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S07, (क) बाबा साहब के उपदेशों का सार ।। ईश्वर प्राप्ति का उपाय ।। महर्षि मेंहीं प्रवचन १६-०१-१९५१ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 07 क

प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 07वां, मोक्ष प्राप्ति, ईश्वर-भक्ति से मोक्ष, मोक्ष प्राप्ति से संबंधित हर तरह की जानकारी से भरपूर है।

इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संत वचन, प्रवचन पीयूष )  में बताया गया है कि- गुरु जयंती पर क्या करना चाहिए? बाबा देवी साहब मोक्ष प्राप्त करने के लिए क्यों कहते थे? मोक्ष किसे कहते हैं? ईश्वर भक्ति का मोक्ष से क्या संबंध है? ईश्वर भक्ति कैसे करते हैं? ईश्वर का स्वरूप कैसा है? ईश्वर स्वरूप को जानना क्यों आवश्यक है? ईश्वर किस तरह जाना जा सकता है? माया किसे कहते हैं ? क्या इंद्रियां ईश्वर स्वरूप को जान सकती है? नादानुसंधान का अभ्यास क्या है? विंदु ध्यान क्या है? भक्ति कैसे करते हैं? सत्संग क्यों करना चाहिए? सत्संग करने से क्या लाभ है? इत्यादि बातें, इसके साथ-ही-साथ आप निम्न प्रश्नों के भी कुछ-ना-कुछ समाधान इस प्रवचन में पाएंगे जैसे कि- भक्ति से ही परमात्मा की प्राप्ति, मंत्र सिद्ध करने का उपाय, ईश्वर शक्ति, ईश्वर प्राणी धान, ईश्वर के नियम, ईश्वर और गुरु, ईश्वर के उपदेश, ईश्वर प्राप्ति के साधन, परमात्मा की प्राप्ति के उपाय, भगवान की प्राप्ति के उपाय, ईश्वर प्राप्ति के मार्ग,   आदि बातें,  इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नं.S06, को पढ़ने के लिए     यहां दबाएं ।

Measures of attainment of God ।। बाबा साहब के उपदेशों का सार पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
मोक्ष प्राप्ति के विषय में चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंही

Measures of attainment of God

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि-  What to do on Guru Jayanti?  Why did Baba Devi sahib ask to attain salvation?  What is salvation?  How is devotion related to salvation?  How do you do devotion to God?  What is the nature of God?  Why is it important to know the nature of God?  How can God be known?  Who is Maya?  Can the senses know the form of God?  What is the practice of phylogenetic research?  What is Vindu Meditation?  How do you do devotion?  Why should you do satsang?  What is the benefit of doing satsang?......आदि बातों पर इस प्रवचन में विशेष प्रकाश  डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-


७. मेरे गुरुजी ने कहा था

S07, (क) Measures of attainment of God ।। बाबा साहब के उपदेशों का सार ।। महर्षि मेंही प्रवचन

प्यारे लोगो !

     हमलोगों को चाहिए कि गुरु महाराज के उपदेशों को याद करें कि उनका क्या उपदेश था ? मेरी जानकारी में जो कुछ है ; वही आपलोगों के समक्ष रखता हूँ । बाबा साहब का उपदेश मोक्ष प्राप्त करने के लिए था । इसलिए वे उपदेश करते थे कि सब मोक्ष को प्राप्त हो जायँ । मोक्ष किसे कहते हैं ? शरीर और संसार से छूटने को मोक्ष कहते हैं । इस मोक्ष को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की भक्ति का ही परम अवलंब है । ईश्वर - भक्ति में केवल मोटी भक्ति ही नहीं है , बल्कि उस भक्ति के लिए अत्यन्त सूक्ष्म तथा अत्यन्त सरल साधन बाबा साहब ने बतलाया था । उन्होंने ही इस सूक्ष्म साधन मार्ग को निकाला था , ऐसी बात नहीं । वे तो कहते थे कि सब संतों का निकाला हुआ यह साधन है । वह बारीक साधन क्या था ? केवल दो ही । एक तो दृष्टि साधन तथा दूसरा शब्द साधन ; इसके पहले जप तथा मोटा ध्यान भी बतलाते थे , जो संतों की वाणियों में मिलता है । यही समास रूप में मैं जो जानता था , वही आपलोगों से कहा ।

