महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 71
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ७१ के बारे में। इसमें बताया गया है कि नवधा भक्ति में शम दम का महत्व, बिंदु ध्यान की महिमा और वर्णन । गीता के अणु-से-अणु रूप की प्राप्ति कैसे होती है? नादानुसंधान के विविध नामों की चर्चा और उपयोग ।
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- भक्ति क्या है? भक्ति करने के लिए क्या जरूरी है? आंख आदि इंद्रियों से ईश्वर को क्यों नहीं देख सकते? परमात्मा को कैसे जान सकते हैं? भक्ति किसे कहते हैं? परमात्मा क्या खाते हैं? ईश्वर कैसे प्रसन्न होते हैं? "तन काम में मन राम में" कैसे होता है? शबरी की भक्ति कैसी थी? प्रथम भक्ति कैसे करनी चाहिए? नवधा भक्ति क्या है? इंद्रियों को वश में कैसे रख सकते हैं? बीड़ी पीना कैसे छूटता है? तंद्रा अवस्था किसे कहते है? मन कहां रहता है? जीव का वास स्थान कहां है? जीव कब कहां रहता है? दमशीलता कैसे आती है? भगवान के अनुरूप का वर्णन गीता के किस अध्याय में है? दम किसे कहते हैं? शम किसे कहते हैं? नादानुसंधान क्या है? नवधा भक्ति का सार क्या है? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- सत्संग ध्यान, महर्षि-मेहीं-अमृतवाणी, शिव की नवधा भक्ति, नवधा भक्ति रामायण चौपाई, प्रथम भक्ति संतन कर संगा, भक्ति की परिभाषा, नवधा भक्ति गाना, भक्ति का महत्व, नवधा भक्ति के अंगों के नाम, नवधा भक्ति क्या है, नवधा भक्ति आखिर है क्या? भक्ति के भेद, नवधा भक्ति क्या होता है? नवधा भक्ति रामायण चौपाई PDF, नवधा भक्ति रामायण चौपाई Lyrics, नवधा भक्ति कथा, शिव की नवधा भक्ति, नवधा भक्ति जैन, नवधा भक्ति वीडियो, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 70 को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
नवधा भक्ति और बिंदु ध्यान पर चर्चा करते गुरुदेव |
Describing point meditation in Navadha Bhakti. नवधा भक्ति में बिंदु ध्यान का वर्णन
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! इस समय आपलोगों के सामने ईश्वर की भक्ति पर कहना है । ईश्वर - स्वरूप का जब निर्णय हो जाता है , तब समझ में आने लगता है कि ईश्वर की भक्ति कैसे हो ?..... इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is devotion? What is needed to do devotion? Why can't eyes see God with their senses? How can one know God? What is Bhakti called? What does God eat? How is God pleased? How is "mind in mind, in Ram"? How was Shabri's devotion? How to do first devotion? What is Navadha Bhakti? How can you control the senses? How does it stop smoking bidi? What is sleep state? Where does the mind live Where is the habitat of the creature? Where does the creature live? How does potency come? Which chapter of the Gita is described as analogous to God? What is Dum? What is sham? What is an appendicitis? What is the essence of Navadha Bhakti?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
७१. तन काम में मन राम में
