते हैं । इन्द्रियों से कर्म छूट जाय , तब धर्म से बचेंगे । जिसके द्वारा इन्द्रियाँ काम करती हैं , वह इन्द्रियों में रहने नहीं पावे , तब इन्द्रियों से कर्म नहीं होगा । कर्म नहीं होगा तो धर्म नहीं होगा । 

     ऐसा भजन कीजिए कि इन्द्रियों से कर्म न हो । मन - बुद्धि से भी ऊपर वृत्ति उठ जाय , तब वह परमात्मा की शरण हो जाएगा । पापवृत्तिवाला विषयी होता है । विषयी का मन बाहर में लगा रहता है । उसका मन अंदर - भीतर प्रवेश नहीं कर सकता । जो पाप नहीं करता , उसका मन अंदर में प्रवेश करता है और ध्यान के द्वारा कर्म - मण्डल को भी पार कर जाता है । तब वह काग से हंस हो जाता है , जिसके लिए तुलसी साहब ने कहा आली अधरधारनिहार निजकै निकरि सिखर चढ़ावहीं । जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना , जतन धार बहावहीं ॥ जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि धुर गुरू गति गावहीं । जहाँ संत आस विलासबेनी विमल अजब अन्हावहीं ॥ को कृत कुमति काग सुभाग कलिमल कर्म धोय बहावहीं । तरह हिय हेरि हरष निहारि घर को पार हंस कहावहीं ॥ मिलि तूल मूल अतूल स्वामी धाम अविचल बसि रही । आलि आदि अंत विचारि पद को तुलसी तब पिउ की भई

      ध्यानविन्दूपनिषद् में है कि ध्यानयोग द्वारा पापों से छूट जाएगा । ध्यानाभ्यासी पाप - पुण्य , दोनों से छूटकर परमात्मा को पाता है । इसलिए सब कोई ध्यानी बनो । पलंग पर बैठो या अपने योग्यतानुकूल बिछावन पर आराम से बैठो , शरीर का , मन का आलस्य छोड़ो , ध्यान करो । 

     प्रारब्ध , संचित और क्रियमाण - कर्म तीन तरह के होते हैं । जो कर्म हम वर्तमान में करते हैं , वे क्रियमाण कहलाते हैं । ये क्रियमाण कर्म ही एकत्रित होने पर सञ्चित कहलाते हैं । उसी सञ्चित में से जब जिसका भोग करने लगते हैं , तब वह प्रारब्ध कहलाता है ।

      जो ध्यानी होगा , वह पाप - कर्म नहीं करेगा ; पुण्य - कर्म में आसक्ति नहीं रखेगा कि हमको यह फल मिले । ध्यान के द्वारा कर्ममण्डल से ऊपर जाना होता है । ध्यान करनेवाला पुरुष बुरे कर्मों से बचा रहेगा । वह क्रियमाण में पाप - कर्म नहीं करेगा ; संचित कर्म भी उसका छूट जाएगा ; क्योंकि वह कर्ममण्डल को पार कर जाएगा । कर्म का फल कर्ममण्डल तक ही लागू हो सकता है , फिर उसका प्रारब्ध कहाँ रहेगा ! इसलिए मैं कहता हूँ कि ध्यानाभ्यास कीजिए । पाप नहीं कीजिए । पुण्य कीजिए तो उसमें आसक्ति नहीं रखिए ; क्योंकि पुण्य मीठा जहर है । ईश्वर के भक्त बनिए । ईश्वर से प्रेम कीजिए । 

     ध्यानी पुरुष पहले जप करता है , फिर परमात्मा के स्थूल रूप का ध्यान करता है , सूक्ष्म रूप का ध्यान करता है और अंत में परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इसलिए आपलोग अच्छी तरह ध्यान कीजिए ।० 


इसी प्रवचन को शांति संदेश में प्रकाशित किया गया है उसे पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।

इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 77 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं



प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि The results of virtue and sin are found separately.  Even with the sight of God, does not sin completely destroy us?  By doing virtue, sin is not destroyed.  Sin is destroyed only by meditation yoga.  Puny aur paap ka phal alag-alag milata hai. sagun bhagavaan ke darshan se bhee sampoorn paap ka naash nahin hota hai? puny karane se paap ka naash nahin hota. paap ka naash keval dhyaan yog se hota hai.   इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S76, (क) Mahaaraaj Yudhishthir aur Paap Puny. ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 01-04-1954 ई. S76, (क)  Mahaaraaj Yudhishthir aur Paap Puny. ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 01-04-1954 ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/28/2020 Rating: 5

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