महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 38
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 38वां, को । इसमें चित्त का स्वभाव, मुक्ति के भेद, मुक्ति कब मिलती है? इसके बारे में बताया गया है।
इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- mukti ka arth, saur jagat ke mandalon ka varnan, daihik daivik aur bhautik rog, sansaar ke any rog aur du:kh, sthool aur sookshm shareer ke bhed, chitt ka svabhaav, mukti ke bhed, mukti kab milatee hai? raamadhan kya hai? raamadhan kee visheshata, geeta ke anusaar yogabhrasht kee gati, इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- न तो नशा मुक्ति का उपाय, न पापों से मुक्ति का उपाय, न कर्ज मुक्ति का उपाय, और न ही ऋण मुक्ति का उपाय, बल्कि इसमें मोक्ष-मुक्ति का उपाय, मुक्ति का अर्थ, मुक्ति के प्रकार, मुक्ति क्या है, मुक्ति in हिन्दी, योगभ्रष्ट की मुक्ति, योगी की गति और मुक्ति, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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Difference between Yoga and Liberation
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! मुक्ति का अर्थ है छुटकारा । कोई बंधन में रहता है , तब उससे छूटना चाहता है । तो हमलोग बंधन में बँधे हैं । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--Meaning of liberation, description of the circles of the solar world, somatic divine and physical diseases, other diseases and sorrows of the world, differences of gross and subtle body, nature of mind, differences of liberation, when is liberation? What is Ramdhan? The specialty of Ramdhan, according to the Gita, the speed of the Yogabhrasht,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
३८. तन पर सुखिया काहू न देखा
प्यारे लोगो !
मुक्ति का अर्थ है छुटकारा । कोई बंधन में रहता है , तब उससे छूटना चाहता है । तो हमलोग बंधन में बँधे हैं । जिस प्रकार कोई कारागार में हो , उसी प्रकार हमलोग शरीर और संसार के कारागार में बंदी हैं । बंदी नहीं समझो तो कैदी जरूर समझो । कारागार नहीं समझो तो जेल और कैदखाना जरूर समझोगे । हमारा दुर्भाग्य कि अपने भाषा को भूलकर अन्य भाषा को अपनाए हुए हैं ।
यहाँ लोग जहाँ पर हैं यह सौर जगत है । अर्थात् यहाँ से सूर्यमण्डल जहाँ देखते हैं - स्थूल मंडल है । इसके सहित सूक्ष्म , कारण , महाकारण ; ये चार मण्डल जड़ के हैं । आँख बंद करने से अंधकार मालूम होता है । लक्ष्मणजी ने परशुरामजी से कहा था- ' मुदे आँख कतहुँ कोउ नाहीं । '
अंधकार में जो चीज है , वह आप नहीं पा सकते , वह चीज तभी मिलेगी , जब प्रकाश हो । आप चाहते हो कि मेरे शरीर में कोई रोग नहीं आवे । संयम से रहते हैं , तो भी दैहिक , दैविक , भौतिक किसी - न - किसी प्रकार का रोग आ ही जाता है । संत कबीर साहब ने कहा-
तनधर सुखिया काहू न देखा , जो देखा सो दुखिया हो । उदय अस्त की बात कहतुहौं , सबका किया विवेका हो ॥ घाटे बाढ़े सब जग दुखिया , क्या गिरही वैरागी हो । शुकदेव अचारज दुख के डर से , गर्भ से माया त्यागी हो । जोगी दुखिया जंगम दुखिया , तपसी को दुख दूना हो । आसा तृष्णा सबको व्यापै , कोई महल न सूना हो ॥ साँच कहीं तो कोई न मानै , झूठ कहा नही जाई हो । ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया , जिन यह राह चलाई हो । अवधूदुखिया भूपति दुखिया , रंक दुखी विपरीती हो । कहै कबीर सकल जगदुखिया , संतसुखी मन जीती हो ।
भगवान श्रीराम संसार में रोने की लीला करते हैं । जब वे ही रोते हैं , तब औरों की बात ही क्या ? बालक जन्म लेते ही रोता है । राज राजेश्वर का पुत्र भी रोते ही जन्म लेता है । श्रीराम ने प्रकट होकर कौशल्याजी को दर्शन दिया चतुर्भुजी रूप में । माता कौशल्या बोली , यह रूप छोड़िए और साधारण बच्चे का भेष धरकर रोइए । सुनि वचन सुजाना रोदन ठाना ।
संसार में जाओगे , तो संसार में रोना - ही - रोना पड़ेगा संसार दुःखमय है । इसमें जो आवेंगे , उनको रोना ही पड़ेगा । हिमालय के शिखर पर जाने से भी दुःख नहीं छूटेगा । शरीरिक , दैविक , भौतिक और मानसिक कोई न कोई कष्ट होगा ही ।
शरीर और संसार की फाँस में हमलोग फँसे हैं । इससे छूटने का नाम है - मुक्ति । यदि कहो कि मरने पर शरीर छूट जाएगा , मुक्ति होगी , तो सो नहीं । स्थूल शरीर छूटेगा , लेकिन सूक्ष्म शरीर रहेगा । फिर स्थूल शरीर होकर दु : ख होगा । यदि दान - पुण्य कर स्वर्ग जाओ तो भी फिर यहाँ आकर दुःख भोगना पड़ेगा । युधिष्ठिर ने कितने दान - पुण्य , तीर्थ किए । उसके बदले में स्वर्ग आदि भोगे , फिर उनको नरक भी देखना पड़ा , थोड़ा - सा झूठ बोलने पर । चित्त का स्वभाव है - मैं सुखी - दुःखी , भोग करनेवाला हूँ । यह स्वभाव चित्त से कोई हटा नहीं सकता । जैसे देह से मैल को कोई हटा नहीं सकता । चाहे उबटन लगाकर स्नान करो । इस प्रकार चित्त में कर्ता भोक्ता , सुखी - दुःखी होते रहना दुःख का कारण है ।