इस समय आपलोगों के सामने ईश्वर की भक्ति पर कहना है । ईश्वर - स्वरूप का जब निर्णय हो जाता है , तब समझ में आने लगता है कि ईश्वर की भक्ति कैसे हो ? ईश्वर - स्वरूप के लिए आज प्रात : काल कह दिया गया है । मुख्य रूप में यह कि जैसे रूप विषय क्या है -जो नेत्र से ग्रहण होता है । शब्द विषय क्या है -जो कान से ग्रहण होता है। परमात्म - विषय क्या है -जो आत्मा से ग्रहण हो । यदि कहो कि सब इन्द्रियों में वही चेतन आत्मा है , तब क्यों नहीं इन्द्रियों से जानेंगे जो यंत्र जिस पदार्थ के लिए होता है , उसी यंत्र से वह पदार्थ ग्रहण होता है । जैसे रूप आँख का विषय है , तो उसे कान से नहीं जान सकते । रूप को जानने के लिए आँखरूपी यंत्र लगाते हैं । परमात्मा इन सब यंत्रों से ग्रहण नहीं हो सकता । चेतन आत्मा से परमात्मा का ग्रहण होगा ।
अब जानिए कि ईश्वर की भक्ति कैसे हो ? भक्ति का अर्थ है - सेवा । जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता होती है , उसे वह वस्तु दे दीजिए , तो उसकी सेवा हुई । जैसे कोई बीमार है , उसे दवाई दीजिए , तो वह उसकी सेवा हुई । किसी की आवश्यकता पूरी होनी , उसकी वह सेवा है । परमात्मा को क्या आवश्यकता है , वह पूरी कर दीजिए , वही उसकी सेवा होगी ।
हमलोगों की तरह परमात्मा को भूख नहीं लगती । शारीरिक आवश्यकताएँ जो हमलोगों की हैं , वे उसे नहीं चाहिए । लोग कहेंगे कि हमलोग जो भोग लगाते हैं , वह क्या खाते नहीं हैं ? यदि खरे ज्ञान में कहिए , तो उससे परमात्मा का कोई निजी काम नहीं है उससे आपका अपना काम होता है । जैसे पिता पुत्र का काम देखकर प्रसन्न होता है , उसी तरह आपकी श्रद्धा जो परमात्मा की ओर है , उससे वह प्रसन्न होता है । केवल भोग ही लगाया जाय कि और कुछ भी है ? भोग लगाइए । भोग लगाने में आप अपना प्रेम अर्पित करते हैं बहुत दाम का प्रसाद या कम दाम का प्रसाद या केवल तुलसीदल । जहाँ विशेष प्रेम है , वहीं परमात्मा को भोग लगा । ' भाव अतिशय विसद प्रवर नैवेय सुभ श्रीरमन परम संतोषकारी । प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल विपुल भव वासना बीज हारी ।। ' ' रामहिं केवल प्रेम पियारा । जानि लेहु जो जाननिहारा ।। -गोस्वामी तुलसीदासजी
आपका प्रेम जहाँ है , वहीं मन लगा रहता है । जिस ओर जिसका प्रेम बहुत होता है , किसी काम को करते हुए भी उस ओर उसका ख्याल लगा रहता है । यही है - तन काम में मन राम में ।
अभी नवधा भक्ति का पाठ आपलोगों ने सुना । मेरे ख्याल में शवरी को किसी भक्ति में कमी नहीं थी । वह भक्ति में पूरी थी , श्रीराम ने कहा - सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे । शवरी ने कहा अधम जाति मैं जड़मति भारी । जो बुद्धिमान होते हुए भी अपने को बुद्धिमान नहीं जानता , वह ज्ञानी है और जो बुद्धिमान नहीं है , फिर भी अपने को बुद्धिमान मानते हैं , यथार्थ में वे बुद्धिमान नहीं है । शवरी पढ़ी - लिखी तो नहीं थी , किंतु मतंग ऋषि के साथ वर्षों रह चुकी थी , बहुत ज्ञान प्राप्त कर चुकी थी ।
श्रीराम ने कहा - पहली भक्ति संतों का संग है । इसमें गुण क्या है ? संत कबीर साहब ने कहा कबीर संगति साधकी , ज्यों गंधी का वास । जो कुछ गंधी दे नहीं , तो भी वास सुवास ।।
इसी तरह कोई साधु के पास में जाय साधु यदि कुछ नहीं भी बोले , तो भी कुछ - न - कुछ लाभ अवश्य होगा । गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बात कही है नित प्रति दरसन साधुके , औ साधुन के संग तुलसी काहि वियोगतें , नहिं लागा हरिरंग ।।
