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S109, अन्तर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है ।। Bhakti Kise Kahate hain ।। दि.२७.३.१९५५ ई०

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 109

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 109 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  योगीजन जगते हैं - योगी शरीर से बाहर नहीं जाते हैं , अपने अंदर सिमटते हैं , जैसे कछुआ अपने सब अवयवों को खोखड़े में समेट लेता है ; उसी तरह जो अपने शरीर में इन्द्रियों के घाटों से चेतन को समेट लेता है , तब जगता है । जो इस तरह नहीं जगता , उसको ईश्वर - दर्शन नहीं होता । जो उपर्युक्त तरह से जगता है , वह शरीर और इन्द्रिय - ज्ञान में नहीं रहता और वही आत्म - दर्शन , परमात्म - दर्शन करता है । इसी को संतों के ख्याल में भक्ति करना कहते हैं।

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ईश्वर भक्ति की आवश्यकता पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

भक्ति किसे कहते हैं ? What is Bhakti called?

 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  संत लोग ईश्वर-भक्ति का प्रचार क्यों करते हैं? सुख, शांति और तृप्ति कैसे प्राप्त होती है? लोग सुख कहां-कहां खोजते हैं? क्या इंद्रियों से परम तृप्ति दायक सुख प्राप्त हो सकता है? परमात्मा को प्राप्त करना क्यों जरूरी है? परमात्मा भक्ति क्यों करना चाहिए? परमात्मा हमें क्या दे सकता है? परमात्मा को हम कहां प्राप्त कर सकते हैं? परमात्मा बाहर में क्यों नहीं प्राप्त हो सकता है? इंन्दिय ज्ञान से ऊपर कैसे उठते हैं? इंद्रियां कैसे काम करती है? मनुष्य का शरीर समुद्र से भी गहरा कैसे हैं? संतो की दृष्टि में सोना क्या है? जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में जीव कहां रहता है? संतो के ख्याल में भक्ति करना क्या है? मोटी और महीन उपासना क्या है? साधन की पूर्णता होने पर ईश्वर अवश्य मिलते हैं। इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- आत्मा से परमात्मा का मिलन कैसे होगा? परमात्मा क्या है? ईश्वर की भक्ति कैसे करें? ईश्वर की भक्ति क्या है? ईश्वर की भक्ति क्यों आवश्यक है? भक्ति का असली नाम क्या था? भक्ति और शक्ति में क्या अंतर है, भक्ति किसे कहते हैं, पूजा किसे कहते हैं, भक्ति नाम का अर्थ, भक्त का अर्थ क्या है, भक्ति योग के लाभ, भक्ति योग साधना, गुरु भक्ति क्या होती है, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

१०९ . अन्तर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है


परमात्मा भक्ति की महिमा को समझाते हुए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

बंदौं गुरु पद कंज, कृपा  सिंधु  नर  रूप  हरि । 
महा मोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।।

प्यारे लोगो !  

     मनुष्यों के वास्ते संतों का क्या प्रचार है ? इसी का उपदेश इस सत्संग से हुआ करता है। संतों ने दृढ़ता से कहा है कि केवल सांसारिक वस्तुओं से कोई तृप्त नहीं हो सकता । जहाँ तृप्ति नहीं , वहाँ सुख कहाँ ! ऐसी तृप्ति कि जिसमें फिर भोगेच्छा न रह जाय । ऐसा सुख जिसके बाद दुःख नहीं और शान्ति ऐसी जिसके बाद अशान्ति नहीं । संतों ने कहा कि विषयों से बहुत विशेष परमात्मा  है । विषयों को पहचानते हो तो उसको ग्रहण करते हो । इन्द्रियों से जो ग्रहण हो , वह विषय है । पंच ज्ञानेन्द्रियों के पंच विषय - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द हैं । इन्हीं में लोग सुख , शान्ति और तृप्ति खोजते हैं इनसे किसी को सुख , शान्ति और तृप्ति नहीं हुई है । संतों ने कहा है कि इनसे परे की वस्तु को खोजो । इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण कर लोग सुखी , शान्त और तृप्त होना चाहते हैं ; किंतु इन्द्रियों के ग्रहण होने योग्य पदार्थों में ऐसा नहीं हो सकता । इसमें सुख - भ्रम है । साधारण लोग उसी को सुख कहते हैं , जो मन - इन्द्रियों को सुहाता है । और जो मन इन्द्रियों को नहीं सुहाता , उन्हें वे दुःख कहते हैं इसलिए ऐसा पदार्थ खोजो , जो पंच विषयों से परे है अर्थात् जिसको कोई इन्द्रियाँ पहचान नहीं सकतींऐसा सुख जिसके बाद दुःख नहीं , सूरदासजी ने कहा है-

