महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 03
संतमत सत्संग में अन्नदान और खानपान का महत्व
प्यारे धर्मानुरागी भाइयो !
सदगुरु महर्षि मेँहीँ |
गो गोचर जहँ लगिमन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।
3. इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन जाय , सब माया है । ईश्वर स्वरूप इससे बहुत आगे है । इन्द्रियगम्य जो कुछ भी है , वह मायिक पदार्थ है । ईश्वर आत्मगम्य है । जिसे केवल आत्मा से ही पहचान सकते हैं , वह ईश्वर है । जो इन्द्रियों से जानते हैं , वह ईश्वर नहीं है । श्री राम उपदेश करते हैं-
4. नर-तन का यह फल नहीं है कि विषयानुरागी बनो । स्वर्ग का विषय भी ओछा है और अंत में दुःख देता है । विषय उसे कहते हैं , जिसे इन्द्रियों से जानते हैं ; इसके पाँच प्रकार हैं - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द । स्पर्श त्वचा से , शब्द कान से , रस जिभ्या से , गंध नाक से और रूप नेत्र से ; इनके अतिरिक्त संसार में कुछ जानने में नहीं आता । कोई भी पदार्थ हो – कठिन ( ठोस ) , तरल , वाष्पीय ; लेकिन पंच विषयों में से कोई एक अवश्य है । पुराण में स्वर्ग के लिए जाना जाता है कि इन्द्रियों के विषय वहाँ भी भोगते हैं ; चाहे कितने ऊँचे दर्जे का स्वर्ग क्यों न हो ।
गुरु भगवान |
5. राजा श्वेत ब्रह्मलोक गए । उन्होंने दान नहीं किया था , फलस्वरूप उनको ब्रह्मलोक में भूख-प्यास सताने लगी । तब उन्होंने ब्रह्माजी को कहा । ब्रह्माजी ने कहा - ' यहाँ खाने का सामान है ही नहीं । आपने कभी दान नहीं किया , उसका ही फल है कि यहाँ आपको भूख - प्यास सता रही है । इसलिए आप अमुक सरोवर में जाएँ , वहाँ आपका मृत शरीर सुरक्षित है , उसी का भोजन करें । ' राजा श्वेत ने पूछा - ' महाराज ! यह भोग मुझे कबतक भोगना पड़ेगा ? ' ब्रह्माजी ने कहा - ' जब आपको अगस्त्य मुनि के दर्शन होंगे और उनका आशीर्वाद आपको मिलेगा , तो आप इस कष्ट मुक्त हो जाएंगे ।
राजा श्वेत लाचारी नितप्रति उक्त सरोवर जाते और अपने मृत शरीर का मांस खाकर भूख बुझाते । संयोगवश वहाँ अगस्त्य मुनि पहुँचे । उन्होंने देखा कि दिव्य शरीर है , लेकिन मृतशरीर का मांस खा रहे हैं तो उनसे पूछा - ' आप कौन हैं ? ' राजा श्वेत ने अपना परिचय दिया और आशीर्वाद मांगा , तब वे उस भोग से मुक्त हुए ।
कर्मफल चित्र |
7. इन्द्रियों का संग छोड़कर जो आप जानें , वही परमात्मा ईश्वर है । उसकी भक्ति करें , उसका भक्त बनें , उसको प्राप्त करें फिर सुख की कमी क्या ? यहाँ का सुख थोड़ा तथा अंग - अंग में दुःख है । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द का सुख प्राप्त करने के लिए कमाई और परिश्रम कीजिए , कितना करना पड़ता है ? कितना दुःख है ! फिर भी एक ही दिन की कमाई से काम नहीं चलता है । संतोष नहीं होता । परमात्मा को जिन लोगों ने प्राप्त किया , उन्होंने कहा- यही सुख है । जबतक प्राप्त नहीं हो , परिश्रम करें । भक्ति करने के अभ्यास में आनंद मिलता है ।
सदगुरुदेव |
