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S80, (क) Paapee, Punyaatma aur karmon ke Phal ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 25-04-1954ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 80

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ८० के बारे में। इसमें बताया गया है कि  संसार में पापी और पुण्यात्मा दो तरह के मनुष्य होते हैं। दोनों को अपने-अपने कर्मों का फल भोगना होता है। जो ध्यानयोगी होते हैं, वे दोनों तरह के कर्मो से ऊपर उठ जाते हैं।

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  कर्म कितने प्रकार का होता है? पापी किसे कहते हैं ? पुण्यात्मा कौन है? पाप और पुण्य से क्या होता है?  महाभारत में गुरु द्रोण कैसे मारे गए? झूठ बोलने के पाप से युधिष्ठिर को क्या मिला? पांचो पांडव सदेह स्वर्ग क्यों नहीं जा सके? मनुष्य के शरीर में कौन-कौन से गुण हैं? स्वर्ग लोक को इस आंख से क्यों नहीं देख सकते? दान, पुण्य करने से पाप कटता है कि नहीं? पाप से छूटने के क्या लक्षण है? पाप करने से कौन बच सकता है? क्रियमाण , सञ्चित और प्रारब्ध कर्म क्या है? प्रारब्ध का भोग कब तक होता है? ध्यान योगी प्रारब्ध के भोग कैसे भोगता है? सभी लोगों को किस बात से डरना चाहिए? श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार संसार में कैसे रहना चाहिए? ध्यान में तरक्की के लिए क्या परहेज है?  इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- कर्म का फल कब मिलता है, कर्म के चार प्रकार, कर्मों का फल शायरी, कर्म फल कहानी,कर्म फल भोगना पड़ता है, अच्छे कर्म कैसे करे, कर्मों का फल कैसे मिलता है गीता सार, कर्मों की सजा, कर्मों का फल इसी जन्म में मिलता है, कर्म तीन प्रकार, पिता के कर्मों का फल, कर्म का सिद्धांत, कर्म क्या है गीता, कर्म का परिभाषा, कर्म तीन प्रकार, कर्म का उद्देश्य, कर्म की परिभाषा व्याकरण, कर्म का सिद्धांत, कर्म किसे कहते है, कर्म का अर्थ, भारतीय दर्शनशास्त्र में कर्म का सिद्धांत बहुत ही गहन बताया गया है। कर्म क्या है? कर्म कितने प्रकार के हैं ? भाग्य को कैसे काटा जा सकता है?  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 79 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

कर्म के सिद्धांत पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
कर्म और उसके फल पर चर्चा करते हुए गुरुदेव

Sinner, saintly and deeds. पापी, पुण्यात्मा और कर्मों के फल

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! सबलोग अपनी मंगल - कामना करते हैं सबलोग बराबर कर्म करते हैं । कर्म दो ही तरह के होते हैं - शुभ और अशुभ । .....   इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is the type of karma?  Who is a sinner?  Who is the saint?  What happens with sin and virtue?  How did Guru Drona get killed in Mahabharata?  What did Yudhishthira get from the sin of lying?  Why couldn't the five Pandavas always go to heaven?  What are the qualities in human body?  Why can't you see heaven with this eye?  Does charity make a sin or not?  What are the symptoms of getting rid of sin?  Who can avoid sinning?  What is Kriyamana, Sanchita and destiny karma?  How long does destiny take?  How does a meditation yogi experience destiny?  What should all people be afraid of?  According to Sri Ramakrishna Paramahamsa how should one live in the world?  What is the prevention for progress in meditation?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