परम स्वाद सबही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावे

     ऐसी सन्तुष्टि हो , जिसका अन्त न होयह सुख संतोष परमात्म प्राप्ति में है । इसलिए 

     उस परमात्मा की खोज करो । ज्ञान यही कहता है कि वह कहाँ नहीं है ? वह स्थान ही नहीं जहाँ परमात्मा न हो । वह देश - काल में व्यापक है और उनसे बाहर भी है । अर्थात् परमात्मा सबके अंदर - अंदर रहते हुए सबसे बाहर भी है। इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं आने के कारण उसको लोग बाहर में नहीं प्राप्त कर सकते । बाहर के पदार्थों को ग्रहण करने के लिए इन्द्रियाँ हैं और इन्द्रियों के ज्ञान से ईश्वर परे है । फिर भला बाहर में उसको कोई इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? संतों ने कहा है और अपने को भी प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि बाहर से उलट , सिमट कर अन्दर में रहने से इन्द्रियों से छूटना होता है । 

     जाग्रत में इन्द्रियों के साथ काम होता है - विषयों का ग्रहण होता है । स्वप्न में स्थूल इन्द्रियों का संग छूटता है । उस समय बाहर का कोई ज्ञान नहीं रहता । संतों ने जिसको सुरत कहा है , वही स्वप्न में अन्तर्मुखी हो जाती है - सिमट जाती है । सिमटने से वह इन्द्रियों के घाटों में नहीं रहती , जगने पर वह इन्द्रियों के घाटों पर आ जाती है , फिर संसार का ज्ञान होता हैइससे जानने में आता है कि अंदर में जाने से विषयों से और इन्द्रियों से छूटना होता है । इसलिए यत्न जानकर अपने अंतर में प्रवेश करो । 

     यह शरीर देखने में साढ़े तीन हाथ का है , परंतु यह समुद्र से भी विशेष गहरा है । 

कबीर काया समुंद है , अंत न पावै कोय । मिस्तक होइ केजो रहै , मानिक लावै सोय ॥ मैं मरजीवा समुंद का , डुबकी मारी एक । मुट्ठी लाया ज्ञान की , जामें वस्तु अनेक ॥ - संत कबीर साहब 

     अंतर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है । यह सबसे बड़ा पुरुषार्थ इसलिए है कि बाहर विषयों से अभ्यासी की आसक्ति छूटती है । जैसे जैसे विषयों से छूटता है , वैसे - वैसे वह परमात्मा की ओर बढ़ता है । ब्रह्मज्योति को प्राप्त कर ब्रह्म को पाता है और सारी तृष्णाओं से मुक्त हो जाता है। सभी संतों ने यही कहा और यदि संतवाणियों के पहले की बात जानना चाहते हैं , तो उपनिषदों को पढ़िए , उसमें भी यही बात है । उपनिषद् का सार गीता है , यह भी अंतर्मुख होने के लिए ही सिखाती है । ईश्वर की खोज अपने अंदर करो । जबतक इस ज्ञान को कोई नहीं जानता है , तबतक वह सोया रहता है । जैसे कोई स्वप्न में अनेक काम करे , तौभी बाहर में - जाग्रत में जो काम होना चाहिए , एक भी नहीं होता । उसी तरह लोग , जो माया - मोह में विषयों में पड़े हैं , वे सोए हुए हैं इसलिए कबीर साहब कहते हैं 

परमातम गुरु निकट विराज जागु जागु मन मेरे । 

     जाग्रत में जहाँ जीव रहता है , स्वप्न में उस जगह नहीं रहता - दूसरी जगह चला जाता है । स्थान बदल जाता है , तो ज्ञान भी बदल जाता है । वहाँ से तीसरी जगह पर जाता है , तो वह बेहोश होकर रहता है । जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ; तीनों अवस्थाओं में वह संसार में ही रहता है । यद्यपि वह सुषुप्ति में कुछ नहीं जानता है , फिर भी स्वप्न और जाग्रत में जानता और करता है । जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं में सुरत के जाने का और इन तीनों अवस्थाओं के होने का कारण , सुरत का अंतर्मुख होना है । जाग्रत के स्थान से नीचे स्वप्न का और उससे नीचे सुषुप्ति का स्थान है । जब जाग्रत स्थान के ऊपर हो जाय , तब परमात्मा की ओर होना होता है