उत्तर में उन्होंने ही कहा मन तो रमे संसार में , तन साधुन के संग तुलसीयाहि वियोगते , नहिं लागा हरिरंग ।।
जिसका मन किसी और तरफ है और साधु का संग करता है , तो उस पर उसका रंग नहीं चढ़ता । इसकी एक कहानी है कि लोहे के बक्से में किसी ने पारस रखा था , किंतु वह बक्सा सोना नहीं हुआ । सुनकर आश्चर्य होगा कि भला लोहे के बक्से में पारस रहे , तो सोना कैसे नहीं हुआ ? इसलिए कि पारस को कपड़े में लपेटकर रखा था । पारस से लोहे को सटाने से ही लोहा सोना हो सकता है , कुछ अंतर रहने से नहीं ।
दूसरी भक्ति है - ईश्वर की कथा में प्रेम । सत्संग - वार्ता को मन लगाकर सुनिए ।
तीसरी भक्ति है - गुरु की सेवा अमानी होकर करो ।
चौथी भक्ति है - ईश्वर का गुणगान करो ।
पाँचवीं भक्ति है - मंत्रजाप करो । मन एकाग्र करके जपो । ऐसा नहीं कि माला तो कर में फिरै , जीभ फिरै मुख माहिं । मनुवाँ तो दह दिसि फिरै , यह तो सुमिरन नाहिं ।। बल्कि तन थिर मन थिरवचन थिर , सुरत निरत थिर होय । कह कबीर इस पलक को , कलप न पावै कोय ।।
जप ऐसा होना चाहिए कि स्थिरता आवे । पाँचों भक्तियाँ क्रम से हैं । प्रथम भक्ति संतों का संग है । संतों का संग होने से कथा - प्रसंग होता है । कथा - प्रसंग से यह भी निर्णय हो जाएगा कि गुरु कैसा होना चाहिए । कथा प्रसंग में मन लगाकर सुनो । इधर - उधर मन भटके नहीं । गुरु की सेवा भी मन लगाकर करो । मन लगाकर गुरु की सेवा नहीं करोगे तो उस सेवा को गुरु स्वीकार नहीं कर सकते । सब भक्तियों में अपने मन का पूर्ण योग और क्रमबद्धता है । जैसे - जैसे जो - जो भक्ति है , उसको उसी क्रम से रखना ठीक है । ईश्वर का यशगान मन लगाकर करो । कोई गुरु के संग में रहता है , तो गुरु को स्वयं ईश्वर का भक्त होना चाहिए और अपने पास रहनेवाले शिष्य को भी ईश्वर - भक्त होने की शिक्षा देंगे ।
एक भक्ति से पाँचवीं भक्ति तक सबमें मन लगाने कहा । पाँचवीं भक्ति तक स्थूल भक्ति है । इसके आगे और भक्ति है । छठी भक्ति जहाँ से है , वहाँ से सूक्ष्म भक्ति है ।
छठी भक्ति है इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनना । इन्द्रियाँ काबू में नहीं हैं , तो कोशिश करके उनको रोकते हैं , यह एक बात है । दूसरी बात है कि अब इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाती नहीं हैं । इन्द्रियों की रोक होने में ही सज्जनों के धर्म के अनुकूल चलना हो गया । इन्द्रियों के रोकने का स्वभाव कैसे होगा , इन्द्रियों का समेट कैसे हो सकता है ? मन और बाहर की सब इन्द्रियों में बड़ा लगाव है । जिस विषय की ओर मन गया , उस विषयवाली इन्द्रिय उस ओर हो गई या जिस विषय को जिस इन्द्रिय ने ग्रहण किया , मन उसी ओर लग गया । मन उन वस्तुओं को ग्रहण करता है , जिनको इन्दियाँ ग्रहण करती हैं । इन्द्रिय से किसी विषय को आप पहले ले चुके हैं ; किंतु अब आपके मन को बोध हुआ कि उस ओर नहीं जाएँ , तो बाहर में रोकने का हिस्सक लगाने पर भी मन उस ओर भागता है ; किंतु जब उसको बराबर रोकते रहते हैं , तो रोकते - रोकते वह रूक जाता है । जैसे कोई मांस - मछली पहले खाते थे , वे जब पहले छोड़ते हैं , तो मन उसपर दौड़ता है ; किंतु समझाते - समझाते मन समझ जाता है और पीछे