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S72, (क) Kabeer Vaanee mein Paramaatma kaisa hai ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 15-04-1954ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 72

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ७२ के बारे में। इसमें बताया गया है कि  गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज, संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब की वाणी में निर्गुण स्वरूप परमात्मा का वर्णन किस तरह से किया गया है।

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  सत्संग का आधार क्या है ? ज्ञानेंद्रिय कितनी है और उनके क्या-क्या काम है? मन, बुद्धि और चित्त के क्या काम है? इंद्रियों से परमात्मा का ज्ञान क्यों नहीं होता? गोस्वामी जी के  ईश्वर स्वरूप से संबंधित विचार क्या है? सगुण किसे कहते हैं? 3 गुण कौन-कौन से हैं? ईश्वर निर्गुण से सगुन क्यों होते हैं? आप कौन हैं? इंद्रिया कैसे काम करती है? परमात्मा को कैसे जान सकते हैं? कबीर साहब की दृष्टि में परमात्मा कैसा है? गुरु नानक साहब ईश्वर को कैसा बताते हैं? परमात्मा है कि नहीं? परमात्मा का भजन करने से क्या मिलता है?  इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- कबीर वाणी में परमात्मा कैसा है? कबीर परमात्मा के प्रवचन, कबीर परमात्मा की अमृतवाणी, कबीर परमात्मा की आरती, परमात्मा, कबीर परमात्मा के विषय में क्या कहते हैं, पूर्ण परमात्मा का क्या नाम है, कबीर भगवान कबीर के दोहे, वेदों में प्रमाण है कबीर साहेब भगवान है, कबीर परमात्मा के दोहे, पूर्ण परमात्मा कौन है, कबीर दास क्या भगवान है,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 71 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

संत कबीर साहब की वाणी में परमात्मा  कैसा है? का वर्णन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
कबीर वाणी में ईश्वर स्वरूप कैसा है?

How is God in Kabir speech? कबीर वाणी में परमात्मा कैसा है?

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे सज्जनो ! संतों के ज्ञान में सबसे विशेष बात ईश्वर का ज्ञान है , मोक्ष का ज्ञान है । यद्यपि दोनों वाक्य पृथक - पृथक मालूम होते हैं , किंतु दोनों दो नहीं , एक ही हैं ज्ञान के साथ योग रहता है और योग के साथ भक्ति रहती है ।.....   इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is the basis of satsang?  How much knowledge is there and what are their functions?  What is the work of mind, intellect and mind?  Why does the senses not have knowledge of God?  What is the idea of ​​Goswami Ji related to the form of God?  What is Saguna?  What are the 3 qualities?  Why is God attained by virtue?  Who are you?  How does Indriya work?  How can one know God?  How is God in Kabir's view?  How does Guru Nanak tell God?  Is it divine or not?  What is gained by worshiping God?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

७२. त्रयकाल संध्या करनी चाहिए 

गोस्वामी तुलसीदास जी, संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब के बचन में ईश्वर स्वरूप का वर्णन करते गुरुदेव

प्यारी धर्मानुरागिनी जनता ! 

     संतों की वाणी को जब हम सुनते हैं और उसका मनन करते हैं , तो साफ तौर से ज्ञात होता चला जाता है कि संतों के उपदेश का केन्द्र विन्दु परमात्मा है । संतलोग परमात्मा को छोड़कर उपदेश करते हैं ऐसा नहीं । यह केवल भारती भाषा में ही संतों ने नहीं कहा , संस्कृत विद्या में , उपनिषद् में भी ऋषि मुनियों ने कहा है । लोग ख्याल करते हैं कि इन्द्रियों से ईश्वर का दर्शन कर लेंगे ; किंतु सभी संतों , महर्षियों ने कहा - वह इन्दियों से नहीं जाना जा सकता । इन्द्रियों की पहुँच या उसका ज्ञान वहाँ तक नहीं हो सकता । बाहर विषयों को जानने के लिए पंच ज्ञानेन्दियाँ हैं । जैसे आँख से रूप का ज्ञान , कान से शब्द का ज्ञान , नाक से गंध का ज्ञान , जिभ्या से रसास्वादन का ज्ञान और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है । इन पाँचों ज्ञानों के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं होता । मन से संकल्प - विकल्प , बुद्धि से विचार , चित्त से कम्पन और अहंकार से विचार उत्पन्न होता है कि ' मैं हूँ ' । जिससे अपने तई के होने का ज्ञान होता है । चित्त ऐसा यंत्र है कि वह सबको चालू कर देता है , कँपा देता है ।

