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S78, (क) Eeshvar avashy hai pramaanik Baaten ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 22-04-1954 ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 78

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है । आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ७८ को । इसमें तर्क बुद्धि, विचार बुद्धि और शास्त्र वचन प्रमाण से ईश्वर की स्थिति अवश्य है। जिनको ईश्वर में विश्वास नहीं है, वे भी इस प्रवचन को पढ़कर ईश्वर को अवश्य समझ जाएंगे। ऐसा बताया गया है। 

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में पायेंगे कि- सत्संग में क्या पढ़ना चाहिए? संतवाणी का सम्मान कैसे करना चाहिए? ईश्वर है, इसका विश्वास कैसे करें? ईश्वर है या नहीं इसमें मजबूत विचार किस पक्ष में है? गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब आदि संतों और उपनिषदों में ईश्वर को कैसा बताया गया है? तर्क बुद्धि से परमात्मा का होना निश्चित है। विचार बुद्धि से परमात्मा की स्थिति है कि नहीं? ज्ञान कितने तरह का होता है? साधु और संत में क्या अंतर है? ईश्वर कहां है? महतत्व किसे कहते हैं? ईश्वर की स्थिति का पूर्ण विश्वास कैसे होता है? की पूजा क्यों होता है? बिना गुरु के ईश्वरीय ज्ञान नहीं होता है?     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- ईश्वर अवश्य है प्रमाणिक बातें। ईश्वर दर्शन, ईश्वर का स्वरूप कैसा है, ईश्वर कौन है, ईश्वर एक है किसने कहा, क्या ईश्वर सत्य है, ईश्वर हमसे क्या चाहता है, ईश्वर और भगवान में अंतर, ईश्वर क्या है हिंदी में, सबसे बड़ा ईश्वर कौन है, ईश्वर का शाब्दिक अर्थ, गीता के अनुसार ईश्वर की परिभाषा, ईश्वर के गुण,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 77 को पढ़ने के लिए  यहां दबाएं।

ईश्वर स्वरूप का प्रमाणिक वर्णन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज
ईश्वर स्वरूप का प्रमाणिक वर्णन करते हुए गुरुदेव

God is definitely authentic. ईश्वर अवश्य है प्रमाणिक बातें

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! आपके सामने उपनिषद् का पाठ और कबीर साहब , गुरु नानक साहब , गोस्वामी तुलसीदासजी स्वामी विवेकानंद और भगवान बुद्ध के वचन का पाठ हुआ ।..... इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What to read in satsang? How should one respect Santwani? God is there, how to believe it? Is there a strong idea in favor of God or not? How is God described in saints and Upanishads like Goswami Tulsidas Ji Maharaj, Sant Kabir Saheb, Guru Nanak Saheb etc.? God is sure to have reason with logic. Is the state of God divine with thoughts or not? What kind of knowledge is there? What is the difference between a monk and a saint? Where is god What is importance? How does the state of God have complete faith? Why is it worshiped? Without a Guru there is no divine knowledge?....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

७८. विन्दु ज्योतिर्मय शालिग्राम है 


ईश्वर स्वरूप पर प्रमाणिक प्रवचन चित्र

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

     आपके सामने उपनिषद् का पाठ और कबीर साहब , गुरु नानक साहब , गोस्वामी तुलसीदासजी स्वामी विवेकानंद और भगवान बुद्ध के वचन का पाठ हुआ । इसलिए कि ' संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकारि । 

     संतों के वचन में जो लेने योग्य हो , आपलोग ले लें । हमलोग भी ऐसा ही करते हैं । हमलोग किसी संत को कम , किसी को विशेष नहीं मानते । उनके वचनों को हमलोगों को जानना है , समझना है और उसके अनुकूल चलना है । मैंने जो कुछ संतों की फुलवाड़ी से सुंदर - सुंदर पुष्पों को पाया है , उसमें जो सुगंधियाँ मुझे मिली हैं , वे भी मेरे पास हैं । वे भी आपलोगों को दूंगा । 