ऐसी दुर्गन्ध लगती है कि जिस थाली में कोई मांस - मछली खाता है , उस थाली में उनसे खाया नहीं जाता । बाहरी इन्द्रियों को रोकते - रोकते मन रूक जाएगा । उसी प्रकार तम्बाकू बीड़ी , सिगरेट पीनेवाले सबकी यही बात है । पहले बीड़ी पीनेवाले जो बीड़ी छोड़ते हैं तो पहले मन लुक - पुक करता है और यदि शरीर , मुँह और हाथ को रोके रहो तो मन भी रुक जाता है । इसलिए मन कहीं जाए , तो जाने दो ; किंतु शरीर को रोके रहो , तो वह कर्म नहीं होगा । पीछे मन उस कर्म को करने के लिए नहीं दौड़ेगा । इसलिए कबीर साहब ने कहा मन जाय तो जाने दे , तू मत जाय शरीर । पाँचो आत्मा बस करे , कह गए दास कबीर ।।
मन का तार सभी इन्द्रियों में लगा हुआ है । मन का तार सिमटते ही इन्द्रियाँ उधर से मुड़ जाती हैं । जैसे जाग्रत से स्वप्न में जाते हैं , तो एक अवस्था होती है , जिसे तन्द्रा कहते हैं । उसमें मालूम होता है कि शक्ति भीतर की ओर सिमटती है । सिमटते - सिमटते बिल्कुल सिमट जाती हैं और इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं । मन की धार को कैसे समेटेंगे ? इसके लिए मन कहाँ है , यह जानिए । जहाँ यह है , वहीं धार को समेटिए । कबीर साहब ने कहा है इस तन में मन कहाँ बसै , निकसि जाय केहि ठौर । गुरु गम है तो परखि ले , नातर कर गुरु और ।। नैनों माहीं मन बसै , निकस जाय नौ ठौर । गुरु गम भेद बताइया , सब संतन सिरमौर ।।
ब्रह्मोपनिषद् में आया है जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छतेपुनः । नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् । सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्धिसंस्थितम् ।।
अर्थात् जीव जाग्रत और स्वप्न में पुनः पुनः आता - जाता रहता है । जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में , स्वप्न में कण्ठ में , सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है ।
जाग्रत में नेत्र में है , इसलिए दृष्टियोग अच्छी तरह कीजिए । दृष्टि एक ओर करने के लिए यत्न जानिए और उसका अभ्यास नित्य प्रति किया कीजिए । फिर आपको ज्ञात होगा कि इन्द्रियाँ विषयों में दौड़ती नहीं हैं । बिना दृष्टियोग के दमशीलता नहीं आती । हठक्रिया के द्वारा भी लोग दमशीलता प्राप्त करने कहते , किंतु हठयोग के किए बिना ही यदि दृष्टियोग ठीक - ठीक किया जाय तो दमशीलता आ जाएगी । छठी भक्ति में जिस निशाने पर दृष्टि रहती है , वह निशाना वही है जिसे गीता में अणु - से - अणु अर्थात् छोटे - से - छोटा विन्दु कहा है । जो एकविन्दुता प्राप्त करते हैं , वे परमात्मा का सूक्ष्म रूप - अणु - से - अणु रूप प्राप्त करते हैं । परमात्मा सर्वरूपी हैं अचर चर रूप हरिसर्वगत सर्वदा वसत इति वासनाधूप दीजै । -गोस्वामी तुलसीदासजी । विन्दु भगवान का तेजस्वी रूप है । कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।। -गीता , अध्याय ८ / ९
जो दृष्टियोग करता है , वह ईश्वर के इस रूप का ध्यान करता है । इसका मानस ध्यान नहीं होता । केवल देखो , आप ही उदय होगा । किसी रूप का चिन्तन मत करो । सब आकार - प्रकारों का ख्याल छोड़कर होश में रहकर देखने के यत्न से देखो , उदय होगा । जब हमारे ख्याल से , सब रंग - रूप छूट जायँ , वचन बोलने की सब बातें चली जायँ , तब परमात्मा बच जाएगा । इसका बहुत अच्छा अभ्यास होना चाहिए । यह छठी भक्ति है । यह हुआ दम । मन - इन्द्रियों के संग - संग के साधन को दम कहते हैं । ' शम ' कहते हैं मनोनिग्रह को । ' शम ' और ' सम ' - दोनों में बड़ा मेल है । ' शम ' के बिना ' सम ' ( समता ) हो नहीं सकता । सातम सम मोहिमय जगदेखा । मोतें अधिक संत करि लेखा ।। '