८०. मेरा यहाँ कुछ नहीं है , सभी मेरे मालिक के हैं 


कर्म के सिद्धांत पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

      सबलोग अपनी मंगल - कामना करते हैं; सबलोग बराबर कर्म करते हैं । कर्म दो ही तरह के होते हैं - शुभ और अशुभ । इन दोनों कर्मों को करने के लिए लोग लगे रहते हैं । जो अशुभ कर्म विशेष करते हैं , वे पापी और जो शुभ कर्म विशेष करते हैं , उन्हें पुण्यात्मा कहते हैं । किंतु ऐसा नहीं कि पुण्यात्मा से पाप नहीं होता । उनसे भी पाप कर्म हो जाता है , जैसे- महाराज युधिष्ठिर । लोग पाप का फल दुःख भोगना नहीं चाहते । पुण्य का फल सुख भोगना चाहते हैं । पाप और पुण्य ; दोनों का फल दुःख और सुख है । किंतु पाप और पुण्य ; दोनों कर्म बंधनवाले हैं । एक लोहे का बंधन है , तो दूसरा सोने का । पापकर्म करके लोग दान , पुण्य , तीर्थ आदि करके चाहते हैं कि पाप नाश हो जाएगा , किंतु ऐसा नहीं होता

      महाभारत के मैदान में द्रोण के तीर से सब व्याकुल हो गए थे , उन्हें कोई रोक नहीं सकता था । भगवान ने कहा कि ' झूठा हल्ला कर दो कि अश्वत्थामा मारा गया । क्योंकि द्रोण को था कि वह अपने पुत्र की मृत्यु का नाम सुनने से मर जाएगा । अर्जुन ने भगवान की बात को सुना ही नहीं । भीम ने अवन्तिदेश के राजा के हाथी को , जिसका नाम अश्वत्थामा था , मारकर हल्ला कर दिया कि अश्वत्थामा मारा गया । द्रोण को विश्वास नहीं हुआ । उन्होंने कहा कि यदि राजा युधिष्ठिर कहें , तब विश्वास करूँगा । सब लोगों और भगवान की प्रेरणा से उनको झूठ बोलना पड़ा कि अश्वत्थामा मरा , मनुष्य या हाथी । हाथी कहने के समय धीमें स्वर में कहा और मनुष्य कहने के समय में जोर से कहा । उसी समय लोगों ने बाजे बजा दिए । द्रोण कमजोर हो गया और मारा गया । इस झूठ के पाप का फल युधिष्ठिर को भोगना पड़ा और नरक भोगना पड़ा । भगवान श्रीकृष्ण के संसार में नहीं रहने की खबर जब पाँचों पाण्डवों और द्रौपदी को मिली , तो राज्य छोड़कर चल दिए । व्रती होकर दान देते हुए तीर्थों में भ्रमण करने लगे । 

     पहाड़ों में पहले घटोत्कच ले जाता था , किंतु वह तो युद्ध में मारा गया था । ये लोग पैदल ही चलते थे । चलते - चलते द्रौपदी गिर गयी । 

     चारों भाइयों के गिरने की बात और भीम का पूछना कि ये सब क्यों गिरे ? द्रौपदी को चाहिए था कि सब भाइयों को बराबर देखना , किंतु वह अर्जुन का पक्ष करती थी । सहदेव को पंडिताई का घमण्ड था । नकुल को अपनी सुंदरता का घमण्ड था । अर्जुन को अपने बल - पौरुष का घमण्ड था । जितना मनसूबा बाँधता था , उतना कर न सका । जितना काम कर न सको , उतना बोलो नहीं , इसी पाप से गिरा । भीम ने अपने लिए पूछा तो कहा कि तुम अपने बल के आगे किसी को कुछ नहीं समझते थेयुधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गए , किंतु देवदूत उन्हें अंधकार के मार्ग से खराब रास्ते होकर ले चले , जहाँ बहुत दुर्गन्ध थी । लौटने लगे , तब देव - माया से अर्जुन , नकुल , भीम , द्रौपदी आदि के मुँह का शब्द सुना । दो मुहूर्त के बाद फिर समाप्त हो गया

      इससे शिक्षा मिलती है कि पाप फल भोगना पड़ेगा । स्वर्ग में जाकर फल भोगो । फल समाप्त हो जाय , तो फिर उसी के अनुकूल अमीर - गरीब के घर जन्म लो , दुःख - सुख सहो । मनुष्य पहले मन से कर्म करता है , फिर मन और देह दोनों से करता है । पहले सूक्ष्म मन से करता है । फिर सूक्ष्म मन और स्थूल देह से करता है । इसलिए स्थूल जगत में आकर स्थूल देह और सूक्ष्म मन के साथ दुःख सुख भोगता है । 