     बचपन से ही अपने - अपने घर में किसी - न किसी शब्द में ईश्वर के लिए सुना । बचपन में ही मुँह में शब्द आते ही हमारे बड़ों ने राम - राम , शिव - शिव आदि नाम जपाया है । बचपन से ही यह छाप पड़ गई है ; किंतु इसकी स्थिति कैसी है , नहीं जान पाया ; किंतु मान लिया । ठीक वैसे ही , जैसे स्कूल में अध्यापक कहते हैं कि कहो ' अ ' कहो ' क ' तो ठीक इसी तरह ' अ ' और ' क ' कहा । बिना तर्क किए अध्यापक के अनुकूल मान लिया । कुछ बड़ा हुआ और उनके उच्चारणों को समझने लगा, तो कहा - अध्यापकजी ने ठीक ही कहा था । उसी तरह जब हम संतों की वाणी आदि को पढ़ते हैं , तो उसमें ईश्वर की स्थिति पाते हैं और वह विश्वास पक्का हो जाता है

      कितने भाई कहते हैं कि ईश्वर तर्क में नहीं आ सकता । कितने भाई कहते हैं कि जो तर्क में नहीं आता , वह है ही नहीं ये दो प्रकार के ख्याल लोगों में हैं ' ईश्वर है ' पक्ष में विशेष और ' ईश्वर नहीं है'- इसके पक्ष में बहुत कम लोग हैं ; किंतु वे ऐसे हैं जो विशेष विद्वान हैं । ऐसे लोग भी , जिनको तर्क करने में ईश्वर में विश्वास नहीं है - मेरे बहुत साथी हैं । ईश्वर में विश्वास रखनेवाले विशेष और नहीं विश्वास रखनेवाले कम हैं । आजकल चुनाव का दिन है । इसलिए लोग इसी को विशेष मानते हैं । इसलिए यही पक्ष मजबूत है कि ईश्वर है । किंतु उसका अनादि , अनंत , असीम , अपरिमित ; इस तरह कुछ होना संभव है या नहीं । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।। 

     कबीर साहब कहते हैं श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।। बड़ातें बड़ा छोट तें छोटा मीही तें सब लेखा । सब के मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सों देखा । चाम चश्म सों नजरिन आवै खोजु रूह के नैना । चून चगून वजूद न मानु तें सुभानमूना ऐना ॥ जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै । ज्यो अनुमान करै साहब को त्या साहब दरसावै ॥ जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाई । रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं । जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा । कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा । 

     असीम हुए बिना ' बड़ा तें बड़ा ' नहीं हो सकता । ' छोटे से छोटा ' और ' बड़े से बड़ा ' ' अणोरणीयान् महतो महीयान् का उलटा है । बाबा नानक ने कहा अलख अपार अगम अगोचरि , नातिसुकाल न करमा ।। जाति अजाति अजोनी संभउ , नातिसुभाउन भरमा ।। साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु । नातिसु रूप बरनुनहि रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ॥ नातिसु मात पिता सुत बंधप नातिसुकाम न नारी । अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।। घट घट अंतरि ब्रह्म लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई । बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥ जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई । सतिगुरु सेवि पदारयु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥ सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी । तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी

      इस प्रकार संत - वचन और उपनिषद् के वाक्यों में परमात्मा को अनंत ही कहा गया है । विवेकानंद स्वामी ने भी अनंत ही कहा है । इस प्रकार सभी संत कहते चले आए हैं और इसी तरह मानते चले जाएँ । 

     इस प्रकार का असीम , अनादि एक तत्त्व होगा या नहीं ? यदि नहीं , तो ससीम है - कहेंगे । तो प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है ? बहुत ससीम मिलकर एक असीम नहीं हो सकते । सब ससीमों को मिलाने से वह मण्डल बहुत बड़ा हो जाएगा ; किंतु वह अनंत नहीं होगा । प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है , तब असीम कहे बिना उत्तर हल नहीं हो सकता सब ससीमों के पार में एक असीम होना पूर्ण संभव है । असीम दो हो नहीं सकते । दो असीम होने से दोनों ससीम हो जाएंगे । इसलिए यह कहना होगा कि असीम एक ही होगा । स्वामी विवेकानंदजी ने भी एक ही असीम माना है ।