अभी जो आपलोगों ने मुक्तिकोपनिषद् का पाठ सुना । उसमें भगवान श्रीराम हनुमानजी को उपदेश देते हैं - मैं सुखी हूँ , दुःखी हूँ , करनेवाला हूँ तथा भोगनेवाला हूँ – यह चित्त का धर्म है । यही बंधन का कारण है । चित्त के धर्म पर जो काबू पा लेता है , वह जीवन - मुक्त है । शरीर रहते मुक्ति मिल गई , शरीर में है , किंतु शरीर - संसार का बंधन उसपर असर नहीं करता । ऐसे पुरुष का जब शरीर छूटता है , तो केवल स्थूल नहीं , जड़ के तीनों शरीर छूट जाते हैं । घर के अंदर जो आकाश है , घट आवरण टूटने से मुक्त हो जाता है उसी प्रकार जीवन - मुक्त के शरीर के छूटने से वह घटाकाश की तरह मुक्त हो जाता है । तब वह विदेह - मुक्त हो जाता है ।
राजा जनकजी जीवन - मुक्त थे । शरीर में रहते हुए भी वे विदेह कहलाते थे । जीवन - मुक्त पुरुष को अख्तियार है कि वह शरीर और संसार में रहें या नहीं । किंतु नियम पालन के लिए अपने शरीर को रखे रहते हैं । जैसे हनुमानजी को ताकत थी कि मेघनाद की फाँस को काट दे ; किंतु ब्रह्मफाँस की मर्यादा रखने के लिए अपने बँधकर रावण के दरबार में गए । उसी प्रकार जीवन - मुक्त परमात्मा के विधान का पालन करते हैं और संसार का उपकार करते हैं । तो यह जीवन मुक्ति शरीर में रहते हुए ही होती है , मरने पर नहीं । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है लहहिं चारि फल अछत तनु , साधु समाज प्रयाग ।
संत कबीर साहब ने भी कहा है जीवन मुक्त सोइ मुक्ता हो । जब लगजीवन मुक्तानाही , तब लगदुख सुख भुगता हो । देह संग ना होवै मुक्ता , मुए मुक्ति कहँ होई हो । तीरथवासी होय न मुक्ता , मुक्तिनधरनी सोई हो ।। जीवत कर्म की फाँसन काटी , मुए मुक्ति की आसा हो । जल प्यासा जैसे नर कोई , सपने फिरै पियासा हो ।। हदै अतीत बंधन तें छूटै , जहँ इच्छा तहँ जाई हो । बिना अतीत सदा बंधन में , कितहूँ जानिनपाई हो ।। आवागमन से गये छूटि कै , सुमिरिनाम अविनासी हो । कहै कबीर सोई जन गुरु है , काटी भ्रम की फाँसी हो ।।
इस प्रकार उपनिषद् और संतवचन मिलाने पर एक ही मिल जाता है । यह एक जन्म की बात नहीं है । एक जन्म में नहीं होगा , तो दूसरे , तीसरे कई जन्मों में हो जाएगा । यह राम धन है । दिन दिन बढ़त सवाई , रामधन कबहूँ न लागै काई ।।
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में पढ़िये भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा - हे महाबाहो ! यदि ध्यानयोग में श्रद्धा रखे , परंतु साधन में ढीला रहे तो ये योगभ्रष्ट पुरुष किस गति को प्राप्त करेंगे ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ऐसे योगभ्रष्ट पुरुष अपने स्वल्पातिस्वल्प ध्यानयोगाभ्यास के फल से दुर्गति को प्राप्त न होकर प्रथम स्वर्ग सुख भोगेगा ; पुनः इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान के घर में अथवा किसी ज्ञानवान योगी के घर में जन्म लेगा । पूर्व के अभ्यास संस्कार से प्रेरित होकर ध्यान योगाभ्यास में लग जाएगा । वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा और इस प्रकार अनेक जन्मों की कमाई के द्वारा पापों से छूटकर पवित्र होता हुआ परमगति ( मोक्ष ) को प्राप्त करेगा ।
विद्यालय में जो विद्यार्थी पढ़ते हैं । पढ़ते - पढते कितने की आधी उम्र खतम हो जाती है , तब कहीं योग्य समझे जाते हैं और इस जीवन - मुक्त अवस्था के लिए कहना कि जल्दी क्यों नहीं होती है ? जिस तरह विद्यार्थी धीरे - धीरे पढ़ते - पढ़ते योग्य होते हैं , उसी प्रकार यह अवस्था प्राप्त करने के लिए श्रवण , मनन , निदिध्यासन करके अनुभव ज्ञान में जीवनमुक्त की दशा प्राप्त करेंगे । ०
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 39 को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि मुक्ति का अर्थ, सौर जगत के मंडलों का वर्णन, दैहिक दैविक और भौतिक रोग, संसार के अन्य रोग और दु:ख, स्थूल और सूक्ष्म शरीर के भेद, चित्त का स्वभाव, मुक्ति के भेद, मुक्ति कब मिलती है? रामधन क्या है? रामधन की विशेषता, गीता के अनुसार योगभ्रष्ट की गति, । इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S38, Difference between Yoga and Liberation ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.18-4-1954ई..
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
9/23/2020
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