     ईश्वर - भक्ति का आधार तथा उसकी प्राप्ति के लिए उसके स्वरूप को जानना परमावश्यक है ; क्योंकि स्वरूप ज्ञान से विहीन रहकर अपने को किस ओर लगाया जाय तथा उसकी भक्ति भी कैसे की जाय ? अर्थात् स्वरूप - ज्ञान से विहीन रहकर उसकी भक्ति करनी भी असंभव ही है । इसलिए उसके स्वरूप को अवश्य जानना चाहिए । स्वरूप - ज्ञान के लिए ऋषियों , वेदों तथा संतों की वाणियों से यही जानने में आता है कि ईश्वर इन्द्रियातीत है । इन्द्रियों से उसको प्राप्त करने की चेष्टा करना खेल भर है । उस स्वरूप को मन से मनन नहीं कर सकते , मन उसे  छू नहीं सकता । जो देशकाल से घिरा हुआ है , मर्यादित है , ऐसी वस्तु ईश्वर नहीं हो सकती । इस स्थान से उस स्थान तक तथा इस समय से उस समय तक , ऐसी जो वस्तु , वह ईश्वर नहीं । तब प्रश्न होगा कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है , तो किस प्रकार जाना जा सकता है ? तो कहेंगे कि आत्मगम्य है - आत्मा से ही जान सकते हैं । एक इन्द्रिय से एक ही विषय का ज्ञान होता है , दूसरे का नहीं । जैसे - आँख से केवल रूप - विषय का ज्ञान होता है , शब्द का नहीं , तथा कान से केवल शब्द का ज्ञान होता है , स्पर्श का नहीं । इसी प्रकार और सब इन्द्रियों के विषय में जानिए । बाहर के पदार्थों को गिनें तो बहुत है , किंतु विचारने पर केवल पाँच ही होते हैं - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द । ऐसी एक कोई इन्द्रिय नहीं , जिससे पाँचों विषय का ज्ञान हो । इनमें केवल एक - एक इन्द्रिय से एक - एक विषय को ही जान सकते हैं । एक पदार्थ को ग्रहण करने के लिए जैसे एक ही इन्द्रिय है , उसी प्रकार उस परमात्मा को ग्रहण करने के लिए क्या हो सकता है , जिससे उसको जाना जाय ? हम केवल मायिक पदार्थों को जानते हैं , बाहर की कौन कहे , भीतर की इन्द्रिय भी माया ही जानती है । माया किसे कहते हैं ? जो एक तरह नहीं रहे - जो परिवर्तनशील है । मायातीत पदार्थ कुछ है ; बुद्धि इसे सोच सकती है , किंतु पहचान नहीं सकती । भीतर तथा बाहर की इन्द्रियाँ केवल मायिक पदार्थों को ग्रहण कर सकती हैं । केवल आत्मा से जो पदार्थ जाना जाता है , वही परमात्मा है । जो आत्मा से ही जाना जाता है , उसे इन्द्रियों से ग्रहण करने की चेष्टा करना खेल भर है । इसके लिए कोई बहुत पढ़े , सुने , स्मरण शक्ति बहुत तेज हो , फिर भी वह ईश्वर को नहीं प्राप्त कर सकता , ऐसा आपलोगों ने उपनिषद् से सुना । आत्मा शरीर में है ही , फिर भी हम ईश्वर को क्यों नहीं पहचानते हैं ? जबतक आत्मा पर आवरण है ; वह शरीर और इन्द्रियों के साथ है , तबतक वह ईश्वर को नहीं पहचान सकती । जैसे आँख पर रंगीन चश्मा जबतक लगा है , तबतक संसार की वस्तु चश्मे के रंग के अनुरूप हम देखते हैं , पट्टी रहने से तो और कुछ भी नहीं दरसता । उसी प्रकार शरीरों और इन्द्रियों के मायिक चश्मे तथा पट्टियाँ जबतक आत्मा पर लगी हुई हैं , तबतक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता । इन मायिक चश्मों तथा पट्टियों को हटा दें , तब साक्षात्कार होगा । यही बाबा साहब का उपदेश था , यही साधन वे बतलाया करते थे । ईश्वर को देखने की शक्ति प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग की साधना करनी चाहिए । दृष्टियोग का साधक स्थूलावरण से ऊपर उठ जाता है । दृष्टि वहाँ तक रहेगी , जहाँ तक दृश्य है । दृश्य - मण्डल से पार होने की योग्यता केवल दृष्टिसाधन से नहीं होगी , इसके लिए शब्द अभ्यास करना होगा । बाबा साहब का यह वचन युक्तियुक्त है । शब्द अभ्यास करना संतों के वचनों के अनुकूल सुरतशब्दयोग या नामभजन है । ऋषियों ने इसी को नादानुसंधान कहा है । ध्यान विन्दूपनिषद् में बीजाक्षरं परं विन्दुं, नादं तस्यो परिस्थितम् । स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम् ।।

      कहकर बहुत थोड़े में ही सारी बातें बतलाई गई हैं । परम विन्दु ही बीजाक्षर ( वर्णमाला का अक्षर ) है । उसके ऊपर नाद है । नाद जब अक्षर ( ब्रह्म ) में लय हो जाता है तो निःशब्द परम पद है । उपनिषद् कहती है कि अक्षर का बीज जो परम विन्दु है उसका पता लगाओ , तब उसके ऊपर नाद मिलेगा । नाद जहाँ जाकर लय होगा , वही नि : शब्द परम पद है । उसी को अनाम पद तथा शब्दातीत पद भी  कहते हैं । अनाम ' सब संतों की वाणी में आया है । इस ( अनाम ) से परे कुछ और का होना मानना केवल अंधविश्वास भर ही होगा , परंतु विचार में नहीं अँटेगा । जो शब्द कहने में नहीं आवे , उसकी भी जहाँ समाप्ति हो जाय , वह शब्दातीत या अनाम पद है । तुलसी साहब की वाणी में - ' तुलसी तोल बोल अबोल बानी । ' जहाँ यह भी समाप्त हो जाय , तब और कुछ है , कहना व्यर्थ है । 