      एक विद्वान भागलपुर से पूर्णियाँ सफर करते समय मेरे पास आए । उन्होंने मुझसे पूछा - ईश्वर के विषय में आप क्या मानते हैं ? मैंने कहा - मैं मानता हूँ , वो असीम है । उन्होंने पूछा - जो असीम है , उसे ईश्वर क्यों मानें ? मैंने उत्तर दिया - असीम होने से सब कुछ उसके अंदर है और जो जिसके अंदर में है , गोया काबू में है , इसलिए उसका वह ईश्वर हैइस प्रकार विचार में भी ईश्वर की स्थिति पाते हैं और संतों ने भी इसी प्रकार का वर्णन किया है । हमारे पूर्वजों ने जो हमें ' राम - राम ' सिखलाया था , वह ठीक है । जैसे अध्यापक ने हमें ' अ ' ' क ' आदि बतलाए थे ; ठीक है- अब समझने लगे हैं ; किंतु जिस समय अर्थात् बचपन में जो अध्यापक ने कहा , वहाँ तर्क नहीं किया । उसी प्रकार माताजी , पिताजी ने जो कहा , वह ठीक है आज संतों की वाणी से वह पुष्ट हो जाता है । 

     पहले श्रवणज्ञान , फिर मननज्ञान , निदिध्यासन ज्ञान और अनुभवज्ञान । ' अनुभव ' का अर्थ प्रत्यक्ष होता है । भजन करते हुए अंत में पूर्ण समाधि हो जाती है , वह अनुभव ज्ञान है । अनुभव ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो साधन करते हैं , वह है निदिध्यासन ज्ञान । ईश्वर के संबंध में जो कुछ हम सुनते हैं , वह श्रवणज्ञान है और फिर उस पर विचारते हैं , वह मननज्ञान है । ये चार प्रकार के ज्ञान हैं । इन चारों को भी दो भागों में बाँट सकते हैं - एक परोक्ष और दूसरा अपरोक्ष । इस तरह ज्ञान को समझ लेने पर संतों की वाणी को वचन - प्रमाण से मानते हैं ; विचार - प्रमाण से मानते हैं , किंतु जिनको अनुभव हो गया है , वे संत हैं और जो अभी साधन कर रहे हैं , प्राप्त नहीं हुआ है , वे साधु हैं साधक को साधन के अंत में अनुभव ज्ञान होगा ।

      अभी जो कुछ पाठ हुआ , उसमें आपलोगों ने सुना कि वह ईश्वर इन्द्रियों , मन और बुद्धि से परे है , महतत्त्व से परे है । महतत्त्व ' का प्रयोग कहीं बुद्धि के लिए हुआ है और कहीं जडात्मिका प्रकृति के लिए हुआ है । यहाँ ' महतत्त्व ' का प्रयोग जड़ात्मिका प्रकृति के लिए किया गया है । अव्यक्त जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , प्रकृति का मूल रूप । प्रकृति एक अपने रूप में रहती है , दूसरी विकृति - रूप में । विकृति - रूप इन्द्रियगोचर होता है , किंतु मूल - रूप अव्यक्त है । श्रीमद्भगवद्गीता में अपरा प्रकृति को अष्टधा प्रकृति कहा है परा प्रकृति में विकृति नहीं आती , वह ज्यों - की - त्यों रहती है । परा प्रकृति अत्यंत सूक्ष्म है । ' सूक्ष्म ' का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं , बल्कि आकाशवत् सूक्ष्म । ईश्वर को कितने लोग खण्ड - खण्ड करके व्यापक मानते हैं ; किंतु भिन्न - भिन्न पिण्डों में होकर व्यापक होने से बीच में कुछ - न - कुछ अवकाश होगा । परंतु एक - ही - एक सघनता से फैला हुआ हो , ऐसा जो स्वरूप रखता हो , वह कितना सूक्ष्म और झीना होगा ! दूसरी बात यह है कि छोटी - सी घड़ी के यंत्र बहुत छोटे - छोटे होते हैं । उसको खोलने के लिए बढ़ई का पेचकश काम नहीं करता । उसके लिए छोटे - छोटे पेचकश चाहिए । उसी प्रकार परमात्मा के समक्ष ये इन्द्रियाँ अत्यंत स्थूल हैं । इन्द्रियों के परे मन , मन के परे बुद्धि , बुद्धि के परे महतत्त्व , महतत्त्व के परे वह आत्मा है । फिर उस आत्मा को इन्द्रियादि से कैसे ग्रहण कर सकेंगे ? इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार , नेति नेति नित निगम कह ।। - रामचरितमानस  अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत इति वासनाधूप दीजै । -विनयपत्रिका 