     बिना अंकुर से वृक्ष नहीं होता । संसार में बहुत तरह के बर्तन बनते हैं । इसका मसाला मिट्टी है । इस शरीर के बनने के मसाले का नाम प्रकृति है । यह गुणों का सम्मिश्रण रूप है । ये त्रयगुण हैं - रजोगुण , तमोगुण और सतोगुण रजोगुण उत्पादक , सतोगुण - पालक और तमोगुण – विनाशक है । ये तीनों बराबर - बराबर भाग से बने हैं । वह प्रकृति कैसी है ? इसके लिए बुद्धि निर्णय करती है , किंतु पहचान नहीं सकती , वर्णन नहीं कर सकती ; क्योंकि वह इन्द्रिय - ज्ञान से परे है ।

      पहला वह मसाला जिससे सब कुछ बने , पहले स्थूल - ही - स्थूल कैसे बनेगा ? इसलिए पहले ऐसा बनेगा , जो आकार ऐसा बनेगा , जो आकार - प्रकारवाला नहीं है । फिर वैसा बनेगा , जिसमें आकार - प्रकार रहेगा , किंतु सूक्ष्म । फिर ऐसा रूप बनेगा , जिसे सब देखते हैं । इसलिए इस सूक्ष्म लोक - स्वर्ग को इस स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकते । लोग समझते हैं कि इसी संसार में सुख से रहना स्वर्ग में रहना है और दुःख में रहना नरक में रहना है । किसी को लूटकर धन लाते हो , धन लाते समय मन कैसा रहता है , दूसरे के यहाँ लूटने जाते हो , तब मन कैसा रहता है? भोगते समय भी हृदय में चैन नहीं रहता । डर सदा लगा रहता है । किंतु जो गरीब है , एक शाम भूखा ही रहता हो , किंतु यदि वह लूट - खसोट नहीं करता है तो वह घर में चैन से रहता है उसे डर नहीं रहता कि कोई उसे चोर - डाकू कहकर पकड़ेगा । दान , पुण्य , तीर्थ करने से पाप कटा कि नहीं । इसकी जाँच है कि जब तुम्हारे मन में पाप - वृत्ति उदय न हो , तब समझो कि पाप खतम हो गया । जबतक पाप वृत्ति उठती रहे , तबतक समझो कि पापों का नाश नहीं हुआ भीम , युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई जहाँ - जहाँ से आए थे , वहीं - वहीं गए । यह निश्चय है कि कर्म - फल नहीं छूटता , सबको भोगना पड़ता है । काहुन कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सुनु भ्राता

      कर्म - फल से कोई बच नहीं सकता । जब श्री राम और सीताजी भी कर्म - फल का भोग करते हैं , तो और लोगों के लिए कहना ही क्या ? किंतु ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है यदिशैल समं पापं विस्तीर्ण बहुयोजनम् । भियते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।

      पाप करने के लिए वृत्ति भीतर में नहीं आवे , तो समझो कि पाप छूटा । ध्यानयोग करनेवाला , भगवद्भजन करनेवाला पाप के ख्यालों को छोड़ - छोड़कर ध्यान में मन लगाता है । संसार में कर्म करता है , तो पुण्य - कर्म करता है । उसमें भी आसक्ति नहीं रखता । पाप करने की वृत्ति नहीं रहती । यह आजमाइस करने की बात है । ध्यान करनेवाले का मन पाप की ओर नहीं जाता

      कर्म तीन प्रकार के होते हैं - क्रियमाण , सञ्चित और प्रारब्ध । जो कर्म हम वर्तमान में करते हैं , वे क्रियमाण कहलाते हैं । क्रियमाण कर्म ही एकत्र होने पर संचित कहलाते हैं । उसी संचित में से जिसका भोग करने लगते हैं , वह प्रारब्ध कहलाता है।