मोहिमय जग देखा ' मान लेने से नहीं होगा । स्वाभाविक है ; किंतु इसको देखने के लिए जानो । वह सर्वत्र है । सबकी दृष्टि पडै अविनाशी , बिरला संत पिछाने । कहै कबीर यह भर्म किवाड़ी , जो खोले सो जाने ।।
'शम' है मनोनिग्रह । दृष्टिसाधन में विन्दुग्रहण होता है । विन्दु पर नाद अवस्थित है बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।। -ध्यानविन्दूपनिषद्
सब रूपों का - दृश्यमण्डल का बीज विन्दु है । उसके ऊपर शब्द है , जो न पशु - पक्षी की भाषा है , न किसी बाजे - गाजे का । वह अंतरध्वनि है , ब्रह्मनाद है । बिना विन्दु प्राप्त किए हुए भी शब्द सुनने में आता है , किंतु वह शब्द नहीं सुनने में आता , जो विन्दु ग्रहण करने पर सुनने में आता है । वह सूक्ष्म मण्डल का शब्द है । बिना विन्दु पर आरूढ़ हुए जो शब्द सुनते हैं , वह शरीर के रग - रेशे , धमनियों के चलने से उत्पन्न शब्द है । किंतु विन्दु प्राप्त करके जो शब्द सुना जाता है , वह असली ध्वनि है।
सातवीं भक्ति नादानुसंधान है । इसी को ॐ , स्फोट , रामनाम आदि कहा है । उसमें केवल मन का साधन होता है । वहाँ बाहरी इन्द्रियों को कोई सरोकार नहीं रहता । इस नाद साधना में जो सफलता को प्राप्त कर लेता है , उससे पूर्णरूपेण ‘ शम ' का साधन हो जाता है ।
अब आठवीं भक्ति और नवमी भक्ति बिल्कुल सरल है । जिसे इन्द्रियनिग्रह , मनोनिग्रह हो गया है , उसके लिए ' यथा लाभ संतोषा ' हो ही जाएगा । वह सबके प्रति सरल हो जाएगा ।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज से किसी ने पूछा सिद्धपुरुष कैसे होते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया आलू और बैगन की सब्जी नहीं खाए हो ! आलू बैगन की सब्जी मुलायम होती है , वैसे ही मुलायम होते हैं । जिसको शम - दम होगा , वह सरल , मुलायम हो ही जाएगा । यदि कहो कि नवधा भक्ति में मानस ध्यान नहीं हुआ । तो समझना चाहिए कि ' पद पंकज सेवा ' इसी में मानस ध्यान हो गया अथवा मानस जप के बाद मानस ध्यान होता है । पाँचवीं भक्ति जप है , उसी में मानस ध्यान भी है।
आपकी श्रद्धा जिस रूप में हो , उसका मानस ध्यान कीजिए । एक से पाँच तक स्थूल भक्ति है । छठी और सातवीं सूक्ष्म भक्ति है । आठवीं और नवमी तो फल स्वरूप है । इस प्रकार भक्ति को जानकर सबको करना चाहिए ।०
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Importance of Sham Dum in Navdha Bhakti, the glory and description of point meditation. How is the molecule-to-molecule form of Gita attained? Discussion and use of miscellaneous names of Nadanusandhan. इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S71, (क) Navadha Bhakti mein Bindu Dhyaan ka varnan ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 12-04-1954ई.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/23/2020
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