     यह सगुण रूप हुआ । एक शरीर में रहते हुए आपका जोर है कि यह शरीर मेरा है और यह रूप मेरा है , उसी प्रकार परमात्मा सबमें है । इसलिए सब शरीर उन्हीं के हैं और सब रूप उन्हीं हैं । अग जग मय प्रभु रहित बिरागी । प्रेम ते प्रकट होहिं जिमि आगी ।। 

     सबमें वे रहते हैं । जैसे आप वस्त्र पहनते तो आपका जो आदर करते हैं , तो आपके वस्त्र का भी आदर करते हैं । हमारे गुरु महाराज की खड़ाऊँ अभी रहती तो हम उसको नहीं पहन सकते , प्रणाम करते । उनकी गुदड़ी अभी रखी हुई है । हमलोग पहनते नहीं हैं , प्रणाम करते हैं । तुलसी साहब की गुदड़ी रखी हुई है , लोग उसका दर्शन करते हैं , प्रणाम करते हैं । गुरु महाराजजी की मूर्ति अभी है , गुरु महाराज अभी नहीं हैं , किंतु उस मूर्ति को पूजते हैं ; क्योंकि उस रूप में वे आए थे । इसलिए आज हमारे यहाँ मूर्ति पूजन होता है । 

     एक भक्त ने कहा कि राजा कपड़ा नहीं होता , उसी प्रकार भगवान जो रूप धारण करते हैं , वे वह नहीं हो जाते । इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धेरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ।। यथा अनेकन वेषधरि , नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ , आपुन होइ न सोइ ।।  -रामचरितमानस  

      ऐसा कहने से रूप का अपमान नहीं हुआ । आप अपने शरीर के लिए विचारिए । कितने शरीर धारण किए । अनेक रूपों को धारण करते हुए आप उनसे न्यारे ही रहे क्योंकि ' ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।।

     वह सब रूपों में रहता है । किंतु किसी के रूप - जैसा नहीं होता । रूप व्यक्त है , गोचर है । रूपधारी अव्यक्त है , अगोचर है । अच्छा हो कि हम रूप को पहचानें और रूपधारी को भी पहचान लें , कभी भ्रम नहीं होगा । ब्रह्मा को भगवान श्रीकृष्ण के लिए भ्रम हुआ । ब्रह्मा को ही नहीं , नारद , कागभुशुण्डि , इन्द्र आदि को भी भ्रम हुआ । इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा निर्गुन रूप सुलभ अति , सगुन जान नहिं कोइ । सुगम अगमनाना चरित , सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।। 

     तुलसीदासजी को भगवान के स्थूल सगुण साकार रूप के दर्शन हुए , किंतु वे पहचान न सके । प्रसिद्ध है कि चित्रकूट के घाट पर , भइ संतन की भीर । तुलसिदास चंदन घिसै , तिलक देत रघुवीर ।।

      सगुण साकार रूप में यह बात है । रूपधारी में यह बात नहीं । यदि रूपधारी एक बार पहचान में आ जाए , तो फिर वह हेराने को नहीं । संतों ने कहा - दोनों को पकड़ो । ईश्वर स्वरूपतः ' अगुन अखण्ड अलख अज ' है , किंतु प्रकट होने के लिए कुछ कारण होना चाहिए । इसलिए ' भगत प्रेमबस सगुन सो होई । ' सब रूपों में वह व्यापक है । इन सब रूपों में जो रूप विशेष प्रभावशाली है , धर्मवान है , वह विशेष है । 

     महात्मा गाँधीजी ने कहा कि मनुष्य अवतार है- “ अवतार ' से तात्पर्य है शरीरधारी पुरुष विशेष । जीव मात्र ईश्वर के अवतार हैं , परंतु लौकिक भाषा में सबको हम अवतार नहीं कहते । जो पुरुष.... शेष प्रवचन दूसरे पोस्ट में.



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S78, (क) Eeshvar avashy hai pramaanik Baaten ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 22-04-1954 ई. S78, (क)  Eeshvar avashy hai pramaanik Baaten  ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 22-04-1954 ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/29/2020 Rating: 5

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