    लोग देखते हैं कि वे जहाँ तक संसार में जाते हैं , उन्हें शब्दहीन स्थान कहीं नहीं मिलता । जहाँ सृष्टि होगी , वहाँ शब्द होगा । जहाँ शब्द लय होता है , वहाँ सृष्टि का अंत होता है । जहाँ तक सृष्टि है , वहाँ तक कम्प है । कम्प नहीं रहेगा तो शब्द भी नहीं रहेगा । शब्द के नहीं रहने से सृष्टि रह नहीं सकती । ऐसा कि जहाँ सृष्टि हो और कम्प वा शब्द नहीं हो , यह मानने योग्य नहीं है । अनाम में कम्प तथा शब्द ; दोनों लय को प्राप्त हो जाते हैं । अनाम से आगे कुछ और है या सृष्टि के अंदर अनाम है , इसको कोई मान नहीं सकता । वही अनाम पद सबसे ऊँचा है । इसी पद तक पहुँच हो , यही बाबा साहब का उपदेश था ।

     हमलोगों को जैसा साधन मिला है , हमको पूर्ण विश्वास है कि इस साधन द्वारा भक्ति करके अवश्य मोक्ष प्राप्त होगा । मोटे में भक्ति की क्रिया तो बहुत कम है , किंतु अंतस्साधन में सूक्ष्म क्रिया बहुत है । भक्ति का केवल यही अर्थ नहीं है कि किसी सेव्य का पैर दबावे , भोजन करावे , स्नान करावे , धोती पहनावे और बाह्य पूजापाठ इत्यादि करता रहे । भक्ति तो उसे कहते हैं , जिसमें स्थूल - सूक्ष्म सब तरह की भक्ति करके उस परमात्मा को प्राप्त कर लें । बाहर में स्थूल भक्ति के द्वारा हम कुछ प्रेमी बनते हैं , किंतु और विशेष ऐसी भक्ति है ऐसी सेवकु सेवा करे , जिसका जिउ तिसु आगे धरे । -गुरुनानक  

    ऐसी सेवा कि अपने को समर्पण कर दे , यही आत्मनिवेदन है । इसी भक्ति का उपदेश बाबा साहब करते थे । इसका साधन दृष्टियोग और शब्द योग के द्वारा होता है । किंतु इन दोनों साधनों में वही सफलता प्राप्त कर सकता है , जो इस साधन का पूर्ववर्ती साधन ( सत्संग , साधु की सेवा , जप तथा स्थूल ध्यान ) भी करता हो । नाद का पता विन्दु प्राप्त करने पर लगता है । विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् । -योगशिखोपनिषद् 

    विन्दुपीठ को भेदन करने की यह क्रिया है । जब या मुक्ति जीव की होई ।मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई ।। सतगुरु संत कंज में बासा । सुरत लाइ जो चढ़े अकाशा ।। श्यामकंज लीला गिरिसोई।तिल परिमान जान जन कोई ।। छिन छिन मन को तहाँ लगावै । एक पलक छूटन नहिं पावै ।।  श्रुति ठहरानी रहे अकासा । तिल खिरकी में निसदिन वासा ।। गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ।। -तुलसी साहब

     इसी तरह विन्दु का भेदन कर नाद प्राप्त करना है । हमलोगों को चाहिए कि गुरु महाराज के विचारों को बारम्बार स्मरण करें तथा साधन करें । पता सत्संग इसलिए करते हैं कि बोध हो । बिना बोध के क्या करेंगे , कुछ पता नहीं चलता । कोई कहे कि बोध हो गया , अब सत्संग करके क्या करेंगे , तो उसे जानना चाहिए कि सत्संग साधन करने की प्रेरणा करता है , बिना सत्संग के यह प्रेरणा नहीं मिलती । प्रेरणा से भजन होता है । भजन नहीं हो तो केवल बोध से ही क्या होगा ईश्वर तथा गुरु महाराज से प्रार्थना है कि हमलोग अपने कर्तव्य कार्य से गिरें नहीं । ०


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S07, (क) बाबा साहब के उपदेशों का सार ।। ईश्वर प्राप्ति का उपाय ।। महर्षि मेंहीं प्रवचन १६-०१-१९५१ई. S07, (क)  बाबा साहब के उपदेशों का सार ।। ईश्वर प्राप्ति का उपाय ।। महर्षि मेंहीं प्रवचन १६-०१-१९५१ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/16/2020 Rating: 5

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