8. अगर=चन्दन । शब्द का रंग चढ़े तो क्या होगा? साहिब भये तेरे संग । संग में हई है , जबसे हम नहीं जानते , तबसे ही । किंतु शब्द को पकड़ लेने से प्रत्यक्ष हो जाएगा । बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जाएगा। बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जायगी? नहीं होगी । ध्यानविन्दूपनिषद् में है--
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि:शब्दं परमं पदम् ।।
अक्षर का बीज विन्दु है । पेन्सिल या कलम रखो , पहले विन्दु ही बनता है । लकीर बनाते हैं , वह विन्दुमय है । आपलोगों ने जो ध्यानविन्दूपनिषद् के पाठ में सुना , वही परम विन्दु है । यहाँ आपलोगों ने सुना--
विन्दु इतना छोटा होता है कि उसका विभाग नहीं हो सकता । बहुत छोटा है , इसीलिए इसे विन्दु नहीं कहकर परम विन्दु कहा । संसार में लोग चिह्न करके विन्दु मानते हैं । लेकिन उसकी परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु नहीं बना सकते । इस परम विन्दु को प्राप्त करने से शब्द मिलता है । फिर शब्द का भी जहाँ लय हो जाता है , वह ' निःशब्दं परमं पदम् ' है । अंतस्साधना करते - करते आनंद आने लगेगा । मलयागिरि का सुगंध मालूम होगा तथा शब्द का रंग चढ़ जाएगा । तब हो जाएगा -
साहिब भयो तेरे संग । ' ( कबीर )
कोई कहे शब्दातीत परम पद है और यहाँ शब्द को ही परम पद बना दिया , ऐसा क्यों ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है , गुरु नानकदेव ने कहा है -
प्रवचन के बाद गुरुदेव |
शब्द ही सही चिह्न है । देवता को प्रसन्न करने के लिए देवताओं की प्रतिमा पूजते हैं ; उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । प्रतिमा पूजते हैं तथा उसे ठाकुरजी कहते हैं । उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । शब्द अपने उद्गम स्थान पर पहुँचाता है । घोर अँधेरी रात में जहाँ से शब्द आता है , वहाँ चलते-चलते पहुँच जाय , असम्भव नहीं । जो कोई विन्दु को ग्रहण करेगा , वह शब्द को ग्रहण कर लेगा । जहाँ से इस शब्द का विकास हुआ है , वहाँ पहुँचा देगा । इसलिए मन बुद्धि आदि इन्द्रियों से आगे बढ़कर शब्द को पकड़ने की कोशिश करें । आँख , कान ; सब मोटी - मोटी इन्द्रियाँ हैं । इसमें सूक्ष्म रूप से जो चेतनवृत्ति है , उसके अंदर रहने के कारण सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं । यह वृत्ति आँख में आई तो देखने की शक्ति दृष्टि हुई । जो स्थूल में लिपट कर रहेगा तो सूक्ष्म में क्या उठ सकता है ? इन सब पदार्थों को लें तो वह विन्दुमय है । परमात्मा की कृपा , गुरु की दया हो , विन्दु पर अपने को रख सकें तो पूर्ण सिमटाव होगा । सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति होगी । कठिन या तरल किसी पदार्थ को समेटिए ऊर्ध्वगति होगी । जहाँ मन का समेट है , स्थूल में सिमटने पर सूक्ष्म में प्रवेश होगा । इसके शौकीन को बाबा नानक की बात याद रहे-
9. पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है । हमारा अंत : करण शुद्ध होना चाहिए । इसके लिए संयम तथा परहेज करें । अपने को काम क्रोध से बचाकर रखें । बाहर में पाप कर्म नहीं करें । जिस कर्म को करने से अधोगति हो , उसे पाप कहते हैं । पाप - झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार नहीं करें , तब ईश्वर की ओर जाएंगे । इस पर संशय उठेगा कि क्या यहाँ ईश्वर नहीं है ? इसका उत्तर गो ० तुलसीदासजी ने लिखा है-