     इसका ज्ञान और युक्ति किसी जानकार से जानना चाहिए । यदि जान भी लिया और उसका अभ्यास नहीं किया , तो उससे जो लाभ होना चाहिए वह नहीं होता । इसलिए कबीर साहब जो जगने कहते हैं , उसका अभ्यास करना चाहिए । दरिया साहब ( बिहारी ) कहते हैं- 

माया मुख जागे सभै , सो सूता कर जान दरिया जागे ब्रह्म दिसि , सो जागा परमान।। ' जानिले जानिले सत्त पहचानिले , सुरति साँची बसै दीद दाना । खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै , पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ॥

संत तुलसी साहब और गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- 

मोह निसा सब सोवनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ।। एहि जगजामिनि जागहिंजोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।

 योगीजन जगते हैं - योगी शरीर से बाहर नहीं जाते हैं , अपने अंदर सिमटते हैं , जैसे कछुआ अपने सब अवयवों को खोखड़े में समेट लेता है ; उसी तरह जो अपने शरीर में इन्द्रियों के घाटों से चेतन को समेट लेता है , तब जगता है । जो इस तरह नहीं जगता , उसको ईश्वर - दर्शन नहीं होता । जो उपर्युक्त तरह से जगता है , वह शरीर और इन्द्रिय - ज्ञान में नहीं रहता और वही आत्म - दर्शन , परमात्म - दर्शन करता है । इसी को संतों के ख्याल में भक्ति करना कहते हैं । 

     भक्ति के मोटे - मोटे कार्यों से परमात्मा के पास जाने का जितना सिमटाव होना चाहिए , उतना सिमटाव तो नहीं होता , किंतु उससे उस सिमटाव से साधन करने के योग्य बनता है । जिससे कि अंतर में विशेष प्रवेश कर सके । संतजन मोटी उपासना में ही भक्ति को खत्म करने नहीं कहते और न बिल्कुल मोटी उपासना छोड़ने ही कहते हैं । वे मोटी उपासना करने के लिए भी कहते हैं और उसके बाद की भी उपासना करने के लिए कहते हैं ।

     सत्संग से इसका ज्ञान लेना चाहिए । पापों से छूटना चाहिए । साधन - भजन करनेवाले को प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि मैं करता हूँ तो कुछ मिलता है । संतों ने ऐसा नहीं कहा कि आज तुम करो और मरने पर पाओगे । बल्कि कहा कि तुम अपने जीवन में ही प्राप्त करके देख लो कि यह परमात्मा है । इसके लिए पवित्र बनना होगा । पापों में लगा हुआ आदमी विषयों में लसका हुआ रहता है , उससे ईश्वर का भजन नहीं हो सकता । ∆


( यह प्रवचन भागलपुर के मिरजानहाट में श्रीआनंदीलाल साह के द्वारा आयोजित सत्संग में दिनांक २७.३.१९५५ ई० के सत्संग में हुआ था ।)


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें- 

Guru maharaj ka pravachan number 109

गुरु महाराज का प्रवचन नंबर 109a


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 110 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि योगीजन जगते हैं - योगी शरीर से बाहर नहीं जाते हैं , अपने अंदर सिमटते हैं , जैसे कछुआ अपने सब अवयवों को खोखड़े में समेट लेता है ; उसी तरह जो अपने शरीर में इन्द्रियों के घाटों से चेतन को समेट लेता है , तब जगता है । जो इस तरह नहीं जगता , उसको ईश्वर - दर्शन नहीं होता । जो उपर्युक्त तरह से जगता है , वह शरीर और इन्द्रिय - ज्ञान में नहीं रहता और वही आत्म - दर्शन , परमात्म - दर्शन करता है । इसी को संतों के ख्याल में भक्ति करना कहते हैंइत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज।
 



सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S109, अन्तर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है ।। Bhakti Kise Kahate hain ।। दि.२७.३.१९५५ ई० S109,  अन्तर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है ।।  Bhakti Kise Kahate hain ।।  दि.२७.३.१९५५ ई० Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/29/2021 Rating: 5

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