      ध्यानशील का क्रियमाण कर्म पवित्र होता है , क्रियमाण कर्म को फलाश छोड़कर करता है । करना सहीन लेना कुछ भी , वाना झाखर झूरों का । -काष्ठ जिह्वा स्वामी 

     मस्त आदमी का यह काम है कि पाप नहीं करे । भला कर्म करे तो उसका फल नहीं चाहे । प्रारब्ध कर्म तबतक भोगेगा , जबतक शरीर रहेगा । 

     ध्यान में सिमटाव होता है । सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है । उसकी इतनी ऊर्ध्वगति होती है कि कर्म मण्डल को पार कर जाता है , जिसके लिए गोरखनाथजी ने लिखा - ' जाता जोगी किनहुँ न पावा । ' जबतक शरीर रहता है , प्रारब्ध भोगना पड़ता है , किंतु उसी तरह भोगता है , जैसे नशे में आदमी मस्त रहता है । ध्यानयोगी परमात्मा के पास जाता है , परमात्मा को पहचानता है । जैसे सूर्य के ताप से जाड़ा भाग जाता है , उसी तरह परमात्मा की पहचान में पाप - ताप सभी भाग जाते हैं इसलिए सभी कोई ध्यान करो । निधड़क बैठा नाम बिनु , चेति न कर पुकार । यह तन जल का बुदबुदा , बिनसत नाहीं बार । आज कहै मैं काल्ह भनूँगा , काल्ह कहै फिर काल । आज काल्ह के करत ही , औसर जासी चाल

      ऐसा मत करो । डर के मारे खेती करते हैं खेती नहीं करेंगे तो अनाज नहीं होगा । भूखों रहना पड़ेगा ; वस्त्र नहीं मिलेगा - इस डर से खेती का काम करते हैं । समय पर खेत जोतते हैं , कोड़ते हैं , बोते हैं , फसल काटते हैं । उसी तरह डरो कि यह शरीर कब छूट जाएगा , ठिकाना नहीं । इसलिए डरो और ईश्वर का भजन करो । मांस - मछली नहीं खाओ , नशा नहीं खाओ ।

      श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा - ' धनियों के घर की नौकरानी की तरह संसार में रहना सीखो । नौकरानी मुँह से तो हमेशा यही कहा करती है कि लड़के - बच्चे , घर - वार सब मेरे ही हैं , पर उसका मन जानता है कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है , सभी मेरे मालिक के हैं । इसी तरह बाहर में सब काम अपना जानकर करते रहो , किंतु मन से हमेशा जान रखो - तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है , सभी मालिक के हैं । उसका हुक्म होते ही सब छोड़कर चला जाना पड़ेगा । इसके सिवा काम में त्रुटि होने पर मालिक की धमकी का भी डर रहता है । ' 

     संसार में अनासक्त होकर रहो और ईश्वर का भजन करो । यह सुनकर मन बहुत प्रसन्न हुआ कि यहाँ के लोग बीड़ी - सिगरेट आदि नहीं पीते । जो बनिया बीड़ी बेचे , उसे पाँच रुपये जुर्माना होंगे और जो उसे खरीदे , उसे दो रुपये जुर्माना । यह सुनकर कि मांस - मछली नहीं खानेवाले की संख्या विशेष है , बहुत खुशी हुई । जो कुछ अन्य आदमी मांस - मछली खाते हैं , उन्हें भी छोड़ देना चाहिए । 

     मत्स्य - मांस , नशादि खाना - पीना छोड़ दो । सात्त्विक भोजन करो , भजन करो , पाप - कर्मों से बचो । शान्ति - सुख से रहने का यही यत्न है ।,० 


ईसी प्रवचन को शांति संदेश में प्रकाशित किया गया है उसे पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि There are two types of humans and sinners in the world.  Both have to bear the fruits of their actions.  Those who are meditational, rise above both types of karma. इत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S80, (क) Paapee, Punyaatma aur karmon ke Phal ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 25-04-1954ई. S80, (क)  Paapee, Punyaatma aur karmon ke Phal ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 25-04-1954ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/30/2020 Rating: 5

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