यहाँ हम नहीं पहचानते हैं , इसलिए हम जहाँ जाकर पहचानेंगे , वहाँ जाएँगे । प्रत्यक्ष वहाँ पाएँगे , जहाँ जाएँगे । उसको प्राप्त करने के लिए अभ्यास करना तथा परहेज करना ; इतनी बातों को जानें । इससे विशेष जानें तो और अच्छा । यह बहुत दृढ़ है कि कोई बिना संयम किए प्राप्त करना चाहे तो ' भूमि पड़ा चह छुवन आकाशा ' वाली बात है । संयमी होने पर संसार में भी सुखी रहता है । वह फजूल खर्च नहीं करता है । उसके पास धन भी जमा हो जाता है । संयमी आदमी बहुत रोग में नहीं पड़ते । धन एकत्रित होने के कारण और पापविहीन होने के कारण लोगों की नजर में वे श्रेष्ठ देखने में आते हैं तथा अंत में परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । पुरुष को स्त्री का और स्त्री को पुरुष का संग करना पड़ता है । इसके लिए वैवाहिक विधान है । विवाह करने से व्यभिचार नहीं होगा । शास्त्र के नियम छोड़कर अथवा विवाह नहीं होने पर जो संग है , वह व्यभिचार है ।
गुरु महाराज |
11. छुतिया= छू जानेवाली चीज । लोग कहते हैं बिना हिंसा किए कैसे रह सकते हैं ? एक हिंसा वार्य तथा दूसरा अनिवार्य होता है । वार्य से बच सकते हैं , किंतु अनिवार्य से नहीं बच सकते हैं । शरीर खुजलाने पर भी शरीर के कीड़े मरते हैं । जल पीने , हवा लेने में भी हिंसा है । इसको रोकने की कोई विधि नहीं है । यह अनिवार्य हिंसा है । खेती करने , घर बुहारने , आग जलाने आदि में भी हिंसा है , किंतु अनिवार्य है । इसका प्रायश्चित अतिथि - सत्कार और परोपकार से करो । राजा के लिए युद्ध अनिवार्य है । गृहस्थ के लिए घर बनाना , खेती करना अनिवार्य हिंसा है । जान - बुझकर स्वार्थ के लिए जो हिंसा होती है , वह वार्य हिंसा होती है , इसे त्यागना चाहिए । मांस - मछली भी छोड़ो , खाओ मत । मनुस्मृति में आठ आदमी को पाप लिखा है । भूपेन्द्रनाथ सान्याल ने कहा है
न त्वं नाहं नायं लोकस्तदपि किमर्थ क्रियते शोकः ।।
12. हमारे देह जो परमाणु है जलचर , नभचर आदि में जो परमाणु है एक नहीं । हमलोगों के शरीर में मानुषिक परमाणु है तथा उनमें पाशविक परमाणु है। मनुष्य शरीर में पशु शरीर का परमाणु रखना उचित नहीं । मानसिक हिंसा भी छोड़ो । ईश्वर पर विश्वास करो , उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी । तब बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई । ' ऐसा ध्यानाभ्यास से होगा ।
सत्संग करो , ध्यानाभ्यास करो ; यह अंतर का सत्संग है और गुरु की सेवा करो ।
पानी बहुत दूर में है । मानो हजार हाथ नीचे है । हजार हाथ की रस्सी लगेगी , पानी खींचने के लिए बाल्टी भी चाहिए । रस्सी कुएँ में गिराकर केवल छोर पकड़े रहते हैं फिर पानी निकालकर पीते हैं । अगर छोर छूट जाय तो पानी नहीं पी सकते हैं । उसी प्रकार भजन तथा आशा की छोर पकड़े रहो , कल्याण होगा । आशा कभी मत छोड़ो ।
आशा से मत डोल रे तोको पीव मिलेंगे ।०
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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