      बुद्धि बिना डोले विचार नहीं कर सकती । मन जो प्रस्ताव उठाता है , चित्त के बिना डुलाए वह प्रस्ताव नहीं कर सकता । पंच ज्ञानेन्द्रियाँ और पंच कर्मेन्द्रियाँ - इन दसों इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय ऐसी नहीं है कि अपने विषय को छोड़कर दूसरे विषय का ज्ञान करे । जैसे बुद्धि में विचार है , तो उस काम को मन नहीं कर सकता । जो बुद्धि से होता है , वह मन से नहीं हो सकता । जो मन से होता है , वह बुद्धि से नहीं हो सकता । और बाहर में जो इन्द्रियाँ हैं , जैसे आँख , तो आँख का काम रूप देखना है , इससे सुनना नहीं हो सकता । इसी प्रकार पाँचों बाहर की इन्द्रियों को जानिए । कोई भी इन्द्रिय नहीं है कि उसी एक इन्द्रिय से सब विषयों का ज्ञान हो । इन्द्रियाँ अत्यंत अल्प शक्तिवाली हैं । इनसे परमात्मा का ज्ञान होना कब संभव है ? संत लोगों के विचार में परमात्मा इन्द्रियों के परे है । राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार , नेति नेति नितनिगम कह

      अर्थात हे राम आपका स्वरूप वचन से जानने योग्य नहीं । बुद्धि के परे , सर्वव्यापक , आँखों से देखे जाने योग्य नहीं , अनंत और वेद जिसको नेति - नेति कहता है , ऐसा है ।

    गोस्वामी तुलसीदासजी को भी ऐसा कहना पड़ा । जिन तुलसीदास महाराज को सगुण साकार का बड़ा भक्त मानते हैं , उनको भी कहना पड़ा कि ईश्वर का स्वरूप यानी निज रूप मन - बुद्धि से परे है । उन्होंने यह भी कहा कि भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धेरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ॥ यथा अनेकन वेषधरि , नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ , आपुन होइन सोई ॥ -गोस्वामी तुलसीदासजी 

     गोस्वामीजी की विशेष आसक्ति किधर है , इसपर वे कहते हैं हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन , रसना राम सुनाम । मनहु पुरट संपुट लसत , तुलसी ललित ललाम ।।

     सगुण का अर्थ है - तीनों गुण सहित जो है । उत्पादक शक्ति , पालक शक्ति और विनाशक शक्ति - ये ही तीनों गुण हैं । इन तीनों गुणों का संग सदा रहता है । तमाम संसार में इन तीन गुणों की विविधता है । इन तीन गुणों से जो बना है ; इन तीन गुणों को जो धारण करता है , वह सगुण है । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि सगुण को आँख से पकड़े हुए हैं और हृदय से निर्गुण को। जो हृदय है , वह अंदर है और जो आँख है , वह बाहर है । बाहर सगुण सोने का डब्बा है और अंदर में निर्गुण रत्न है । गोस्वामीजी कहते हैं रामचरित मानस एहि नामा । सुनत श्रवण पाइअ विश्रामा ।।

      मानस में जल रहता है । उसमें जल - जन्तु रहते और गहराई भी रहती है । वे कहते हैं नवरस जप तप योगविरागा । ते सब जलचर चारु तडागा ।। रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनव सोइ वरवारि अगाधा । अगुन अखंड अलख अज जोई । भगत प्रेम वस सगुन सो होई ।। 

     भक्त के प्रेम से सगुण होता है , सो कारणवश होता है वह स्वरूपतः निर्गुण है । इस तरह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप , जिसका संतों ने वर्णन किया है , इन्द्रियों के ज्ञान में आने योग्य नहीं है । बाहर की दस और अंदर की चार इन्द्रियों को छोड़कर तब आप बचते हैं । आप शरीर नहीं हैं , इन्द्रियाँ नहीं हैं । इनके अतिरिक्त और जो बचता है , वह आप हैं । आप जीवात्मा हैं । मन , बुद्धि , अहंकार , चित्त और बाहर की इन्द्रियाँ यदि इससे अवलंबित नहीं रहें , तो कुछ भी नहीं कर सकतीं । उसी चेतन आत्मा के आधार पर सब इन्द्रियाँ काम करती हैं । जाग्रत में इन्द्रियों के साथ - साथ वह मौजूद है , तब सब इन्द्रियाँ काम करती हैं । जब आप सो जाते हैं , तब वह चेतन की धारा सिमटकर अंदर चली जाती है ; तब आप से कुछ भी काम नहीं होता । चेतनधारा इन्द्रियों के घाट पर रहने से इन्द्रियाँ काम करतीं थीं , सिमट जाने पर इन्द्रियाँ निर्बल हो गयीं । जिससे बल पाकर सब इन्द्रियाँ काम करती हैं , वह स्वयं कुछ काम कर सकती है या नहीं ? इन्द्रियों को बल देती हुई वह धारा विषयों का उपभोग करने की शक्ति देती है ; किंतु इन्द्रियों से छूटकर उसका निज विषय क्या है ? कठोपनिषद् में कहा गया है कि जीवात्मा का निज विषय परमात्मा है । 

     विशेष पढ़ने से , विशेष याद रखने से , विशेष प्रवचन करने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती । इसीलिए इन्द्रियों से ईश्वर को पहचानने का ख्याल भूल है। परमात्मा या सतसाहब ब्रह्म को चेतन आत्मा ही जान सकती है । ईश्वर दर्शन के लिए कौन - सा प्रयोग किया जाय ? स्वरूप जानना, बिना अंतस्साधना के नहीं हो सकता । इसके लिए सत्संग में जाकर सुन - सुनकर उसका ज्ञान प्राप्त करो । आप स्वयं उसको पहचान सकते । हमारी इन्द्रियाँ हमारे नौकर हैं । नौकर से वह पकड़ा नहीं जाता । आपके कोई विशेष पूज्य आपके पास यहाँ आवें , तो आप स्वयं उनकी सेवा कीजिए - यह अच्छा हो कि नौकर को फरमावे कि फलाना काम करो ; कौन अच्छा होगा ? कितना भी करो , परमात्मा इन्द्रियरूपी नौकर से पकड़ा नहीं जा सकता । इन्द्रियों से छूटकर आप ही उसे पकड़ सकते हैं । वह परमात्मा सर्वत्र है । दृष्टि से सब कुछ देखते हैं । दृष्टि में भी वह है ; किंतु दृष्टि उसे पहचान नहीं सकती । दिव्य दृष्टिमें भी वह परमात्मा है , किंतु दिव्यदृष्टि से भी वह पकड़ा नहीं जा सकता । वह परमात्मा सर्वव्यापक है । उसको इन्द्रियों से नहीं जान सकते कबीर साहब ने कहा - निरंजन परमात्मा न्यारा ही है 

राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार ।। अंजन ब्रह्माशंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद । अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद । अंजन विद्या पाठ पुरान । अंजन फोकट कथहि गियान । अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।। अंजन नाचै अंजन गावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ॥ अंजन कहौं कहाँ लगि केता । दान पुंनि तप तीरथ जेता ।। और अंत में उन्होंने कहा कहै कबीर कोइ बिरला जागै , अंजन छाडि निरंजन लागे ।।

     गुरु नानकदेवजी ने कहा अलख अपार अगम अगोचरि , ना तिसु काल न करमा ।। जाति अजाति अजोनी संभउ , ना तिसु भाउ न भरमा ।। साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु । ना तिसु रूप बरनु नर्हि रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।। ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी ।। अकुल निरंजन अपर परंपरु, सगली जोति तुमारी ।। घट घट अंतरि ब्रह्म लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई । बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।। जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई । सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।। सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी । तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।। 

     बाबा साहब ने भी कहा है - दृष्टि वहाँ तक जाती है , जहाँ तक रूप है । परमात्मा को यह दृष्टि पहचान नहीं सकती । इसलिए दृष्टि के बाद शब्द का दूसरा कायदा है । 

     परमात्मा सर्व सृष्टि को व्याप्त कर और कितना बाहर है , कहा नहीं जा सकता । परमात्मा की स्थिति अवश्य है । जोर इसलिए देते हैं कि एक आदि तत्त्व अवश्य होगा । वह आदि तत्त्व असीम होगा । जो असीम नहीं माने , ससीम माने , तो प्रश्न होगा कि तब वह ससीम किसके अंदर है ? वह ससीम जिसके अंदर है , वह असीम हो जाएगा । जो असीम है , वह विशेष सूक्ष्म है । वह ब्रह्म घट - घट में समाया हुआ है । गुरुमुख लोग निडर ध्यान लगाकर वज्र कपाट को खोल लेते हैं । इसलिए ध्यान का यत्न जानना चाहिए । समय बाँध - बाँधकर ध्यान करना चाहिए । संसार का भी काम कीजिए और ध्यान भी कीजिए । संसार में रहकर काम करते हुए शान्ति नहीं मिलती ; किंतु भजन में थोड़ा भी मन लगे , तो देखेंगे कितनी शान्ति मिलती है ; शरीर के साथ रहते हुए शान्ति और शरीर छूटने पर भी शान्ति । त्रयकाल संध्या करनी चाहिए । किसी को ऐसा ख्याल नहीं करना चाहिए और किसी के बहकाने से विश्वास नहीं करना चाहिए कि हम तुच्छ हैं , हमसे भजन - ध्यान नहीं होगा । जिनको यहाँ के लोग छोटी जाति का कहते हैं , वे लोग भी इतने बड़े - बड़े ध्यानी ज्ञानी हुए कि बड़े - बड़े लोगों ने भी जाकर उनके आगे सिर झुकाया । इसलिए ध्यान खूब कीजिए । व्यासदेव जी ने महाभारत में त्रयकाल संध्या पर बहुत जोर दिया है । इसलिए ध्यान खूब कीजिए ।०


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सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S72, (क) Kabeer Vaanee mein Paramaatma kaisa hai ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 15-04-1954ई. S72, (क) Kabeer Vaanee mein Paramaatma kaisa hai ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 15-04-1954ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/23/2020 Rating: 5

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